शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 14

Newsdesk Uttranews
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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 14

बच्चे स्वभावतः वैज्ञानिक अप्रोच लिए हुए होते हैं

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बच्चे जन्मजात उत्सुक,जिज्ञासु और कल्पनाशील होते हैं। बात-बात पर उनके द्वारा किए जाने वाले कभी खत्म न होने वाले सवाल तथा रंग-बिरंगी कल्पनाएं इस बात के प्रमाण हैं। बच्चे किसी भी बात को ऐसे ही नहीं स्वीकार कर लेते हैं बल्कि अनेक प्रश्न-प्रतिप्रश्न करते हैं। यह क्या है, कहां से आया, क्यों आया,कैसे बना? जैसे प्रश्न हर वक्त उनके जुबान पर ही रहते हैं। उन्हें खोजने में बहुत आनंद आता है। हर नई चीज उन्हें अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। वे उसकी तह में पहुंचना चाहते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि बच्चे स्वभावतः वैज्ञानिक अप्रोच लिए हुए होते हैं, बच्चे हर वस्तु को उलट-पलट कर देख लेना चाहते हैं। इस कोशिश में उनसे अक्सर चीजें टूट-फूट भी जाती हैं, बड़ों को उनका यह व्यवहार शैतानी भरा लगता है। ऐसे बच्चों को कम पसंद किया जाता है। उन्हें बड़ों की डांट-डपट का शिकार होना पड़ता है। उनको शरारती के विशेषण से नवाजा जाता है। जिसका परिणाम नई पीढ़ी में पढ़ने-लिखने के प्रति अरुचि और नकलची व्यवहार के रूप में दिखाई देता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर दब्बू और उदासीन भी हो जाते हैं। अक्सर अभिभावकों की शिकायत रहती है कि उनके बच्चे पढ़ने में कम ही उत्सुकता दिखाते हैं। इसका एक बड़ा कारण अभिभावकों का यही व्यवहार है। दरअसल बच्चों के सवालों की उपेक्षा करना उनकी उत्सुकता और जिज्ञास को कुंद कर देना है। इसका बच्चों की अभिव्यक्ति क्षमता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे अपने को अभिव्यक्त करने में हिचकने लगते हैं। उनकी चिंतन प्रक्रिया बाधित होती है। नकल करने में ही उनको अपनी भलाई नजर आती है क्योंकि ऐसा करने पर वे आज्ञाकारी और विनम्र कहलाते हैं और सबके प्यारे हो जाते हैं। आखिर एडीसन और तोत्तोचान जैसे बच्चों को भला कौन पसंद करता है!
वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करने के लिए बच्चों को आसपास घट रहीं घटनाओं को गौर से देखने और प्रश्न करने के लिए प्रोत्साहित किए जाने की जरूरत है। इस बारे में लेखक मंच प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तिका ‘अपने बच्चे को दें विज्ञान दृष्टि’ के लेखक नैन्सी पाउलू का मानना है कि वस्तुओं को गौर से देखना वैज्ञानिक विश्लेषण की ओर ले जाने वाला अहम कदम है। एक साथ दुनिया को देखना और अपने-अपने देखे हुए को एक-दूसरे से बांटना भी उतना ही जरूरी है। वह सलाह देते हैं कि हमें बच्चों को सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।….अगर हम अपने बच्चों के सभी सवालों का जवाब नहीं दे सकते,तो इसमें कोई बुरी बात नहीं। किसी के भी पास सभी सवालों के जवाब नहीं होते,यहां तक कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक के पास भी नहीं। वह बालमनोविज्ञान को समझते हुए बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि हमें अपने बच्चों को उनके विचारों को प्रकट करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और उनके स्पष्टीकरण को ध्यान से सुनना चाहिए। बच्चों को ध्यानपूर्वक सुना जाना उनके आत्मविश्वास को बढ़ाता है और इससे उनकी विचार क्षमता तथा विज्ञान के प्रति रुचि में इजाफा होता है। बच्चों को सुनने से हमें पता चलता है कि वे क्या जानते हैं और क्या नहीं जानते। बच्चों को विज्ञान की पूरी समझ सिर्फ स्कूल में ही नहीं दी जा सकती है, बल्कि एक अभिभावक के रूप में हमें इसकी शुरुआत घर से ही करनी चाहिए। इसके लिए यह कोई जरूरी नहीं है कि अभिभावक की विज्ञान में गहरी पकड़ हो। बस विज्ञान के प्रति एक सकारात्मक नजरिया होना चाहिए।
हमारे समाज में वैज्ञानिक ढंग से सोचने का नितांत अभाव है। इस दृषि् सोचना तो दूर की बात है, यह भी पता नहीं है कि वैज्ञानिक ढंग से सोचना क्या होता है। बच्चे और सामान्य अभिभावक तो छोड़िए बच्चों के लिए लिखने का दावा करने वाले बहुत सारे रचनाकारों तक को यह पता नहीं है। एक बालसाहित्य सम्मेलन का प्रसंग यहां उद्धरित करना चाहुंगा,जहां मुझे भी बोलने को आमंत्रित किया गया था। देशभर से बालसाहित्यकार वहां उपस्थित थे। ‘बाल साहित्य और वैज्ञानिक चेतना’ विषय पर मुझे बोलना था। मैंने अपने वक्तव्य में इस बात पर जोर दिया कि बाल साहित्य ऐसा होना चाहिए जो बच्चों में वैज्ञानिक चेतना विकसित करे। उन्हें वैज्ञानिक ढंग से सोचना सिखाए। मेरा वक्तव्य समाप्त होने के बाद एक वरिष्ठ साहित्यकार बोलने के लिए आए। उन्होंने व्यंग्य करते हुए कहा कि कुछ लोग बाल साहित्य में वैज्ञानिक चेतना की बात करते हैं, साहित्य में विज्ञान का क्या काम ,जब साहित्य में विज्ञान पढ़ाने लग जाएंगे तो फिर विज्ञान में क्या पढ़ाया जाएगा? उनकी बात सुन मैं अपना माथा पकड़ कर रह गया। इसी तरह की सोच बहुत सारे विज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षकों के भीतर भी दिखाई देती है।
ऐसे लोगों को नैन्सी पाउलू की इस बात से सीखने की जरूरत है कि विज्ञान महज तथ्यों का अंबार नहीं है। तथ्य विज्ञान का बस एक हिस्सा हैं। विज्ञान इन जानकारियों से कहीं बड़ी चीज है। इसमें शामिल है-जो घट रहा है उसे गौर से देखना, घटना की वजह का अंदाजा लगाना,अपने अंदाजे को सही या गलत सिद्ध करने के लिए नियंत्रित परिस्थितियों में उसकी जांच करना तथा प्रयोग से मिलने वाले प्रेक्षणों का मतलब निकालने का प्रयास करना। सोचने या काम करने की यह प्रविधि जितनी प्राकृतिक या भौतिक विज्ञानों पर लागू होती हैं उतनी ही सामाजिक विज्ञानों पर भी। दरअसल यह सोचने का एक ढंग है, जिससे जीवन का कोई भी विषय अलग नहीं है। साहित्य भी उसका ही हिस्सा है। इस चिंतन प्रक्रिया से गुजरकर जब कोई रचना निकलेगी तो निश्चित रूप से वह वैज्ञानिक चेतना पैदा करने वाली होगी। दुर्भाग्यजनक यह है कि हमारे यहां वैज्ञानिकों तक में भी वैज्ञानिक मिजाज का अभाव है। वे तमाम तरह के अंधविश्वासों और रूढ़ियों के शिकार हैं। उनके लिए विज्ञान एक विषय मात्र बन कर रह गया है और उसे प्रौद्योगिकी का पर्याय मान लिया गया है। जबकि जीवन का कोई भी क्षेत्र विज्ञान से बाहर नहीं है। हर कार्य के पीछे कोई न कोई कारण होता है,कार्य-कारण के बीच के इस संबंध की पड़ताल को ही वैज्ञानिक सोच कहा जाता है। हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में इसके लिए ‘साइंटिफिक टेम्पर’ पदबंध का इस्तेमाल किया। इस सोच को जीवन के हर व्यवहार में अपनाने की जरूरत है। बुद्ध तथा मार्क्स का दर्शन सोचने के इसी ढंग को अपनाने की बात करते हैं। जिज्ञास और प्रश्न करने की प्रवृत्ति इसके मूल में है जो बच्चों में जन्मजात ही होती है, बस इसे खत्म नहीं होने देना है। इसके लिए घर और स्कूल में अनुकूल वातावरण के सृजन की आवश्यकता है। बच्चों को अवलोकन,प्रयोग और विश्लेषण के अधिकाधिक अवसर उपलब्ध कराने और अंतिम सत्य जैसी कोई बात नहीं होती है, यह बताने की जरूरत है। यह हमारा मौलिक कर्तव्य भी है। संविधान की धारा 51 अ कहती है कि भारत के हर नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह वैज्ञानिक दृष्टि,मानवता और खोजवृत्ति व सुधार की भावना का विकास करे                          ………………………..   जारी