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बदलती सरकारों में लूटेरों के सिर्फ चेहरे बदलते हैं जनाब

उत्तरा न्यूज डेस्क
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वरिष्ठ पत्रकार केशव भट्ट के फेसबुक से साभार-

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हिंदुस्तान में सरकारें बदलने के सांथ ही मशीनरी को भी बदलने का नियम कब से शुरू हुवा इसकी जानकारी गूगल मास्टर को भी नहीं ही है| नेता और अधिकारियों दोनों के बदलने के बाद वो अपने कार्यालय के पर्दे, सोफा से लेकर सब कुछ बदल समाज को अपने काम करने के तरीके के बारे में संदेश देते आए हैं| विकास और स्वच्छ प्रशासन की उम्मीद में टकटकी लगाए समाज कुछ दिन नए होने के सपने देखता है और बाद में इस अनजान और खौफनाक पराएपन को अपनी नियती मान फिर अपने काम में जुट जाता है| अक्सर इस बदलाव के सांथ ही मंहगाई डायन भी बढ़ती चली जाती है, सत्ता में आए नए नेता पुराने वाले नेता के बहीखाते देख कमीशन का खेल समझने के बाद अपने नुकसान की भरपाई के लिए अपना कमीशन पिछले नेता से थोड़ा बढ़ा लेते हैं, और उनका यह बढ़ाया गया कमीशन उप्पर से नीचे तक जाते हुए, ‘रेत में सींमेंट मिलाने की जगह रेत में मिट्टी मिलाना’ जैसा हो जाता है|
ज्यादातर नेतागण अपने को जनता के ‘गॉड फादर’ से कम नहीं आंकते हैं. यदा-कदा अपने तेवरों से वो इसका एहसास भी कराते रहते हैं| हर बार नेतागणों के काम करने के तरीकों से सरकारी-गैरसरकारी मशीनरी को भी काफी कुछ सीखने को मिलता है, वो भी बड़ी चतुराई से अपना हक लेना नहीं भूलते हैं | अब चाहे वो प्राईवेट संस्थान हो या फिर खुद सरकार की दुकान ही क्यों न हो| कमीशन की जड़ें हिंदुस्तान में इतने गहरे तक चली गई हैं कि इन्हें नष्ट करने के बारे में सोचने भर से ही आधे से ज्यादा कमीशनखोरों का कोमा में चले जाना तय है|
हिंदुस्तान में ‘शराबबंदी’ के बाद के हस्र से हर कोई बखूबी वाकिफ है ही|
इधर शराब न मिलने से कई जगहों पर शराबी, सर्फ-साबून तक खाने पर उतर आए तो कमीशनखोरों की पेट में भी भयानक मरोड़ उठ पड़ी, उनके घरखर्च समेत अन्य खर्चों पर जब उनकी तन्ख्वाह के पैंसे लगने लगे तो वो वक्त उन्हें गुलाम भारत से ज्यादा खतरनाक महसूस हुवा,लगता भी क्यों नहीं, रसोई से लेकर बच्चों की फीस समेत सभी खर्चे उन्हें पहले खर्चे महसूस नहीं होते थे| दिनभर की सरकारी नौकरी के काम में मेहनत के बाद सांझ की बेला में वो अपनी कमाई से झूम उठते थे, घर के सामान के सांथ ही मय की अच्छी ब्रांड तब तक उनके पास पहुंच जाया करती थी,ये सिलसिला रोजमर्रा का होता था, सरकारों के बदलने या उनके ट्रांसफर से उनकी जीवनशैली में कोई फर्क नहीं आता था, उनके अपने दावे हुवा करने वाले हुए, कि उन्हें भी तो जनता की बगावतों को कितना झेलना होता है, कैसे-कैसे बहानों से उनकी शिकायतों को रद्दी में पहुंचाने की मेहनत करनी पड़ती है|
देवताओं की जमीन उत्तराखंड में शराब को ही शुरूआत से आर्थिकी का आधार अपरोक्ष रूप से माना गया है| कईयों के कुतर्क रहे हैं कि, शराब व्यवसाय को बढ़ावा देने एक ओर जहां सरकारी महकमों के मातहतों की तनख्वाह का निपटान आसानी से हो जाता है वहीं जनता के विकास में भी शराब अपना बखूबी योगदान देती आई है|
घर-गांवों में बनने वाली कच्ची शराब लोगों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है, उनकी शराब लोगों के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखती है, अब ये अलग बात है कि, शराब से जनता ही क्यों न उजड़ जाए, उन्हें इससे कुछ लेना-देना नहीं रहा है, लेकिन शराब की नदियां खूब बहनी चाहिए|
जनता की हर रोज की मुख्य शिकायतें, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली, पानी के बाद ‘शराब’ की ओवररेटिंग की होने वाली हुवी. कुछ शिकायतों का आधा-अधूरा निपटान करने के प्रयास किए भी जाते रहे हैं, लेकिन शराब की ओवररेटिंग का मामला हमेशा से ही ‘विक्रम-बेताल’ की कहानी की तरह पहेली ही बना रहता है. कहानी खत्म और सवालों के जबाव पर बेताल वापस पेड़ में उल्टा लटकने के लिए भाग जाने वाला हुवा. ठीक वैसे ही अब ओवरेटिंग पर जनता चिल्लाती है तो बेताल रूपी शराब व्यवसायी उन पर दोगुने वेग से चिल्लाता है|
सालभर में सरकार को जिस दुकान से ज्यादा रकम जाती है उस दुकान में लफड़े भी उतने ही ज्यादा जनता को झेलने पड़ते हैं| अब जनता को शराब व्यवसायी क्योंकर समझाए कि, हर रोज उसे पहले तो सरकार का रोकड़ा देना है और उसके बाद सरकारी-गैरसरकारी तंत्र, नेता के चमचों के सांथ ही कुछेक चौथे स्तंभ के महानुभावों की प्यास बुझाने के सांथ ही शराब की खेप को इधर-उधर भी करना पड़ता है, इसके लिए सुरक्षा की गारंटी वालों को उनका मेहनतनामा भी देना हुवा, इन फ्री वालों की प्यास बुझाने का बकायदा एक सुंदर बहिखाता ‘हरामखाता’ भी बनाया गया है,
शराब की ओवरेटिंग पर हंगामा बरफाते कस्टमर को वो कहना चाहता है कि, ‘रोज की फ्री शराब के सांथ ही महीने की लाखों रूपयों की फ्री का सेवा शुल्क उसका खुद का बाप तो देगा नहीं, उसे तुम लोगों के बाप को ही देना होगा|
लेकिन कई बंदिशों में बंधा वो ये सब कह नहीं पाता है, उसकी यह बात मात्र गालियों तक ही सिमट कर रह जाती है, अंतत: हर वक्त कस्ट में मरने वाले कस्टमर नामक प्राणी को उसकी भाषा समझ में आ ही जाती है, उसे ‘हरामखाते’ को देखने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती है, और वैसे भी| ‘हरामखाता’ कोई दिखाने की चीज नहीं बल्कि समझने वाली बात होती है|

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(वरिष्ठ पत्रकार केशव भट्ट के फेसबुक वाँल से साभार)