shishu-mandir

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 10

उत्तरा न्यूज डेस्क
7 Min Read

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

new-modern
gyan-vigyan

saraswati-bal-vidya-niketan

गरीब-वंचित वर्ग के बच्चों को बाऊचर देकर निजी विद्यालयों में जाने के लिए प्रोत्साहित करना एक तरह से सरकार द्वारा खुद यह स्वीकार कर लेना है कि निजी विद्यालयों की गुणवत्ता सरकारी विद्यालयों से बेहतर है। कैसी विडंबना है कि जिस सरकार को सार्वजनिक शिक्षा को मजबूत करते हुए समान शिक्षा की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए था जिसके लिए संसद में भी एकाधिक बार संकल्प पारित किया जा चुका है, वही शिक्षा के निजीकरण का मार्ग प्रशस्त कर रही है। यह शिक्षा पर वैश्वीकरण का प्रभाव है। यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत हो हो रहा है। लोककल़्याणकारी सरकारें सार्वजनिक शिक्षा से अपना पल्ला झाड़ना चाहती हैं।

इसलिए विदेशों में हुए इस तरह के प्रावधानों की असफलता से भी कोई सबक नहीं ले रही हैं। वह दिन दूर नहीं जब सार्वजनिक शिक्षा भारत में नाममात्र के लिए रह जाएगी। जैसा कि शहरी क्षेत्रों में दिखाई भी देने लगा है।


कुछ लोगों को प्रथम दृष्ट्या यह कदम सरकारी शिक्षा की गिरती गुणवत्ता का समाधान और जनहितकारी लग सकता है। यह भी लग सकता है कि सरकार गरीब बच्चों को भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना चाहती है। जैसा कि बहुत सारे गैर-सरकारी संगठन और निजीकरण-उदारीकरण के समर्थक प्रचारित-प्रसारित भी कर रहे हैं।

लेकिन यह तात्कालिक प्रत्यक्षीकरण और सतही समझदारी है। उस दिन की कल्पना की जाय जिस दिन सरकारी विद्यालय पूरी तरह बंद हो जाएंगे तब पच्चीस प्रतिशत से अधिक गरीब बच्चों का क्या होगा? अत्यधिक गरीब बच्चों को तो निजी विद्यालयों में प्रवेश मिल जाएगा, औसत गरीब बच्चों का क्या होगा? तब क्या उन्हें महंगी शिक्षा को खरीदने के लिए विवश या स्कूलों से बाहर नहीं होना पड़ेगा? क्या तब निजी विद्यालयों की मनमानी और अधिक नहीं बढ़ जाएगी? निजी विद्यालयों की मनमानी से जब आज साधन संपन्न तबका भी त्रस्त है तो इन गरीब लोगों की क्या बिसात? इस स्थिति का सबसे अधिक खामियाजा आदिवासी, अनुसूचित जाति-जनजाति तथा अल्पसंख्यक वर्ग के उन बच्चों को भुगतना पड़ेगा जिनके अभिभावकों में आज भी शिक्षा के प्रति गहरी उदासीनता दिखाई देती है। यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में सबसे अधिक संख्या इन्हीं जातियों तथा वर्गों के बच्चों की ही है।


एक और आशंका जिस के कुछ-कुछ लक्षण दिखने लगे है-इस बात की क्या गारंटी है कि निजी विद्यालयों में इन पच्चीस प्रतिशत बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल पाएगी? जो विद्यालय इन्हें प्रवेश देने पर ही नाक-भौं सिकोड़ रहे हैं ,तरह-तरह के बहाने बना रहे हैं और गरीब बच्चों को लेकर अनेक आग्रहों-पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं-यह मानते हैं कि गरीब-वंचित दबके बच्चों के आने से उनके स्कूलों का शैक्षिक माहौल खराब हो जाएगा। क्या आशा की जा सकती है कि इन बच्चों के साथ वहाँ अनुकूल व्यवहार किया जाएगा? अभी तक के अनुभवों से पता चला है कि इन गरीब बच्चों की ओर कक्षा में कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। इनकी एक अलग कैटेगरी बना दी गई है।

इससे बच्चे न केवल गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित हो रहे हैं बल्कि एक नए तरह के भेदभाव के शिकार भी हो रहे हैं। आर0टी0ई में जिस समावेशित शिक्षा की बात की गई है वह केवल सैद्धांतिक सिद्ध हो रही है। साथ ही एक नई समस्या माध्यम भाषा के चलते पैदा हो रही है। इन बच्चों के घर में अंग्रेजी का बिल्कुल इस्तेमाल न होने के कारण शिक्षण माध्यम का अंग्रेजी होना एक नई जटिलता पैदा कर रहा है। अपनी परिवेश की भाषा के माध्यम से सरकारी स्कूलों में ये बच्चे जो थोड़ा बहुत सीखते भी कहीं उससे भी वंचित न हो जाय?


एक सवाल और पैदा होता है कि इन बच्चों की फीस और पाठ्य सामग्री के खर्चे तो सरकार
वहन करेगी लेकिन निजी विद्यालयों में तो समय-समय पर इसके अलावा भी अनेक शुल्क वसूल किए जाते हैं ,तमाम तरह के तामझाम किए जाते हैं ,उनका क्या होगा ?जब ये बच्चे उन शुल्कों को अदा नहीं कर पाएंगे फलस्वरूप अन्य बच्चों की तरह सुविधाओं का लाभ नहीं ले पाएंगे तो क्या इन बच्चों में हीनताबोध नहीं पैदा होगा? ये कुंठा के शिकार नहीं होंगे?इन प्रश्नों पर समय रहते विचार किए जाने की आवश्यकता है।
इस दृष्टि से आने वाला समय गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए चुनौती भरा है। जैसा कि आशंका व्यक्त की जा रही है कि कहीं ऐसा न हो कि शिक्षा के अधिकार कानून के नाम पर उनसे शिक्षा का अधिकार छीन न लिया जाय।

यह दुखद है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के उक्त प्रावधान के परिणामों पर न संसद में उस समय गंभीरता से विचार किया गया जब यह कानून पारित किया जा रहा था और न ही आज कहीं कोई बहस या सुनवाई है। कैसी विडंबना है कि शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर कहीं कोई चर्चा ही नहीं है। यहाँ तक कि शिक्षा का मुद्दा देश के बड़े दलों के चुनाव घोषणा पत्रों तक में से भी गायब रहता हैं