shishu-mandir

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 22

Newsdesk Uttranews
10 Min Read
शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

 

new-modern
gyan-vigyan

अपने शि्क्षण अनुभवों को दर्ज करना भी एक जिम्मेदारी
महेश पुनेठा

saraswati-bal-vidya-niketan

अपने अब तक के अनुभवों के आधार पर कह सकता हूँ कि हमारे बीच बहुत सारे शिक्षक ऐसे हैं जो पूरी ईमानदारी से चुपचाप अपना काम करने में विश्वास करते हैं। उनका पूरा ध्यान बच्चों को बेहतर से बेहतर शिक्षा देने में रहता है। बच्चे बेहतर करें उसी में उन्हें आनंदानुभूति होती है।बच्चों को सिखाने के लिए अलग-अलग विधियों का प्रयोग करते रहते हैं। बच्चे जिस तरीके से सीख पाएं वैसे तरीके ढूँढ निकालते हैं। अपने प्रयासों में सफल भी रहते हैं।

ऐसे शिक्षक हमेषा अपने शिष्यों के आँखों के तारे होते हैं। शिष्य आजीवन उन्हें याद करते हैं।उन्हें पूरा सम्मान देते हैं। जहाँ भी शिक्षा और शिक्षक की बात आती है वे उनका नाम लिए बिना नहीं रहते हैं।समुदाय भी उनके योगदान को स्वीकार करता है। ऐसे शिक्षकों के पास शिक्षण संबंधी अनेक बहुमूल्य अनुभव होते हैं। कभी इनके बीच बैठिए-सुनिए तो अनुभवों का पिटारा खुल जाता है। पर उनसे कभी अपने अनुभव लिखने के लिए कहा जाय तो वे उदासीनतावश या आलस्यवश इस आग्रह को टाल जाते हैं। इस बारे में अक्सर सुनने को मिलता है -‘‘क्या करना है लिखकर।काम करना ज्यादा जरूरी है।’’ वास्तव में काम का कोई विकल्प नहीं है। काम खुद बोलता है। उसके बारे में बताने की जरूरत भी नहीं होती है। लेकिन इसका एक और पहलू भी है,जिस पर विचार करने की आवष्यकता है।

हमारा मानना है कि यदि ऐसे शिक्षकों द्वारा काम करते हुए अपने अनुभवों को दर्ज भी किया जाता है तो उससे बहुत सारे अन्य बच्चों का भी भला होता है। अन्य शिक्षकों को उनके अनुभवों से शिक्षण की नई दिशा मिलती है। उनके नवाचारों से अन्य शिक्षक बहुत कुछ सीखते हैं। उनका काम आसान हो जाता है। एक शिक्षक के प्रयोग एक विद्यालय विशेष तक सीमित न रहकर अन्य विद्यालयों तक पहुँचते हैं। अन्य शिक्षकों को आगे प्रयोग के लिए एक आधार प्राप्त होता है।शिक्षक शिक्षा में अनुसंधानरत लोगों को शिक्षकों को गहराई से समझने का अवसर मिलता है।

वे शिक्षकों की आवश्यकता को समझने में अधिक सक्षम हो पाते हैं। फलस्वरूप शिक्षक प्रषिक्षण हेतु अधिक प्रभावशाली माड्यूल तैयार किए जा सकते हैं। साथ ही स्वयं शिक्षक को अपने कार्य का विश्लेषण करने और आगे की कार्ययोजना बनाने में मदद मिलती है। शिक्षक का चिंतन और अधिक साफ होता है।विचारों में क्रमबद्धता आती है। संप्रेशण प्रभावषाली होता है।अपने बच्चों को और अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं। शिक्षक की लिखने की आदत का बच्चों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है।वे प्रेरणा ग्रहण करते हैं।

कल्पना कीजिए मांटेसरी,वसीली सुखोम्लीन्स्की,लेव तोलस्तोय, ए.एस.नील, जूलिया वेबर गॉर्डन,सिल्विया एष्टन-वॉरनर,डेविड ऑसबरा,रवीन्द्रनाथ टैगोर,गिजुभाई सरीखे महान षिक्षकों ने अपने अनुभवों को दर्ज करने में ऐसी ही उदासीनता और आलस्य दिखाया होता तो क्या आज हम इनके महत्वपूर्ण शि्क्षा संबंधी चिंतन और प्रयोगों से वंचित नहीं होते?क्या ‘बाल हृदय की गहराइयां’,‘समरहिल’,‘दिवास्वप्न’,‘मेरी ग्रामीण षाला की डायरी’,‘अध्यापक’ जैसी कालजयी और उपयोगी किताबें हमारे पास होती?

इनके लिखे जाने के पीछे कहीं न कहीं उनके रोज-ब-रोज के अनुभव ही आधार बने।‘बाल हृदय की गहराइयां’ जैसी चर्चित पुस्तक के लेखक वसीली सुखोम्लीन्स्की के बारे में बताया जाता है कि वह जीवन के अंतिम बीस वर्शों में अपने प्रेशणों और विचारों को डायरी में नोट करते रहे।इस तरह वह बाल शिक्षा पर कुछ पुस्तकें और कई लेख लिख पाए। ये किताबें न केवल हमें नई दृष्टि देती हैं बल्कि शिक्षण के आनंददायी और प्रभावशाली तरीके भी बताती हैं। अध्यापक को संवेदनशील और कल्पनाशील बनाती हैं। इस बात का अहसास कराती हैं कि बच्चे को केंद्र में रखकर शिक्षा देना कोई आसान काम नहीं है।

अगर अध्यापक कल्पनाशील और संवेदनशील नहीं है तो कक्षा को आनंददायी और जीवंत नहीं बना सकता है।सबसे बड़ी बात यह बताती हैं कि कठिन और नाउम्मीदी भरी परिस्थितियों में भी कैसे काम किया जा सकता है। बच्चों के साथ काम करने के लिए सबसे जरूरी बात कौन सी हैं। इन किताबों को पढ़कर न जाने कितने षिक्षक यह समझ पाए कि ‘‘बच्चों को शिक्षा देने के लिए सबसे पहले तो उन्हें प्यार करना चाहिए। शिक्षक जब बच्चों को प्यार करता है ,अपना हृदय उन्हें अर्पित करता है, तभी वह उनमें श्रम की खुशी,मित्रता और मानवीयता की भावनाएं जगा सकता है।’’(बाल हृदय की गहराइयां)

अपने ही बीच के एक शिक्षक साथी बालसखा हेमराज भट्ट को ही ले लें जिनकी डायरी लिखने की आदत ने एक ग्रामीण शिक्षक की जद्दोजहद और सरकारी शिक्षा की व्यवस्थागत खामियों को दूर तक पहुँचा दिया।ऐसे ही और भी अनेक उदाहरण हैं विस्तार के डर से जिनका यहाँ उल्लेख संभव नहीं है।

अपने अनुभवों को दर्ज करने के लिए हमें किसी गहरे लेखन कौषल या विधागत बारीकियों को जानने की आवश्यकता नहीं है। इसका सबसे आसान तरीका डायरी लेखन है। इसमें बहुत स्वाभाविकता और सरलता से हम अपने अनुभव दर्ज कर सकते हैं।बस उसे अपनी आदत में शामिल करने की जरूरतभर है। वैसे आज ‘ शिक्षक डायरी’ शिक्षक सेवा का एक औपचारिक हिस्सा भी है।प्रत्येक शिक्षक को अनिवार्य रूप से डायरी भरनी होती है। अपनी जगह इसकी उपयोगिता भी है लेकिन इसका स्वरूप इतना अधिक रूढ़िबद्ध है कि अधिकांश शिक्षक उसे भरने में खास रूचि या उत्साह नहीं दिखाते हैं। यांत्रिक रूप से ही उसे भरते हैं। इसमें खानापूर्ति ही अधिक होती है ताकि निरीक्षण अधिकारी के आने पर उनके सामने प्रस्तुत की जा सके। उसमें कोई रचनात्मकता नहीं दिखाई देती है। न बहुत अधिक संभावना होती है। इस विशय पर विचार किया जाना चाहिए।

दरअसल डायरी भरी नहीं लिखी जानी चाहिए। भरने में कोई रचनात्मकता नहीं है। ‘भरना’ शब्द अपने आप में एक सीमा को बताता है। ‘भरना’उतना ही हो सकता है जितनी जगह उपलब्ध हो। उसमें छूट की बहुत अधिक गुंजायश नहीं होती है। पूर्वनिर्धारित सीमाओं के भीतर ही भरा जा सकता है। जबकि शिक्षण एक कला है और कला सीमाओं के भीतर रहकर अपनी उदात्तता को नहीं प्राप्त कर सकती है। कभी शिक्षक अपने शिक्षण के दौरान हुए खट्टे-मीठे अनुभवों को या किसी नवाचार को विस्तार से लिखना चाहे तो उसके लिए स्पेस की जरूरत होती है।

यदि डायरी ‘भरने’ की अपेक्षा ‘लिखने’ के लिए शिक्षकों को प्रेरित किया जाए तो इसके बेहतर परिणाम हो सकते हैं। इसके लिए शिक्षक को अधिक स्वायत्तता होनी चाहिए। इस बात की छूट होनी चाहिए कि वह बनाए-बनाए ढाँचे से बाहर जाकर अपनी डायरी लिख सके ताकि पढ़ने-पढ़ाने के दौरान जो भी नए विचार शिक्षक के मन में पैदा हों उसमें दर्ज हो सकें। न केवल शिक्षण की कार्ययोजना और क्रियान्वयन ही बल्कि शिक्षक की समस्याएं भी उसका हिस्सा बनें। डायरी एक निर्धारित वर्ष की न होकर उसके पूरे सेवा काल का लेखांकन हो। उसमें केवल षिक्षण संबंधी बातें न होकर शिक्षक जीवन से जुड़े उनके विशिष्ठ अनुभव भी हों। शिक्षा और समाज को लेकर उसका चिंतन व कल्पना हो।उनके द्वारा पढ़ी गई किताबों के नोट्स हों। साथ ही समय-समय पर उच्च अधिकारियों द्वारा दिए गए सुझाव भी दर्ज हों। ऐसी डायरी एक महत्वपूर्ण शैक्षिक दस्तावेज बन सकती है।

सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शिक्षकों के अनुभवों के महत्व को स्वीकारते हुए हम चाहते हैं कि उनके अनुभव अधिक से अधिक षिक्षकों के बीच आपस में बाँटे जाए। उन पर चर्चा-परिचर्चा हो। एक शिक्षक द्वारा किए गए प्रयोग दूसरे शिक्षक तक पहुँचें और वह षिक्षक उनमें अपनी ओर से कुछ और जोड़कर तीसरे षिक्षक तक पहुँचाए। यह प्रकिया अनवरत चलती रहे ताकि सीखने-सिखाने के बेहतर से बेहतर तरीके खोजे जा सकें। एक षिक्षक के रूप में अपने शिक्षण अनुभवों को दर्ज करना हमारा शौक हीं एक जिम्मेदारी है।