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Facebook का अर्थशास्त्र भाग 9

उत्तरा न्यूज डेस्क
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दिल्ली बेस्ड पत्रकार दिलीप खान का फेसबुक (Facebook) के बारे में लिखा गया लेख काफी लम्बा है और इसे हम किश्तों में प्रकाशित कर रहे है पेश है 9 वा भाग

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बाकी कंपनियों से मुकाबला करने की बजाय मार्क अब भी इस बात पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं कि जिन देशों में फेसबुक बिल्कुल नया है या फिर जिस जमीन पर अब तक ये उतरा भी नहीं है, पहले वहां के लोगों से इसका परिचय कराया जाय।

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इस लिहाज से देखें तो संभावना ऐसी लग रही है कि ग्लोब पर फेसबुक यूजर्स देश को एक रंग से रंगने पर जो चकती उभरती है वो भविष्य में भी लगातार फैलती रहेगी, अमीबा की तरह। इस फैलाव के लिए पूरी सजगता से मेहनत हो रही है। मार्क जकरबर्ग ने अपने फेसबुक खाते पर खुद के बारे में सिर्फ एक वाक्य लिखा है, “मैं दुनिया को ज्यादा खुलापन देने की कोशिश कर रहा हूं।” फेसबुक बनाने के शुरुआती दिनों में मार्क अपने दोस्तों, खासकर डस्टिन मोस्कोविच और क्रिस ह्यूग, को यह बताते रहते कि चूंकि दुनिया में ज्यादातर लोगों के पास ऐसा कोई मंच नहीं है जहां पर वो अपनी बात रख सके, इसलिए उनकी आवाज असरदार नहीं बन पाती।

वे न सिर्फ कंप्यूटर वैज्ञानिक तरीके से चीजों को देखते-समझते हैं बल्कि मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के नजरिए से भी घटनाओं और समाज की व्याख्या करते हैं। इसी वजह से मार्क ने लोगों के अभिव्यक्त करने की दमित इच्छा को समझा। अपनी बात कहने की कुलबुलाहट हर व्यक्ति के भीतर है और यही वजह है कि आज भारत में लगभग पांच करोड़ और दुनिया में 83 करोड़ से ज्यादा लोग फेसबुक पर हैं और बिना किसी विभेद के हैं।

बात कहने-सुनने में यहां पर कोई रौब नहीं दिखा सकता। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ भी फेसबुक पर हैं तो सहरसा या भभुआ जिले का कोई इंटरमीडिएट का विद्यार्थी भी। इस मंच पर कोई किसी के अधीनस्थ नहीं है। दूसरे तरीके से कहें तो अपने खाते के भीतर आपको जो आजादी हासिल है वो अब तक दुनिया के किसी भी शासन व्यवस्था में एक नागरिक को हासिल नहीं हुई है। फेसबुक खाते का जो आपने अखाड़ा बना रखा है, आजादी के मामले में आप उसके सबसे बड़े पहलवान हैं। आप मतलब हर कोई।

पहलवानी के गुमां में किसी दूसरे के अखाड़े की मिट्टी आप बिना उससे पूछे नहीं काट सकते। सबकी अपनी-अपनी सल्तनत है। हर कोई नागरिक है और हर कोई शासक। इसलिए यहां फतवा कारगर नहीं है, कारगर है तो सिर्फ निवेदन, बराबरी की बहस, असहमति और प्रत्युत्तर। मार्क से जब एक बार फेसबुक को एक वाक्य में समझाने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा कि इसके भीतर समाजशास्त्र और कंप्यूटर का डीएनए मौजूद है।

द एक्सिडेंटल बिलिनॉयर और द सोशल नेटवर्क की कहानी

मार्क जकरबर्ग एक ऐसी परिघटना में तब्दील हो गए जो लोगों के भीतर भव्यता, उत्साह, कौतूहल, ईर्ष्या, रोमांच और अनोखेपन का एहसास जगाने लगे। अपने समकालीनों में तकरीबन हर क्षेत्र के लोगों पर इन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। बीते पांचेक साल में फेसबुक इंटरनेट पर समय गुजारने की एक तरह से मुहर में तब्दील हो गई है।

मार्क की शुरुआती सफलता के बाद ही अमेरिकी बेस्ट सेलर लेखकों में शुमार बेन मेजरिच ने उनके ऊपर किताब लिखने की सोची। जल्द ही उनका प्रोजेक्ट शुरू हो गया। हालांकि उन्होंने मार्क पर किताब लिखने की प्रक्रिया में कई साक्षात्कार किए लेकिन उन्होंने एक बार भी मार्क से बातचीत नहीं की और उनके पक्ष से चीजों को बहुत कम ही देखा, इसकी बजाय वह कैमरॉन और टेलर विंकलवॉस जैसे प्रतिद्वंद्वियों के अनुभवों को समेटते हुए किताब लिखी।द एक्सिडेंटल बिलिनॉयर।

इस बात को लेकर मार्क जकरबर्ग अब तक खफा रहते हैं, लेकिन पूछने पर वो टका-सा जवाब देते हैं,“मशहूर लोगों पर ही किताब लिखी जाती है, चाहे पक्ष कुछ भी हो। मेजरिच ने ये तो साबित कर ही दिया कि मैं मशहूर हूं।” मेजरिच का दावा है कि यह किताब फेसबुक के हर पहलू पर भले ही प्रकाश न डालता हो लेकिन इसमें जकरबर्ग की ज़िंदगी की ऐसी कहानियां दर्ज़ है जिन्हें मार्क ने दुनिया से साझा नहीं किया।

मेजरिच ने जिस समय इस किताब पर काम करना शुरू किया लगभग उसके हफ्ते बाद ही फ़िल्म निर्माता स्कॉट रीड ने उनकी किताब की कॉपीराइट लेने पर बातचीत का दौर चालू कर दिया। मेजरिच तैयार हो गए। किताब पूरी होने के बाद रीड ने मेजरिच से कहा कि मार्क का पक्ष चूंकि किताब में कम है इसलिए उनसे अतिरिक्त बातचीत की जानी चाहिए। बाद में खुद स्कॉट रीड ने मार्क से संपर्क साधा, लेकिन शुरुआती कवायदों से नाराज मार्क ने रीड को मना कर दिया।

रीड ने किताब को पटकथा में तब्दील करने का ज़िम्मा आरोन सोरकिन को सौंप दिया। जिस समय सोरकिन के हाथों में कहानी आई उस समय तक फेसबुक के बारे में सोरकिन को ज्यादा जानकारी नहीं थी, वो बस ये जानते थे कि कोई मार्क जकरबर्ग है जिसने फेसबुक नाम की ‘कोई चीज’ बनाई है और जिसके पीछे पूरा अमेरिका पगलाया हुआ है। इसके अलावा उन्होंने कुछ पत्रिकाओं की कवर स्टोरी में भी उस नवयुवक को देखा था, जो अपनी स्नातक की पढ़ाई बीच में छोड़ने के महीने बाद ही अरबपति कहलाने लगा था।

पटकथा को जीवंत करने का उनके ऊपर भारी दबाव बन गया। आरोन सोरकिन के मुताबिक, “मैं सोशल नेटवर्किंग के बारे में बहुत कम जानता था। ऐसे में मेरी चुनौती कहीं बड़ी थी। फेसबुक का मैने नाम तो जरूर सुना था, लेकिन ठीक उतना ही जितना मैंने कार्बुरेटर का सुन रखा है।

मैं जानता तो हूं कि मेरी कार में कार्बुरेटर है, लेकिन कार खोलकर कोई मुझे उस पर उंगली रखने बोले तो मैं चकरा जाऊंगा।” बहरहाल 2010 में फिल्म रिलीज हो गई। किताबी नाम को बदल दिया गया। फ़िल्म का नाम रखा गया- द सोशल नेटवर्क। इसमें हॉर्वर्ड कनेक्शन वाले क़िस्से को लंबा खींचा गया है और आधे से ज्यादा हिस्से में मार्क को‘आइडिया चोर’ के तौर पर पेश किया गया है। मार्क के मुताबिक फ़िल्म कई बार उनके बारे में गलतबयानी करती है। हालांकि सोरकिन को वो पसंद करते हैं और सोरकिन का “द वेस्ट विंग” मार्क के पसंदीदा टीवी शो में शुमार है। मार्क की नाराजगी और सोरकिन की सीमाओं के बावजूद फ़िल्म रिलीज हुई और लोगों ने उसे खूब सराहा भी। इसमें मार्क के रुप में परदे पर नजर आए जेसी आइजनबर्ग।

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