काव्य गोष्ठी::जहां खड़ी मैं घास काटती लेकर हाथ दराती, यहीं कहीं से मां थी फिसली भला कहां बच पाती

Newsdesk Uttranews
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अल्मोड़ा,26 सितंबर 2021- छंजर सभा अल्मोड़ा के तत्वाधान में प्रत्येक माह के अंतिम शनिवार को आयोजित होने वाली काव्य गोष्ठी वर्तमान कोरोना काल (कोविड-19)के कारण पुनः 25 सितंबर की सायं 7 बजे से वर्चुअली ऑनलाइन आयोजित की गई।

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कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफ़ेसर डॉ.दिवा भट्ट द्वारा की गई,काव्य गोष्ठी का संचालन पिथौरागढ़ से नीरज पंत (प्रधानाचार्य) द्वारा किया गया।


गोष्ठी का आरम्भ परंपरागत रूप से बीना जोशी (हल्द्वानी)द्वारा ईश वंदना तथा संचालक द्वारा कार्यक्रम में उपस्थित कवि एवं साहित्यकारों के औपचारिक परिचय एवं स्वागत के साथ किया गया तत्पश्चात स्थानीय एवं बाहरी क्षेत्रों गाज़ियाबाद, हल्द्वानी आदि से सम्मिलित कवि साहित्यकारों द्वारा महिला सरोकारों,लोक संस्कृति,प्रचलित परंपरा आधारित रचनाओं के साथ अन्य वर्तमान विविध ज्वलंत एवं समसामयिक विषयों पर भी आधारित हिंदी व कुमाउनी में रचनाएं काव्य पाठ ग़ज़ल,नज़्म तथा गीत काव्य रूप में प्रस्तुत किये गए।


गोष्ठी के अंत में अध्यक्षता कर रहीं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.दिवा भट्ट द्वारा सभी प्रतिभागी कवियों विशेषकर बाहरी क्षेत्रों से सम्मिलित हुए नवागंतुक कवि साहित्यकारों बीना जोशी,मीना पांडे एवं शांति प्रकाश ‘जिज्ञासु’ का आभार व्यक्त करते हुए अपनी रचना प्रस्तुत की।


आज परिस्थितिजन्य कारणों से अपेक्षाकृत कम कवियों की उपस्थिति के पश्चात भी प्रस्तुत रचनाओं की उत्कृष्टता एवं स्तरीय होने की सराहना की।
अपने अध्यक्षीय संबोधन में डॉ. दिवा भट्ट द्वारा विभिन्न विधाओं/विविध विषयों पर आधारित रचनाओं की विश्लेक्षणात्मक समीक्षा व पश्चपोषण करते हुए महत्वपूर्ण साहित्यिक मार्गदर्शन दिया,बाहरी क्षेत्र के सदस्यों को जोड़ने पर बल देते हुए प्रस्तुत जन सरोकारों से जुड़ी रचनाओं, छंद में बाँधकर लिखने के प्रयास की सराहना की, काव्य की बारीकियों पर प्रकाश डालते हुए गीत काव्य हेतु मार्गदर्शन दिया।


कुछ कविताओं की विषयगत गंभीरता पर प्रेरक प्रतिक्रिया व्यक्त की यह भी सुझाव दिया कि व्यस्तता के पश्चात भी गोष्ठियों में सहभागिता से कवियों द्वारा अलग अलग विधाओं में काव्य वाचन से काव्य पक्ष के विविध भावों से सीखने के अवसर प्राप्त होते हैं और रचनाओं को और अधिक समृद्ध व परिष्कृत किया जा सकता है तभी आयोजनों की सार्थकता भी सिद्ध होती है।

काव्य गोष्ठी में प्रस्तुत कुछ रचनाओं की एक झलक— (मुखड़े)

मन में जलाके दिया खोल चक्षु ज्ञान कर लें
आज करें वंदना का आज करें अर्चना…..
— बीना जोशी (वंदना )

जहां खड़ी मैं घास काटती
लेकर हाथ दराती।
यहीं कहीं से मां थी फिसली
भला कहां बच पाती।।
आज देखकर इस जंगल को
उसकी याद सताती
काश! बड़ी होती कुछ मैं तो
जेहन छवि धर पाती।।
—- मोती प्रसाद साहू

कुमाऊनी गीत
(उड़ि उड़ि पुतई जसि)
उड़ि उड़ि
पुतई जसि
उड़ि रे छमा छमा
जाणि काहूं ल्हिजूणैं
मेरो दिलो घमा घमा……
उड़ि उड़ि
जाणि काहूं न्है जैं
आखौं सामणि घ्यू जै बिलै जैं
भ्रम छू मेरो या मन में
या छू कोई स्वैण वै
हंसि हंसि बुलाण लागैं
हिटैं फटा फटा ,
उड़ि उड़ि
पुतई जसि
उड़ि रे छमा छमा
जाणि काहूं ल्हिजूणैं
मेरो दिलो घमा घमा …..
आसमाने परि छू या
छू कोई गौं घाट मा
स्वैण में ए बैर मकेँ
बांधि जां मोहपाश मा
जाणि कै कै खेल खेलें
मेर दिलक  मैदान मा
धक धक करण लागूं
यो लै सुर ताल मा
हंसि हंसि बुलाण लागैं
हिटैं फटा फटा ,
उड़ि उड़ि
पुतई जसि
उड़ि रे छमा छमा
जाणि काहूं ल्हिजूणैं
मेरो दिलो घमा घमा…..
 
                             — “नीरज”
ये कैसा एहसास कि जिसमें एक अलौकिक मीत मिले,
सांसो की सरगम बनकर नवगीत नवल संगीत मिले।
मन पंछी पाँखें फैलाए दूर गगन की राह चले,
हो अनुभूति अतिंद्रिय प्रतिपल मंथर मंथर प्रीत पले।
— मीनू जोशी

खुद को साबित करते – करते थक सी गयी हूं।
ढूढ़ती खुद के अस्तित्व को,पर पाती कहीं नही हूं।
क्यूँ अलग हूं मैं तुमसे,जो जी नही सकती खुल के।
गर मुझे मात्र स्त्री ही नही ,एक इंसां भी समझ सको
तो शायद मिटे ये दूरियां…….
— चन्द्रा उप्रेती

  1. बड़े डैनों वाले पक्षी छोटे पंछयों को समझाते हैं
    कि सूख रही हैं जमीन की नमी
    तुम अपने घोंसलों के लिए
    पेड़ों का उपयोग बन्द कर दो।
    — डॉ.दिवा भट्ट सुना है अफसर हो गया तू बहुत बड़ा
    कभी इस गांव का भी टूर लगाना
    ऊब जाए जब मन तेरा शहर से
    तू गांव चले आना….
    — शान्ति प्रकाश ‘जिज्ञासु’

1.कविता और मेरे पिता,
दोनों की
बिल्कुल नहीं बनती
आपस में…

  1. ज़िंदगी ने कहा हँसके हमसे कुछ मीठा तो हो जाय
    इससे पहले कि पंछी घर को जांय, चलो कॉफी तो पी जाय….
    — बीना जोशी ‘हर्षिता’

मैं एहसासों के शब्द लिये,
दिल के कागज़ को भर देता।
कुछ बातें हैं बंजारे सी,
उनको यादों के घर देता
नज़रों की क़लम, मेरी कविता,
तेरी पलकों पर गढ़ देती।
तू आँखों को ही झुका के बस।
मेरे भावों को पढ़ लेती।
फिर शब्द डोर थामे-थामे
मेरे भीतर तक आती तू,
जिन गीतों में बस नाम तेरा।
वो गीत मेरे फिर गाती तू।
बातों से पर्दे हटते तो,
मेरा मन तुझको दिख पाता।।
तू क्या है मेरे जीवन में,
मैं काश तुझे ये लिख पाता।।
— मनीष पंत

इस तरह नहीं कही जानी चाहिए कोई बात
कि कहते हुए बात का सिरा तुम्हारे हाथ में रह जाय….
— मीना पांडे

गंगा को पाणी पहाड़ा तेरी बाग़न्या जवानी…
— प्रेमा गड़कोटी

बोलने के सौ तरीके हैं मगर
ख़ामोशी भी एक ज़ुबा होती है
दस्तक और आवाज़ तो कानों के लिए है
जो रूह को सुनाई दे..उसे ख़ामोशी कहते हैं….
— नीलम नेगी