पक्षी दिवस पर विशेष : पक्षियों को याद करते हुए

Newsdesk Uttranews
7 Min Read

आज पक्षी दिवस है। पक्षियों को याद करते हुए….

पेड़ों की छांव में कलरव

सुप्रसिद्ध विज्ञान लेखक एंव साहित्यकार देवेन मेवाड़ी की फेसबुक वॉल से साभार

इन दिनों सुबह बुलबुल के चहकने से होती है। हर रोज सुबह चार बजे के आसपास वह जाग कर चहकने लगती है। दूसरे पेड़ पर बैठी कोई दूसरी साथिन उसे जवाब देती है और फिर दोनों मिल कर प्रभाती गाने लगती हैं। उसी बीच आसपास के किसी पेड़ के रैन बसेरे में सोई कोयल भी जाग जाती है और धीरे-धीरे कुहू की मधुर तान छेड़ कर उसे सप्तम सुर तक पहुंचा देती है।

पौ फूटती है और सामने खड़े कुसिम के छायादार पेड़ की शाख पर रात गुजारने के बाद काक दम्पति का संवाद शुरू होता है। पिछली बार के दर्दनाक हादसे के बाद काक दम्पति ने इस बार अपना घोंसला हमारी रसोई की खिड़की के ऐन सामने बनाया है। हादसे के समय हमने उनकी मदद करने की कोशिश की थी। यह शायद उन्हें अच्छी तरह याद है, तभी हम पर भरोसा किया होगा और हमारी आंखों के सामने फिर नीड़ का निर्माण कर लिया। निर्माण के लिए सूखी, पतली, लंबी टहनी के टुकड़े भी बालकनी में रखी पानी की ट्रे में कुछ समय भिगो कर ले गए। शायद घोंसले में मोड़ कर लगाने के लिए।

पिछली बार घोंसले के निर्माण के दिनों कोयल खूब कूकती रही और भूरी चितकबरी मां कोयल लुकते-छिपते-बचते कौवों के घोंसले तक पहुंचने की कोशिश करती रही, हालांकि वह बहुत कम दिखाई देती थी। हमारी नजरें उसे खोजती रहतीं। एक दिन पत्तों में छिपी ही थी कि सामने छत पर से कौवा चोंच से उस पर टूट पड़ा। वह जान बचा कर भाग निकली। फिर भी वह न जाने कब आकर काक दम्पति के घोंसले में अंडा दे गई। पता तब लगा, जब बच्चे बड़े होने लगे और कोयल का बच्चा पहले बड़ा हो गया। कौवा मां और पिता उसे प्यार से खिलाते। हमारी बालकनी में काक पानी में सूखी रोटी के टुकड़े भिगो कर अपने शिशुओं को खिलाने के लिए ले जाता। उनके अपने दो बच्चे बाद में बड़े हुए। कोयल के बच्चे पर काक दम्पति ने पूरा प्यार लुटाया। उसे सबसे पहले पंख सुखाना, डाल पर फुदकना और उड़ान भरना भी उन्होंने सिखाया। हम चकित थे कि वह बच्चा भाषा कौन-सी बोलेगा? कौवों की कांव-कांव या कोयल की कुहू-कुहू? वह केवल ‘कैं’, ‘कैं’ से काम चला रहा था।

तभी वह हादसा हुआ। याद करके दिल भर आता है। अधिक बताना संभव नहीं है। एक दिन न जाने कहां से तीन बंदर आ गए। हर पेड़ का मुआयना करने लगे। काक-दम्पति का घोंसला मिला तो उसे नोंच डाला। हम भगाने के लिए चीखते ही रह गए। कोयल का बच्चा जान बचा कर उड़ गया। कौवे के नन्हें बच्चे जमीन पर आ गिरे। एक का पता ही नहीं लगा, दूसरे को बेटी लाई। उसे पानी पिलाया, मुलायम भोजन दिया। काक दम्पति ने भी बालकनी में आकर उसे देखा, जांचा। हम बचाने की पूरी कोशिश करते रहे लेकिन तीन दिन बाद वह नहीं रहा। बहुत दिनों तक हम खाली घोंसले के बाहर शाख पर बैठे दुखी काक माता-पिता को घंटों खामोश बैठे देखते रहे। कोई कांव-कांव नहीं। बीच-बीच में उनमें से एक की टीस भरी कराह सुनाई देती। वह जरूर मां रही होगी। काक पिता चोंच से उसकी गर्दन सहलाता। काफी समय तक काक दम्पति ने इसी तरह शोक मनाया। हम भी क्या करते? मन से हम भी उनके शोक में शामिल थे।

लेकिन, यह तो दुनिया है। इसी तरह चलती रहती है। मौसम बदला, मंजर बदला। नई-नई चिड़ियां आती रहीं। पंद्रह वर्षों से रह रहे हैं हम द्वारका, दिल्ली के अपने शिव भोले अपार्टमेंट्स में। तब चारों ओर छोटे-छोटे पौधे थे। वे वर्ष-दर-वर्ष हमारे साथ ही बड़े हुए हैं। वट, कुसिम, अमलतास, शहतूत, नीम, हरसिंगार, जामुन, नींबू, अनार के पेड़ अब हरे-भरे हो गए हैं। हरियाली आई तो पंछी भी चले आए। पहले गौरेयां आईं। कई साल उन्होंने हमारी भीतर की बालकनी में अपना परिवार बढ़ाया। दिन भर चहचहाती रहतीं। लेकिन, 2010 के बाद वे अब तक नहीं लौटी हैं। न जाने कहां गईं।

पेड़ घने हो गए तो हरियल, फाख्ता, बुलबुल, बड़ा बसंता, धनेश यानी ग्रे हार्न बिल, दर्जिन, सन बर्ड, मैना, बबूना यानी ह्वाइट आई आदि कई चिड़ियों ने घर बना कर परिवार बढ़ाया। वे अपने नन्हें छोटे साहबजादों और साहबजादियों को शिक्षा देने के लिए सामने पेड़ों पर आते रहे। हमारी बालकनी में पानी पीते रहे। बुलबुलें, बबूनाएं, मैनाएं, बसंता, सतभाई और कबूतर पानी की ट्रे में जम कर स्नान भी करने लगे। हमें पता था, वे पंखों की चिकनाई और धूल धो रहे हैं।

जहां 2003 में आसपास कोई हरियाली नहीं थी, आज वहीं हरे-भरे पेड़ों की छांव में हम उन प्यारे पंछियों का कलरव सुन रहे हैं। इस साल हमारे इन पेड़ों पर कम से कम 25 प्रजातियों के पक्षी आए। जब तक हरियाली है, तब तक ये प्यारे पंछी हैं। तब तक हमारे लिए हमारी सांसें तैयार करने वाले ये हमारे हरे-भरे पेड़ हैं। और, अब तो 60 फ्लैटों की हमारी छत पर द्वारकानगरी में पहली बार 100 किलोवाट के ग्रिड कनैक्टेड सौर पैनल भी लग चुके हैं। अब सूरज हमारे लिए बिजली बना रहा है।
जब तक सूरज का यह वरदहस्त रहेगा, पेड़ों की छांव रहेगी और इनमें पंछियों का कलरव सुनाई देगा, पता है, तब तक हमें मां प्रकृति का भी प्यार मिलेगा। काश, इस शहर की सभी सोसाइटियां ऐसी ही हों। तब इस महानगर दिल्ली में साल भर पंछी आते-चहचहाते रहेंगे।

यह भी पढ़े

http://uttranews.com/2018/09/29/meri-yyado-ke-pahad-se-sahityakar-devendra-mewari-ne-karayi-anokhi-yatra/

new-modern