हिमाचली परिदृश्य : दरकते पहाड़ों की अकथनीय व्यथा

Newsdesk Uttranews
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डॉ विजय विशाल

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कुछ दिन पूर्व जब उच्चतम न्यायालय ने अपने एक निर्णय में प्रदेश में विकास योजनाओं के लिए कटने वाले पेड़ों के कटान पर प्रतिबन्ध जारी रखने का निर्णय दिया तो इसकी मिलीजुली प्रतिक्रिया देखने का मिली। पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले या पर्यावरणीय चिन्ताओं से सरोकार रखने वाले प्रसन्न नजर आए तो विकास कार्यां में लगे छोटे-बड़े ठेकेदारनुमा प्राणी आहत थे। हालांकि प्रदेश सरकार के आग्रह पर उच्चतम न्यायालय अपने इस फैसले की पुनः समीक्षा के लिए तैयार हो गया था और मैरिट के आधार पर परियोजनाओं की समीक्षा करके कुछ दिशा निर्देश के साथ विकास कार्यां को जारी रखने की मंजूरी भी दे दी है।

दरअसल आधुनिक विकास की अवधारणा और पर्यावरण संरक्षण में टकराव का रिश्ता है या यूं कहें दोनों में छतीस का आंकड़ा है। विकास की नई ऊँचाईयों को छूने के लिए और स्वस्थ जीवन के लिए समाज को दोनों की ही जरूरत रहती आई है। नई परियोजनाएं जहां समाज को आगे ले जाने में अपनी भूमिका निभाती है वहीं रोजगार के नए अवसर भी पैदा करती हैं, मगर इन परियोजनाओं से पहाड़ों, जंगलों और नदियों को जो नुकसान होता है वह मनुष्य के अस्तित्व को ही चुनौती देने लगता है। आज प्रदेश के सामने ऐसी ही परिस्थितियां मुंह बाए आ खड़ी हैं।
कहावतों या किंवदंतियों के बारे में कहा जाता है कि ये समूचे समाज के साझे अनुभवों की सटीक अभिव्यक्ति होती हैं। लगातार भूकंप की चपेट में रहने वाले जापान की एक कहावत है- ’आपदा तब आती है जब आप उसे भूल जाते हैं।’ इस कहावत के निहितार्थ हमें यह समझना होता है कि हम जिस पारिस्थितिकी या भूगोल में रहते हैं, उसके खतरों से हमेशा भिज्ञ रहें और उसके अनुकूल ही स्वयं को ढालने की कोशिश करें। शायद जापान अपनी इस कहावत के मर्म को समझता है, इसलिए निरंतर बड़े भूकंप भी वहां भयानक आपदा नहीं बन पाते। लेकिन हमारी स्थिति जापान से उल्टी है। हम स्वयं आपदाओं को निमंत्रण देते हैं। देश में इसका एक बड़ा उदाहरण जून 2013 में उत्तराखण्ड त्रासदी के रूप में देखने को मिला था और वर्ष 2018 में केरल की बाढ़ में देखा गया था। हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्यों में तो जब तब छोटी-छोटी घटनाओं के रूप में देखने को मिलता रहता है।

हालांकि मैं न कोई पर्यावरणविद् हूँ और न ही विकास परियोजनाओं की तकनीकी जानकारियां रखने वाला व्यक्ति हूँ। मगर एक सजग नागरिक की हैसियत से अपने चारों तरफ घटने वाली घटनाओं पर सचेत नजर रखता हूँ। इस समय प्रदेश में विकास के नाम पर जो सबसे बड़ी परियोजनाएं चल रही हैं या चर्चा में हैं वह है नए नैशनल हाईवे का निर्माण व पुराने नैशनल हाईवे को चौड़ा करके फोरलेन मार्ग में तबदील करना। इसमें दो राय नहीं कि इस पहाड़ी राज्य में बहने वाले नदी-नाले यहां की आर्थिक सम्पन्नता के संसाधन व स्रोत हैं वैसी ही इन पहाड़ों में निकलने वाली सड़कें यहां के लोगों की जीवन रेखाएं हैं। मगर जिस अबाध गति से अब यहां यह प्रक्रिया चल रही है अर्थात् पहले से निर्मित नैशनल हाईवे को फोर लेन में बदलने की तथा अनेक नए नैशनल हाईवे के निर्माण की घोषणाएं हो रही हैं, उससे कई सवाल उपजते हैं। जिस गति से इन सड़कों के निर्माण के लिए भूमि अधिग्रहण हो रहा है उससे न केवल कृषि भूमि कम हो रही है अपितु अनेक परिवार रोजगार विहीन हो रहे हैं। भूमि अधिग्रहण से मिलने वाले पैसे के निवेश के लिए उचित संसाधनों के अभाव में वह उच्श्रृंखलता को बढ़ाने में सहायक हो रहा है। लोग नशे की गिरफ्त में पड़ते जा रहे हैं। खास कर नई पीढ़ी में नए नशों का प्रचलन बढ़ रहा है। नए मॉडल की मंहगी गाड़ियां बिना जरूरत खरीदी जा रही हैं जिससे सड़कों पर परिवहन का दबाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। राज्य सरकारों का पूरा ध्यान इन नव निर्मित नैशनल हाईवे व फोरलेन की तरफ होने से दूर देहातों की सड़कों से विमुख हो रहा है। उनकी हालत निरंतर खस्ता होती जा रही है। पहाड़ों की से देहाती सड़कें सुरक्षा के कोई मानक पूरे नहीं करती जिससे सड़क दुर्घटनाआें में ईजाफा हो रहा है जिसमें बेशकीमती युवा जिन्दगियां समाप्त हो रही हैं। इससे मुझे लगता है कि नए हाईवे बनाने के बजाए सरकार पहले से बनी इन पुरानी सड़कों की बेहतरी के लिए काम करे। इन्हें सुरक्षा के मानकों के तहत लाए। सभी सड़कों के किनारे पैरापिट हो या क्रैश बैरियर। यह तर्क अपनी जगह सही हो सकता है कि नैशनल हाईवे व फोरलेन पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, इनके निर्माण से पर्यटन व्यवसाय बढ़ेगा मगर अपने प्रदेश के लोगों की जिन्दगी को असुरक्षित रखकर व्यवसाय करना भी समझदारी नहीं कही जा सकती। जहां तक मैं अपने प्रदेश की भागौलिक परिस्थितियों को समझता हूँ मुझे लगता है कि इस पहाड़ी प्रदेश को उचित परिवहन नीति की भी आवश्यकता है जो फिलहाल मुझे नजर नहीं आती। संकरे रास्तों पर भारी भरकम गाड़ियों को चलने देना स्वतः ही दुर्घटना को आमंत्रण है।
कुछ दिन पूर्व थोड़े-थोड़े अंतराल पर कुल्लू जाना हुआ। पण्डोह के आगे जिस निर्ममता से पहाड़ियों को काटने और उनके भीतर अनेक सुरंगे निकालने का कार्य चल रहा है उसे देखते हुए लगता है कि हम उत्तराखण्ड की त्रासदी से कोई सबक नहीं लेना चाहते। जून 2013 में आई उस आपदा में सरकारी आंकड़ों के अनुसार चार हजार से ज्यादा और गैर सरकारी स्वतंत्र संस्थाओं के अनुसार दस हजार से ज्यादा जाने गई थीं। इस त्रासदी के बाद हुए अनेक अध्ययनों में यह बात सामने आई थी कि बिजली परियोजनाओं के नाम पर वहां पहाड़ों के भीतर सुरंगे खोदकर उन्हें पूर्णतः खोखला किया जा चुका था। जिससे यह त्रासदी संभव हो पाई थी।
दूसरा, मुझे लगता है कि इन सुरंगों को निकालने व पहाड़ों को काट कर सड़कें बनाने में लगे अधिकतर अकुशल मजदूर होते हैं। विज्ञान सम्मत खनन से इनका दूर-दूर तक का कोई वास्ता नहीं होता। यहां भी यह देखने-सुनने को मिला कि बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने सुरंगों की खुदाई व पहाड़ों की कटाई का ठेका तो सरकार से ले रखा है मगर वास्तव में ये कम्पनियां स्वयं इस कार्य को नहीं कर रही हैं। इसके बजाए इन बड़ी कम्पनियों ने यह कार्य स्थानीय स्तर पर सबलैट कर रखे हैं। जिससे स्थानीय जेसीबी मालिक ठेकेदार बने हुए हैं और जेसीबी चालक इंजीनियर की भूमिका निभा रहे हैं।
पूरे परिदृश्य को देखकर तो कई बार ऐसे लगता है जैसे देश के दूसरे राज्यों की तरह इस पहाड़ी प्रदेश में भी खनन माफिया व बड़े ठेकेदार विकास परियोजनाओं पर कब्जा जमाए बैठे हैं। वे ही अपने मन माफिक विकास योजनाएं सरकार से बनवा रहे हैं, उन्हें पास करवा रहे हैं और फिर कार्यान्वित भी कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि प्रदेश के जल, जंगल व जमीन पर इन ठेकेदारों का कब्जा हो गया है और प्रदेश सरकार इन नीतियों को विकास के नाम पर प्रचारित करके वोट बटोरने में लगी है। उसकी चिंता दीर्घकालीन नुकसान को लेकर नहीं है।