ओण, केड़ या आड़ा फूंकना–कहीं वनाग्नि (Forest fire) का प्रमुख कारण तो नहीं, कैसे हो जागरुकता?

Newsdesk Uttranews
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अल्मोड़ा, 17 मार्च 2021- उत्तराखंड इस समय बेहद विषम पर्यावरणीय परिस्थितियों से गुजर रहा है। परंपरागत जल स्त्रोतों नौलौ, धारों, गाड़, गधेरों, गैरहिमानी नदियों में पानी का स्तर साल दर साल घटता जा रहा है। वहीं वनाग्नि (Forest fire) की बढ़ती घटनाओं ने पर्यावरण प्रेमियों को चिंता में डाल दिया है। जल स्त्रोतों के साथ साथ जैव-विविधता भी तेजी से सिकुड़ रही है।

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जल स्त्रोतों तथा जैव-विविधता में ह्रास का मुख्य कारण मिश्रित जंगलों का लंबे समय से अनियंत्रित और अवैज्ञानिक दोहन तथा पिछले दो दशकों से वनाग्नि की घटनाओं का बढ़ना है।

इधर 10 फरवरी तक की स्थिति पर नजर डालें तो स्थिति काफी चिंताजनक है, इस अवधि तक ही उत्तरी वृत्त कुमाऊं में आग (Forest fire) लगने की 96 घटनाएं सामने आ चुकी हैं जिसमें 146 हैक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ है। इसमें 5 लाख रुपए से अधिक वन संपदा का नुक़सान हुआ है वहीं 5.5 हैक्टेयर प्लांटेशन और 3600 प्लांट प्रभावित हुए हैं।


यहां इस बात को भी ध्यान रखना होगा कि वर्तमान परिपेक्ष्य में जिस तरह नदियों को बचाने का चल रहा है उसी तर्ज पर जंगलों को आग से बचाने की पहल भी अस्तित्व में आये यह जरूरी हो गया है।

जंगलों की आग वनाग्नि (Forest fire) की बढ़ती घटनाओं ने पर्यावरण प्रेमियों को चिंता में डाल दिया है। पिछले दो दशकों से जंगलों के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने आयी है जिसने न केवल मिस्रित जंगलों के चीड़ के जंगलों में बदलने में योगदान दिया है वरन् बेशकीमती जैव-विविधता तथा बायोमास को, जो कि किसी भी जंगल का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है को जलाने, नष्ट करने में भी इसकी मुख्य भूमिका रही है।

विगत वर्षों में तो गर्मियों में ही जंगलों में आग (Forest fire) लगने की घटनाएं हुआ करती थी मगर शीतकालीन वर्षा और बर्फबारी न होने से नमी के अभाव के कारण इस साल जाड़ों में भी अधिकांश जंगल आग (Forest fire) की चपेट में आ गए हैं,जिसका मुख्य कारण ओण की आग का वन क्षेत्र में पहुंचना रहा है।

ओण, केड़ या आड़ा फूंकने का काम वर्षा ऋतु में खेतों के किनारों में उग आई झाड़ियों, खरपतवारों के सूखे ढेर को कहा जाता है जिसे महिलाओं द्वारा नवंबर, दिसंबर के महीनों में काट कर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है और खरीफ की फसलों की बुवाई से पहले जलाया जाता है। आम तौर पर ओण जलाने का कार्य जनवरी के उत्तरार्द्ध से लेकर मार्च, अप्रैल के महीनों तक, देश काल, परिस्थिति के अनुसार किया जाता है।

महज तीन-चार दशक पहले तक जब पर्वतीय इलाकों में जाड़ों में ठीक ठाक बारिश और बर्फबारी हुआ करती थी तब जमीन में, जंगलों में ठीक ठाक नमी रहने से ओण की आग (Forest fire) के वन क्षेत्र में प्रवेश के मामले नगण्य हुआ करते थे मगर जब से जाड़ों की बारिश और बर्फबारी पर्वतीय इलाकों से रुठ गई है तब से फरवरी के महीनों से ही ओण की आग के निकटवर्ती जंगलों में पहुंचने के मामले बढ़ने लगे हैं।


हल लगाने तथा बीज बोने के अलावा अलावा खेती-बाड़ी के सभी कार्य महिलाओं के ही जिम्मे रहते हैं जिनमें ओण जलाना भी शामिल है यूं तो सभी महिलाएं सावधान रहती है कि ओण की आग फैले नहीं मगर नमी के अभाव में तथा हवाओं का सहारा लेकर बहुत से मामलों में ओण की आग निकटवर्ती सिविल, पंचायती या आरक्षित वन क्षेत्र में प्रवेश कर दावानल (Forest fire) की बड़ी घटनाओं को जन्म दे रही हैं।

यहां पर यह तथ्य ध्यान रखने योग्य है कि हर साल पर्वतीय इलाकों के लाखों परिवारों द्वारा,जो कृषि कार्यों से जुड़े हैं, ओण जलाने की कार्यवाही की जाती है, यदि केवल 0.5%मामलों में भी आग (Forest fire) बेकाबू होकर निकटवर्ती जंगलों को अपनी चपेट में ले रही है तो इतनी ही घटनाएं जंगलों को तबाह करने के लिए पर्याप्त हैं।

एक तरफ नदियों,जल स्त्रोतों,पर्यावरण को बचाने के नाम पर हरेला दिवस पर लाखों, करोड़ों की संख्या में पौधे रोपे जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर जंगलों की आग रोपे गए पौधों के साथ साथ बड़े पेड़ों, झाड़ियों, जैव-विविधता को नष्ट कर रही है।

जंगलों की आग लगने का बड़ा कारण ओण की आग (Forest fire) का बेकाबू होकर वन क्षेत्र में प्रवेश करना है यदि हम ओण जलाने के काम को व्यवस्थित, नियंत्रित कर सकें जो कि बहुत मुश्किल नहीं है तो फरवरी से लेकर अप्रैल माह के अंत तक जंगलों में आग लगने की घटनाओं में 90% कमी लाई जा सकती है।

इस संबंध में नौला फाउंडेशन के एग्जेक्युटिव कोआर्डिनेटर (एएनआर) गजेन्द्र कुमार पाठक का कहना है कि ओण जलाने के प्रति लोगों को जागरूक, संवेदनशील करने तथा इसी बहाने आग से जल स्त्रोतों, जैव-विविधता को हों रहे नुकसान के प्रति जनमानस को जागरूक करने में ओण दिवस या ओण पखवाड़ा बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।


उन्होंने कहा कि ओण दिवस के लिए मार्च के प्रथम पखवाड़े में से कोई दिन चुना जा सकता है। इस दिन राज्य के पर्वतीय इलाकों में सामुहिक रूप से ओण जलाये जा सकते हैं जिसमें महिलाओं के साथ ही पुरुषों की भी भागीदारी हो ताकि ओण की आग (Forest fire) के अनियंत्रित होने की दशा में नियंत्रण करना आसान हो,और इस दिन के बाद ओण जलाने पर पूर्ण पाबंदी लगे।

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इस तरह ओण दिवस पर्वतीय इलाकों में जंगलों की आग को कम करने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हो सकता है कि कुछ लोगों को यह अतिवादी विचार लगे मगर जिस तरह हर साल जंगलों की आग जल स्त्रोतों, जैव-विविधता को नष्ट कर रही है अतिवादी विचारों/कदमों से ही वनाग्नि नियंत्रण/जंगलों, जल स्त्रोतों और जैव-विविधता का संरक्षण संभव है जो सामान्य परिस्थितियों में, वर्ष 2016 में माननीय सर्वोच्च न्यायालय में फुल प्रूफ कार्ययोजना पेश होने के बाद भी असंभव नजर आ रहा है।

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