उत्तराखंड मांगे भू—कानून मुद्दा चल रहा है या जिन्दाबादी नारों में खो गया है

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अल्मोड़ा, 31 जनवरी 2022— उत्तराखंड में तेजी से हो रहे पलायन,भूमि को लेकर लचीले कानून,खरीद फरोख्त पर अंकुश लगाने और भूमि का बचाने की जरूरत राज्य बनने से लगातार उठते रहे हैं।

Uttarakhand sought land law


कभी लोग हिमाचल की तर्ज पर भू—कानून बनाने की मांग करते हैं तो कभी बाहरी लोगों द्वारा बेलगाम भूमि की खरीद फरोख्त पर चिंता जताते हैं। सरकारों के कार्यकाल में कभी इसे नियंत्रित करने का प्रयास दिखा तो कभी अपनी ही सरकार के कार्यकाल में विकास के नाम पर खुली छूट देने की कोशिश होती दिखाई दी।


2018 में ​भू कानून को विकास के नाम पर लचीला करने के बाद एक बार फिर लोगों ने इस मुद्दे को उठाना शुरू किया। 2021 में इस मांग ने तेजी से आम जनमानस तक अपनी पहुंच बनाई। ​जुलाई अगस्त में तो यह मांग सोशल मीडिया में इस तेजी से फैली कि यह लगने लगा था इस बार के चुनावों में उत्तराखंड का भू कानून
(uttrakhand bhu kanun) जरूर एक बड़ा मुद्दा बनेगा तब समर्थन में चली बयार के बीच अधिकांश युवाओं ने इसे अपनी डीपी में जगह दी थी।


सोशल मीडिया की अधिकतर पोस्टों में उत्तराखंड मांगे भू कानून की मांग तेजी से उठने लगी थी। इस मांग को जनसमर्थन भी मिला। मांग यहां तक बढ़ी कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इसे लेकर अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म में एक पोस्ट भी की कि सरकार इस मांग के प्रति गंभीर है। तब लोगों की उम्मीद बढ़ी कि इस बार जरूर सरकार जनता की इस मांग पर कोई गंभीर रुख अपनाएगी।

लेकिन इस बीच धीरे धीरे चुनावी शोर बढ़ने लगा, आया राम गया राम का दौर शुरू हो गया तो एक सरोकारी मांग धीरे—धीरे चर्चाओं से गायब हो गई गॉसिपों में कौन नेता मजबूत कौन कमजोर जैसे गणितीय आंकड़े दौड़ने लगे।


साल बीतते ही यह मांग एक प्रकार से फिर धूमिल होने लगी या यह ​कहिए कि इस मांग को युवाओं या जनता की जेहन से कमजोर करने में कुछ लोग कामयाब हो गये। यह कुछ लोग वह हैं जिनका सत्ता में दखल है अधिकतर चुनाव लड़ते हैं और जीतते भी हैं। लेकिन एक बड़ी मांग को मुद्दा बनने से रोकने की साजिश एक बार फिर फलीभूत होती दिख रही है।


अब हालत यह है कि भू कानून की मांग करती युवाओं की डीपी एक बार फिर मेरा नेता जिंदाबाद के शोर में गुम होती नजर आ रही है। लोग दलों या गुटों में टूटते दिखने लगे हैं। सोशल मीडिया में सरोकारी मुद्दों की बजाय जिंदाबादी नारों ने अपनी जगह बना ली है और उसी तेजी से जरूरी मुद्दे गायब होते जा रहे हैं।


इस बीच कोई ही राजनीतिक दल या नेता होगा जिसने इस मुद्दे पर कुछ बात की होगी। दिसंबर माह के शुरूआत से दल बदलने का जो सि​लसिला जारी हुआ वह नामांकन के अंतिम दिन तक बदस्तूर जारी रहा,अभी भी जारी है और वोट पड़ने तक जारी रहेगा।
मुद्दों को उठा रहे युवा भी इस राजनीतिक घटनाओं के बाद असमंजस में हैं कई तो जिंदाबादी बयार में दौड रहे हैं । जिस चुनाव में इस मुद्दे के जोर शोर से उठने की उम्मीद थी वह चुनावी शोर में गुम सा हो गया है।