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पांडव नृत्य(Pandav Nritya) :: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत, पांडवों की स्वर्गारोहण की गाथा का होता है वर्णन

Newsdesk Uttranews
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Pandav Nritya :: The cultural heritage of Uttarakhand

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अल्मोड़ा/ चमोली, 21 नवंबर 2021- उत्तराखंड में खरीफ की फसल पूर्ण होने के बाद महिने भर पांडव नृत्य (Pandav Nritya)का आयोजन किया जाता है।


गढ़वाल मंडल के विभिन्न हिस्सों में खेली जाने वाली पांडव नृत्य का आयोजन अब चमोली जिले के सीमावर्ती क्षेत्र चौखुटिया के कई गांवों में होने लगा है।


पांडव नृत्य(Pandav Nritya) देवभूमि उत्तराखण्ड का पारम्परिक लोकनृत्य है। जनश्रुतियों अनुसार पांडव अपने अवतरण काल में यहाँ वनवास, अज्ञातवास, शिव की खोज में और अन्त में स्वर्गारोहण के समय आये थे।


यह भी मान्यता है कि महाभारत के युद्ध के बाद पांडवों ने अपने विध्वंसकारी अस्त्र और शस्त्रों को उत्तराखंड के लोगों को ही सौंप दिया था और उसके बाद वे स्वार्गारोहिणी के लिए निकल पड़े थे।


और अभी भी यहाँ के अनेक गांवों में उनके अस्त्र- शस्त्रों की पूजा होती है और पाण्डव लीला (Pandav Nritya)का आयोजन होता है। स्व. सर्वेश्वर दत्त काण्डपाल के अतिरिक्त आचार्य कृष्णानंद नौटियाल द्वारा गढ़वाली भाषा में रचित महाभारत के चक्रव्यूह, कमल व्यूह आदि के आयोजनों का प्रदर्शन पूरे देश में होता है।

रुद्रप्रयाग-चमोली जिलों के केदारनाथ- बद्रीनाथ धामों के निकटवर्ती गांवों में इसका रोमांचक आयोजन होता है।


बताते चलें कि गढ़वाल में पांडवों का इतिहास स्कंद पुराण के केदारखंड में भी पाया जाता है। इस पौराणिक एवं धार्मिक संस्कृति को महफूज़ रखने के लिए ग्रामीण आज भी पांडव लीला(Pandav Nritya) का आयोजन भव्य रूप से करते हैं।

यहां देखें पांडव नृत्य वीडियो

उत्तराखंड की संवृद्ध सांस्कृतिक विरासत का परिचायक है पांडव नृत्य

पांडव नृत्य uttra news


गढ़वाल के विभिन्न स्थानों पर हर साल नवंबर से लेकर फरवरी तक पांडव नृत्य (Pandav Nritya)का आयोजन किया जाता है।
खरीफ की फसल कटने के बाद ही एकादशी व इसके बाद से इस धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन की पौराणिक परंपरा है।


जनश्रुतियों के अनुसार पांडवों ने केदारनाथ से स्वर्गारोहणी जाते समय गढ़वाल के विभिन्न स्थानों पर अपने अस्त्र-शस्त्रों को त्याग दिया था। इन्हीं शस्त्रों की पूजा अर्चना के बाद नृत्य (Pandav Nritya)की परंपरा आज भी कायम है।


गढ़वाल के विभिन्न स्थानों पर हर साल नवंबर से लेकर फरवरी तक पांडव नृत्य (Pandav Nritya)का आयोजन किया जाता है। खरीफ की फसल कटने के बाद ही एकादशी व इसके बाद से इस धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन की पौराणिक परंपरा है।

चमोली जिले के समीपवर्ती क्षेत्रों माईथान, बछुवाबाण व झूमाखेत के लोगों ने बताया कि पांडव लीला पांच पांडवों के जीवन से संबंधित है। इसमें पांडव नृत्य के साथ उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों पर अपने रीति रिवाज के अनुसार बिताए गए उनके जीवन का सजीव चित्रण किया जाता है।

पांडव नृत्य के माध्यम से पांच पांडवों व द्रोपदी की पूजा अर्चना करने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। अब यह आयोजन जनपद से लगे चौखुटिया ब्लॉक के कई हिस्सों में भी होता है।


कई स्थानों पर स्थानीय कलाकार युधिष्ठर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव का रूप धारण कर परंपरागत परंपरागत लोक गीतों पर नृत्य करते हैं।
मान्यता है कि पांडव अपने जीवन के अंतिम समय में यहां हिमालयी कंदराओं में मोक्ष के लिए आए थे। लिहाजा यहां शायद ही ऐसा कोई गांव होगा जहां पांडव लीला आयोजित न होती हो।

Pandav Nritya
पांडव नृत्य का दृश्य


पाण्डव नृत्य कराने के पीछे गांव वालों द्वारा विभिन्न तर्क दिए जाते हैं, जिनमें मुख्य रूप से गांव में खुशहाली, अच्छी फसल के अतिरिक्त यह भी माना जाता है कि गाय में होने वाला खुरपा रोग पाण्डव नृत्य कराने के बाद ठीक हो जाता है।


इस भव्य और वृहद् आयोजन के दौरान गढ़वाल में भौगोलिक दृष्टि से दूर दूर रहने वाली पहाड़ की बहू- बेटियां अपने मायके आती हैं, जिससे उनको वहाँ के लोगों को अपना सुख दुःख बताने का अवसर मिल जाता है।


पांडव नृत्य के आयोजन में सबसे पहले गांव वाले पंचायत बुलाकर आयोजन की रूपरेखा तैयार करते। तय की गई तिथि के दिन गांव वाले पांडव चौक में एकत्र होते हैं।


पांडव चौक उस स्थान को कहा जाता है, जहां पर पांडव नृत्य का आयोजन होता है। ढोल एवं दमाऊं जो कि उत्तराखण्ड के पारंपरिक वाद्य यंत्र हैं, जिनमें अलौकिक शक्तियां निहित होती हैं।

इन दो वाद्य यंत्रों द्वारा पाण्डव नृत्य में जो पाण्डव बनते हैं, उनको विशेष थाप द्वारा अवतरित किया जाता है और उनको पांडव पश्वा कहा जाता है। विशेष थाप पर विशेष पांडव अवतरित होता

अर्थात् युधिष्ठिर पश्वा के अवतरित होने की एक विशेष थाप है, उसी प्रकार भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव आदि पात्रों की अपनी अपनी विशेष थाप होती है।

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लोगों के कहना है कि पांडव पश्वा प्रायः उन्हीं लोगों पर आते हैं, जिनके परिवार में यह पहले भी अवतरित होते आये हों। वादक लोग ढोल- दमाऊं की विभिन्न तालों पर महाभारत के आवश्यक प्रसंगों का गायन भी करते हैं।