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कुमांऊ की वैष्णों देवी के नाम से विख्यात है दूनागिरी माता का मंदिर

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मयंक मैनाली

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द्वाराहाट |यूं तो उत्तराखंड के कण- कण में देवताओं का वास है | इसी कारण इसे देवभूमि भी कहा जाता है | यहां हर कोस और मोड पर मौजूद पौराणिक मंदिर, शक्तिपीठ और धाम इसकी पुष्टि भी करते हैं | ऐसे ही शक्तिपीठों में से एक है द्रोणागिरि वैष्णवी शक्तिपीठ। माना जाता है किे प्रख्यात माता वैष्णो देवी मंदिर के बाद उत्तराखंड के कुमाऊं में दूनागिरि दूसरा वैष्णो शक्तिपीठ है। देवभूमि उत्तराखंड के द्वाराहाट स्थित मां दूनागिरी का भव्य मंदिर आस्था और श्रद्धा का केंद्र है। यहां मां दूनागिरी वैष्णवी रूप में पूजी जाती हैं। इस धाम में वर्ष भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।  माता का वैष्णवी रूप होने के कारण यहां किसी प्रकार की बलि नहीं दी जाती है। मान्यता यहां तक है कि मंदिर में अर्पित किया गया नारियल भी परिसर में नहीं फोड़ा जाता है। वहीं इसके साथ ही यह भी मान्यता है कि मंदिर में अखंड दीपक जलाकर तपस्या करने वाली महिला को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। मनोकामना पूरी होने पर श्रद्धालु मंदिर में सोने और चांदी के छत्र, घंटियां, शंख अर्पित करते हैं। दूनागिरी मंदिर को लेकर यूं तो अलग- अलग मत और मान्यताएं हैं | परंतु सभी मत और मान्यताएं पौराणिक काल से ही जुडे हैं | मंदिर के विषय में कहा जाता है कि लक्ष्मण को शक्ति लगने पर सुषैन वैद्य ने हनुमान जी को संजीवनी बूटी लाने के लिए द्रोणांचल पर्वत पर भेजा था। हनुमान जी इस पर्वत को लेकर जा रहे थे तो पहाड़ी से दो शिलाएं गिर गईं। इनका ब्रह्मचरी नाम पड़ा। वहीं इस पर्वत पर पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य द्वारा तपस्या करने पर इसका नाम द्रोणागिरि भी है। मां दूनागिरि मंदिर की दो शिला विग्रहों की संयुक्त पूजा अद्वितीय है। पुराणों, उपनिषदों व इतिहासविदों ने दूनागिरि की पहचान दुर्गा कालिका के रूप में की है। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने युद्ध में विजय तथा द्रोपदी ने सतीत्व की रक्षा के लिए दूनागिरि की दुर्गा रूप में पूजा की। ऐसा भी माना जाता है कि गुरु द्रोणाचार्य का आश्रम भी दूनागिरी में ही था। यह भी एक प्रचलित लोकमत है कि द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वश्थामा आज भी दूनागिरी से कुछ ही दूर पांडुखोली में ही वास करते हैं। दूनागिरी की पहाड़ियों और इसके आसपास आज भी ऐसे चमत्कारिक औषधीय पौधे हैं जो रात में चमकते हैं। यह भी कहा जाता है कि यहां संजीवनी बूटी अभी भी मौजूद है। दूनागिरी मंदिर पहुंचने के लिए अल्मोडा जिले के द्वाराहाट बाजार से करीब 14 किमी दूर मंगलीखान से करीब 500 के लगभग सीढ़ियां चढ़कर पहुंचते हैं दूनागिरि माता के मंदिर में। यह मंदिर बांज, देवदार, उतीस, अकेसिया और सुरई समेत विभिन्न प्रजाति के पेड़ों के झुरमुटों के मध्य स्थित है, जिससे यहां आकर मन को काफी शांति मिलती है। एक कथा के अनुसार त्रेतायुग में लंका में लक्ष्मण जी को शक्ति लगने पर सुषैन वैद्य ने हनुमान जी को संजीवनी बूटी लेने के लिए द्रोणांचल पर्वत पर भेजा था। हनुमान जी इस पर्वत को लेकर जा रहे थे तो पहाड़ी से दो शिलाएं गिर गई। इनका ब्रह्मचरी नाम पड़ गया। 1238 ईसवी में कत्यूर वंशीय राजा सुधारदेव ने मंदिर का लघु निर्माण कर मूर्ति स्थापित की। इसका उल्लेख मंदिर में मौजूद शिलापट्टों के माध्यम से भी मिलता है| वहीं जानकारी के अनुसार मंदिर होने का प्रमाण सन् 1181 शिलालेख में मिलता है। मान्यता यह भी है कि इस पर्वत पर पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य द्वारा तपस्या करने पर इसका नाम द्रोणागिरि भी है। कालान्तर में अब इसे दूनागिरी के नाम से ही जाना जाने लगा| पौराणिक महत्व के साथ ही आस्था और श्रद्धा का केंद्र बन चुके पवित्र दूनागिरी माता के मंदिर में देश- विदेश से श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं | मंदिर तीर्थ स्थल के साथ ही पर्यटक स्थल के रूप में भी विकसित होता जा रहा है |

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