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विमर्श : कैसे हो सेब की खेती यहां तो ‘बागवान’ ही बागवानी के दुश्मन !

Newsdesk Uttranews
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योगेश भट्ट की फेसबुक वॉल से साभार

एक अर्से से सुनते आ रहे हैं कि उत्तराखंड बागवानी के लिए मुफीद है, बागवानी से राज्य की आर्थिकी मजबूत हो सकती है, राज्य की तकदीर बदल सकती है । अगर यह सच है तो बीस साल होने जा रहे हैं, उत्तराखंड में कहीं कुछ नजर क्यों नहीं आता ? कहते हैं कि उत्तराखंड में सेब उत्पादन की अच्छी संभावनाएं हैं । ऐसा है तो उत्तराखंड का सेब आज तक अपनी पहचान क्यों नहीं बना पाया । क्यों आज भी उत्तराखंड का सेब देश की मंडियों में हिमाचल की पेटियों में जाता है ।
पड़ोस में हिमाचल 3500 फिट पर सेब का उत्पादन कर रहा है, क्यों अपने यहां 7000 फिट पर भी सेब उगाने में किंतु परंतु चल रहा है ? एप्पल मिशन जैसी महत्वाकांक्षी योजना पहले ही पायेदान पर क्यों दम तोड़ देती हैं? चलिये पिछला हिसाब छोड़ दें और सिर्फ राज्य बनने से लेकर अभी तक की बात करें तो बागवानी के नाम पर उत्तराखंड तकरीबन एक हजार करोड़ रुपया से ऊपर खर्च कर चुका है।  सवाल यह उठता है कि इतने बड़े खर्च के बावजूद पहाड़ों पर बगीचे नजर क्यों नहीं आते ? नजर आएंगे भी कैसे, धरातल पर कुछ हुआ हो तो नजर भी आए । उत्तराखंड में तो बागवानी पर इंडो डच हौरटिको नाम की कंपनी का ग्रहण लगा हुआ है । प्रदेश के उद्यान विभाग की कमजोरियों और कमियों का इस कंपनी ने जमकर फायदा उठाया है । बीते दो दशक में उत्तराखंड में बागवानी का भले ही विकास न हुआ लेकिन इस कंपनी का विकास खूब हुआ । प्रदेश की पूरी ‘बागवानी’ यह कंपनी अपनी ‘जेब’ में रखकर घूम रही है । इस कंपनी के कारनामों के चलते आज प्रदेश की जैव विविधता खतरे में है ।
अफसरों और नेताओं की ‘आंख का तारा’ बनी यह कंपनी अब प्रदेश के ‘बागवान’ अफसरों और नेताओं के लिए मुसीबत बनने जा रही है ।चलिए अब आते हैं असल मुद्दे पर, प्रदेश की बागवानी पर कैसे ग्रहण लगा है ? अभी कुछ दिनों पहले राज्य के उद्यान मंत्री सुबोध उनियाल अपनी पीठ ठोकने में लगे थे कि वह प्रदेश में एप्पल मिशन की 700 करोड़ की योजना मंजूर करा लाए हैं। इस योजना से डेढ़ लाख लोगों को रोजगार मिलेगा, पलायन रुकेगा, राज्य की तकदीर संवर उठेगी । इधर मंत्री जी का ‘पब्लिसिटी स्टंट’ चल रहा था और उधर तकरीबन तीन साल पहले प्रायोगिक तौर शुरू की गयी एप्पल मिशन योजना पहले ही पायेदान पर दम ‘तोड़’ रही थी । योजना के तहत नयी तकनीक और उच्च प्रजाति के नाम पर जो पौधे रोपे गए, उनमें से आधे से अधिक पौधे पहले ही साल रोग ग्रस्त हो चुके थे । सभी बगीचों में साठ फीसदी से अधिक पौधे वायरस की चपेट में हैं । मुद्दा यह है कि खासे तेजतर्रार माने जाने वाले मंत्री की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए ? एप्पल मिशन पर पब्लिसिटी स्टंट से पहले क्या उन्हें एक्शन मोड में नहीं होना चाहिए था ? क्या मंत्री जी को इसकी जानकारी नहीं थी कि प्रायोगिक तौर शुरू की गयी एप्पल मिशन योजना का प्रदेश में क्या हस्र हो रहा है ? अगर मंत्री को इसकी जानकारी नहीं है तो यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है, और यदि मंत्री का जानकारी थी तो यह चिंताजनक है कि इतने संवेदनशील मसले का विभागीय मंत्री ने संज्ञान क्यों नहीं लिया ।
बहरहाल पता चला है कि एप्पल मिशन के जो पौधे रोपे गए वह हमेशा की तरह इंडो डच कंपनी ने ही सप्लाई किए हैं। इंडो डच कंपनी ने यह पौधे इटली से आयात किये। मुद्दा आयातित पौधों का है इसलिए बेहद संवेदनशील है, कोई भी कंपनी इस तरह विदेश से आयातित पौधों को सीधे काश्तकारों को नहीं दे सकती । नियमत: कोई भी आयातित पौधा रोपे जाने से पहले यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक है कि वह रोगग्रस्त या किसी वायरस की चपेट में तो नहीं है । इसके लिए आयातित पौधों का आने से पहले व देश में आने के बाद नियमानुसार परीक्षण व प्रमाणीकरण आवश्यक है । प्रत्येक पौधे का पूरा रिकार्ड रखा जाना आवश्यक है । कोरेंटीन एक्ट के अंतर्गत आयातित पौधों का ‘प्री कोरेंटीन’ और ‘पोस्ट कोरेंटीन’ परीक्षण जरूरी है, उसके बाद उन्हें एक वर्ष तक कृषि विश्वविद्यालय या भारत सरकार के शोध केंद्रों की निगरानी में रखना जाना अनिवार्य है । उत्तराखंड में पंतनगर विश्वविद्यालय में ‘पोस्ट कोरेंटीन’ टेस्ट की व्यवस्था है, इसके बावजूद एप्पल मिशन के तहत लगायी गयी पौधों का कोरेंटीन टेस्ट नहीं कराया गया। कोरेंटीन टेस्ट होता भी कैसे, पौध सप्लाई करने वाली इंडो डच कंपनी प्रदेश आज तक प्रदेश में नर्सरी एक्ट के तहत पंजीकृत ही नहीं है ।
यह कोई पहला मौका नहीं था प्रदेश में बीते एक दशक से भी लंबे समय से यह कंपनी इस तरह आयातित पौधों की सप्लाई करती आ रही है । दुर्भाग्यपूर्ण है कि हर बार की तरह इस बार में पूरे मामले को दबा दिया गया है । इंडो डच कंपनी अपने कारनामों पर पर्दा डालने के लिए प्रचार में उतर आयी है, तमाम खामियों के बावजूद वह एप्पल मिशन को सफल योजना के तौर पर प्रचारित कर रही है । कंपनी की ओर से अपने पक्ष में इस तरह का प्रचार किया जा रहा है कि उत्तराखंड में वह सेब उत्पादन में क्रांति ले आयी है । इसके बाद तो उत्तराखंड सेब उत्पादन में हिमाचल को भी पीछे छोड़ देगा ।
जबकि आज हकीकत यह है कि कंपनी के हालिया कारनामे के बाद विभाग के अफसरों से जवाब देते नहीं बन पड़ रहा है । आयातित रोगग्रस्त पौधों के कारण जैव विविधता को भी खतरा पैदा हो गया है । हर बार की तरह विभाग में सन्नाटा है, मंत्री से लेकर संतरी तक किसी को कोई परवाह नहीं । कोई यह पूछने वाला नहीं है कि यह कंपनी क्यों उत्तराखंड में बागवानी से खिलवाड़ कर रही है, क्यों इस कंपनी को सबक नहीं सिखाया जाता ? इसके विपरीत अफसोसजनक यह है कि हाल ही में जब 15वां वित्त आयोग उत्तराखंड के दौरे पर आता है तो अफसर गुड वर्क के नाम पर वित्त आयोग को उसी कंपनी की नर्सरी का दौरा कराते हैं ।
इस नर्सरी की कहानी फिर कभी, चलिये अब बात करते हैं बागवानी को लेकर उत्तराखंड और हिमाचल के बीच फर्क की । ऐसा नहीं है कि हिमाचल में खेल नहीं होते वहां भ्रष्टाचार नहीं होता । हिमाचल में भी विश्व बैंक सहायतित 1134 करोड़ के एप्पल मिशन में बड़ा घपला हुआ है, यहां 100 करोड़ तो सिर्फ कंसल्टेंसी पर उड़ाए गए हैं । अफसरों ने मनमाने तरीके से वहां भी आयातित पौधों की महंगे दाम पर खरीद की है । अभी तक जितनी पौधों की खरीद हुई है उसमें से पचास फीसदी में अधिक पौध वहां भी संक्रमित है । हिमाचल में नर्सरी और कोल्ड स्टोर में ही पौधों में वायरस आ गया। फर्क यह है कि जैसे ही हिमाचल में पौधों में संक्रमण का पता चला, हिमाचल की पूरी राजनीति में भूचाल आ गया । मामला सरकार और हाईकोर्ट तक पहुंच चुका है । विश्वविद्यालय से लेकर दूसरे शोध केंद्र हरकत में आ गए हैं, संक्रमित पौधों को युद्ध स्तर पर हटाया जा रहा है । यह जांच चल रही है कि पौधे संक्रमित ही सप्लाई किए गए या फिर संक्रमण कहीं बीच से आया है । इस खुलासे के बाद बागवानी मंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि बागवानी विकास विदेशों से पौधे नहीं खरीदेगा खुद रूट स्टाक तैयार करेगा ।
हिमाचल में उत्तराखंड की तरह मामले को दबाया नहीं गया इस घटना के बाद हिमाचल में गंभीर सवाल उठ रहे हैं, मसलन हिमाचल आजादी के 71 साल बाद भी सेब की पौधें आयात क्यों कर रहा है ? सेब के पौध रोपने का सही समय जब सर्दियों में है तो पौध खरीदने के आर्डर मार्च में क्यों दिये गए ? प्रदेश में बागवनी विभाग, कृषि विश्वविद्यालय पालमपुर और बागवानी विवि नौणी होने के बावजूद एप्पल प्रोजेक्ट के लिए अलग से हार्टिकल्चर बोर्ड का गठन क्यों किया गया ? बोर्ड में नान टेक्निकल स्टाफ की भर्तियां क्यों की गयी ? हिमाचल में इस मसले पर जवाबदेही तय की जा रही है, यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि रोगग्रस्त पौधों का दुष्प्रभाव वहां की जैव विविधता पर न पड़े । यही बड़ा फर्क है उत्तराखंड और हिमाचल में, उत्तराखंड में जो कार्य संस्कृति है उसमें यह कल्पना भी नहीं की जा सकती।
अपने यहां बागवानी के लिए सरकार इन दिनों मोटे निवेशक की तलाश में है । यह सच है कि बागवानी उत्तराखंड को पैरों पर खड़ा कर सकती है, आर्थिकी और रोजगार के लिये पलायन पर इससे काफी अंकुश लग सकता है । लेकिन यह भी उतना ही सच है मौजूदा व्यवस्था और सोच के भरोसे यह कतई संभव नहीं है । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्य में सरकार की बागवानी से जुड़ी एक भी योजना सफल नहीं रही है । बागवानी में उत्तराखंड को मिली ऐतिहासिक धरोहरें खत्म हो चुकी हैं । अंग्रेजों के जमाने में स्थापित चौबटिया फार्म, जिसका नाम कभी शान से लिया जाता वह अपने दुर्दिन काट रहा है । उत्तर प्रदेश के समय स्थापित हुए बगीचे उजाड़ हो चुके हैं, सरकार तो क्या निजी कंपनियां भी उन बगीचों को नहीं चला पा रही हैं ।
बागवानी विकास के नाम पर बिचौलिये मौज काट रहे हैं, नेता और अफसर बागवानी विदेशों की सैर कर रहे हैं । सरकार गलतफहमी में है कि किसी निवेशक को टोपी पहनाने से बागवानी संभव है । बागवानी के लिए जरूरी है मजबूत इरादे, स्पष्ट सोच और एक अदद सपोर्ट सिस्टम। पड़ोसी हिमाचल में बागवानी यूं ही मजबूत नहीं हुई , खामियां वहां भी है लेकिन खासियत यह है कि उन्होंने बागवानी का संरक्षण पूरी ईमानदारी से किया है । उसके लिए भू कानून जैसे जरूरी कानून भी बनाए तो विशेषज्ञ संस्थाएं भी स्थापित की । वहां किसी बिचौलिया कंपनी के भरोसे बागवानी को नहीं छोड़ दिया गया । वहां सरकारों ने अनुसंधान, संरक्षण और विकास के लिए राज्य में स्थित कृषि एवं बागवानी विश्वविद्यालयों को सीधे उत्तरदायी बनाया । अभी भी वक्त है, उत्तराखंड में बागवानी के लिए ‘बागवान’ का संजिदा होना जरूरी है । इसके लिए न्यूजीलैंड, हालेंड, इटली, आस्ट्रिलिया आदि देशों में भटकने की नहीं बल्कि सिर्फ कुछ दूर तक पड़ोसी हिमाचल के पद चिन्हों पर चलने की जरूरत है ।