Uttarakhand culture- कोई लौटा दो मेरा बचपन, कोई लौटा दो हमारी फूलदेई

Newsdesk Uttranews
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Uttarakhand culture

देहरादून। उत्तराखंड की संस्कृति Uttarakhand culture अपने आप में परिपूर्ण है। हमारी संस्कृति का एक प्रतीक महोत्सव फूलदेई आते ही बचपन याद आ जाता है। एक तरह से यह हमारे बचपन को प्रतिबिंबित करता है। प्रकृति से हमने उन्मुक्त, सरल, शांत, समभाव, सहयोग, सहकारिता, समरसता, सौहार्द का संदेश लिया, उसे आत्मसात करने की समझ हमें फूलदेई से मिली।

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हम छोटे थे तो फूलदेई की तैयारियों में लग जाते। पहला काम था ‘सारी’ में से मिझाउ के फूल तोड़कर लाना। अच्छे से अच्छे फूलों से टोकरी को सजाने की रचनात्मकता। हमने रचनात्मकता का पहला पाठ फूलदेई से ही सीखा।

फूलदेई ने हमें प्रकृति के साथ चलना और Uttarakhand culture प्रकृति की समरसता के पैगाम को भी आत्मसात करने की शक्ति प्रदान की। हम एक ऐसे समाज में रहते थे, जिसमें बहुत सारी वर्जनायें थी। बावजूद इसके फूलदेई उन वर्जनाओं को तोड़ देती थी।

फूलदेई जहां प्रकृति का स्वत:स्फूर्त त्योहार Uttarakhand culture है वहीं उस समय हम बच्चों की बहुत सारी आकांक्षाएं फूलदेई से रहती थी। जिन भी घरों में जाते महिलाएं बहुत स्नेह के साथ अपने घर बुलाती। हमें देहरी के अंदर ही जाना होता था।

जो संपन्न थे वे कुछ खाने के लिये बना देते, जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती थी वे तो कई दिन से किसी भी तरह हमारे लिये अच्छी—अच्छी चीजें रखते थे। उन्हें लगता था कि बच्चे आयेंगे तो उन्हें निराशा नहीं होनी चाहिये। गांव की महिलाओं में होड़ लगी रहती थी हमें ज्यादा चावल, ज्यादा गुड़ (Uttarakhand culture) और पैसा देने की।

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उन दिनो एक, दो, तीन, पांच, दस, बीस, पच्चीस और पचास पैसे के सिक्के चलते थे। ज्यादतर घरों से अधिकतम पांच पैसे (Uttarakhand culture) मिलते थे। जिन घरों से इससे ज्यादा पैसे मिलते थे, वहां हमारा विशेष ध्यान होता था। कई घरों से मिठाई भी मिल जाती थी।

Uttarakhand cultureमेरी ईजा तो पूरे घर को जैसे बच्चों के लिये भर देती थी। नये बच्चों की टोकरी को गांव के लोग विशेष रूप से भरते थे। गांव के सबको पता होता था कि किसके घर से नई टोकरी आने वाली है। बच्चों में इस बात की प्रतियोगिता भी होती थी कि किसकी टोकरी में ज्यादा चावल या गुड़ आया है।

एक बार हम लोग फुलदेई Uttarakhand culture खेल रहे थे। आराम करने के लिये एक खेत में बैठे थे। एक बैले उधर आ गया। वह मेरे पीछे पड़ गया। मैं ज्यादा दूर तक भाग नहीं पाया और मेरे हाथ से मेरी थाली गिर गई। मेरे सारे चावल, गुड़ और पैसे मिट्टी में मिल गये। मैं रोने लगा। बच्चों ने सांत्वना दी।

लेकिन सालभर की कमाई एक झटके में चली गई। आज भी उस फूलदेई Uttarakhand culture की कमाई को खोने की कसक बाकी है। एक ऐराड़ी के प्रेमसिंह थे जो हमारी ‘सिमतया’ में अकेले एक मकान में रहते थे। हम उनके नींबू चुराते थे। उनके यहां अंगूर भी थे उन्हें भी हम चुराते थे।

वे हमें ढूढते रहते थे, लेकिन हम हाथ नहीं आते। साल में फूलदेई के दिन उनके देहरी में जाते फूल लेकर तो उन्हें याद ही नहीं रहता कि यही हैं वे बच्चे जिन्हें उनकी तलाश रहती थी। वे भी हमें बहुत सारे चावल देते। प्रेम सिंह ही ऐसे थे जो हमें गुड़ की जगह मिसरी देते थे।

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एक और थे कमलापति जी। वे हर फूलदेई पर हमें याद आते हैं। उनका घर हमारे खेल के मैदान के पास था। हमेशा हमारे क्रिकेट की बाॅल उनके सब्जियों के खेतों में चली जाती। हम जब बाल लाने जाते तो उनकी सब्जियों को नुकसान होता। वे पहरेदारी में रहते।

जब उनके हाथ बाॅल आ जाती तो युद्ध का नया मैदान खड़ा हो जाता। हमने उनसे बदला लेने का नया तरीका ढूंढा। कमलापति जी शाम को हाथ में लोटा लेकर दीर्घ शंका से निपटने जाते। हम सब बच्चे पत्थर से उनके लोटे को निशाना बनाते। उनके साथ हमारा यह ‘युद्ध’ आखिरी समय तक चला। लेकिन फूलदेई के दिन सबके ज्यादा गुड-चावल हमें कमलापति जी से ही मिलता था।

वरिष्ठ पत्रकार चारू तिवारी की फेसबुक वॉल से साभार

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