शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 12

Newsdesk Uttranews
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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रहा है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 12

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शिक्षक की स्थिति के बारे में राष्ट्रीय पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति 2005 से जुड़े विशेषज्ञ कमलानंद झा अपनी पुस्तक ’पाठ्य पुस्तक की राजनीति’ में एक स्थान पर टिप्पणी करते हैं कि भारत का शिक्षक समुदाय अत्यधिक दकियानूस और परंपरावादी है। पुरानी पड़ गई बातों को आज भी शिक्षक दोहराए चले जा रहे हैं। बहुत कुछ पुराने अज्ञान और अंधविश्वास शिक्षक के माध्यम से नई पीढ़ी में डाला जा रहा है। कमलानंद झा की यह टिप्पणी तल्ख लग सकती है पर यथार्थपरक है। यदि हम अपने आसपास ही नजर दौड़ाएं तो परंपरावादी, दकियानूसी, सामंतवादी, अलोकतांत्रिक, भाग्यवादी और अवैज्ञानिक सोच वाले शिक्षकों की कमी नहीं दिखाई देगी। ऐसे बहुत सारे शिक्षक मिल जाएंगे जो रोग-व्याधि से मुक्ति के लिए विभूति लागाने, ताबीज-गंडा बाँधने, झाड़-फूँक या पूजा-पाठ करने की सलाह देने में देर नहीं करते हैं। कुछ तो खुद इन टोने-टोटकों के विधि-विधानों के विश्ेषज्ञ हैं। गाँवों में तो ऐसे बहुत सारे शिक्षक दिख जाएंगे जो इसी काम के लिए जाने-माने जाते हैं। पुरोहिती तो बहुत सामान्य बात है। इसके अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति के बच्चों का छुआ पानी न पीना, मध्याह्न भोजन के समय उन्हें अलग पाँत में बैठाना, मासिक धर्म के चार दिनों के दौरान भोजन माताओं से रसोई न बनवाना जैसी प्रवृत्तियाँ ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में आम हैं। इन शिक्षकों की चिंतन प्रक्रिया में तर्क का कोई स्थान नहीं दिखाई देता। किसी घटना के पीछे कार्य-कारण के संबंध को ढूँढने की कोई कोशिश तो इनके लिए दूर की कौड़ी है। अतीत-मोह इनकी खासियत। बात-बात में भाग्य की ही दुहाई देना इनकी आदत का हिस्सा है। धर्म, जाति, लिंग के सवालों पर सोच का दायरा एक सदी पीछे अटका। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर कोई आस्था और विश्वास नहीं। बच्चों को स्वतंत्रता और समानता देने की बात पर तो ये भड़क ही उठते हैं। बच्चों को प्रश्न पूछने तक की छूट देना इन्हें अपनी शान के खिलाफ लगता है। बहस करना तो अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा है इनकी दृष्टि में। स्त्री को पुरुष के समान मानना इन्हें प्राकृतिक नियम के विरूद्ध प्रतीत होता है। इनकी दृढ़ मान्यता है कि ईश्वर ने स्त्री को पुरुष से कमजोर बनाया है इसलिए वे दोनों कभी समान नहीं हो सकते हैं। प्रकृति में ही असमानता है तो भला समाज में समानता कैसे संभव है? उनके लिए जाति भी ईश्वर निर्मित है।
ये शिक्षक दोहरेपन के शिकार हैं-पाठ पढ़ाते हुए वे अलग होते हैं और व्यवहार में अलग। ये जो पाठ्यपुस्तक में पढ़ाते हैं, उस पर इनका स्वयं का विश्वास नहीं होता है। उसे ये पाठ्यक्रम पूरा करने के नाम पर पढ़ा-भर देते हैं। समाज के मिथकीय और अप्रमाणिक ज्ञान को ये पाठ्यपुस्तकों में निहित तार्किक ज्ञान से ऊपर रखते हैं। ये मूल्यों का विकास करने की जगह परीक्षा पास करने की दृष्टि से अध्यापन करते हैं। इनके लिए किताब में प्रस्तुत विषयवस्तु ही ज्ञान है, जिसे बच्चों को रटा देना उनका अंतिम लक्ष्य होता है। बच्चे कहीं कोई प्रश्न खड़ा करते हैं तो ये उन्हें चुप करा देते हैं। बच्चों की मानसिकता और व्यवहार में बदलाव दूर-दूर तक उनकी कार्ययोजना में कहीं शामिल नहीं होता है। न ही बच्चे की गरिमा को कोई ध्यान उन्हें रहता है।
ऐसे में सवाल उठता है कि जब शिक्षकों के भीतर ही लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और वैज्ञानिक चेतना तथा आलोचनात्मक विवेक का अभाव हो तो फिर कैसे आशा की जा सकती है कि वे बच्चों में इन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्माण कर पाएंगे। जो शिक्षक स्वयं दूसरे धर्मों के प्रति पूर्वाग्रहों से भरा हो तथा बच्चों के समक्ष दूसरे धर्मों की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करता हो, वह बच्चों में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य क्या विकसित करेगा? ऐसे शिक्षकों के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चे कैसे सभी धर्मों को समान और आदर की दृष्टि से देख पाएंगे? कैसे उसके भीतर वैज्ञानिक व आलोचनात्मक चिंतन पैदा होगा? इस हालात पर आज गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

इस सबके बावजूद यहाँ इस सवाल पर विचार करना जरूरी लगता है कि आखिर शिक्षकों की इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? वे कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जिसके चलते शिक्षक इस स्थिति में पहुँच गए? क्या इस बदलाव विरोधी व्यवस्था में शिक्षक इस हैसियत में है कि वह इच्छित बदलाव कर सके? क्या यह व्यवस्था उसे इतनी छूट देती है? शिक्षक को इसके लिए पूरी तरह दोषी बताना कहीं न कहीं जल्दबाजी और अधूरा विश्लेषण होगा क्योंकि शिक्षक स्वयं उस सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था का अंग है जो अलोकतांत्रिक और अवैज्ञानिक है। इस व्यवस्था के आकाओं को नागरिकों में लोकतांत्रिक चेतना की कोई गरज नहीं है। यह उनके वर्गीय स्वार्थों के खिलाफ है। शिक्षक बनने से पहले वह जिस व्यवस्था में पला-बढ़ा और पढ़ा-लिखा है उसका असर उस पर पड़ना स्वाभाविक है। इस व्यवस्था में उसकी हैसियत का विश्लेषण करना होगा। क्या वह इस स्थिति में है कि इस दिशा में स्वतंत्रता से काम कर सके? इस संदर्भ में युवा शिक्षाविद राजीव शर्मा की बात गौरतलब है-‘‘शिक्षक रूपी जो चावी है उससे बड़े बदलाव की अपेक्षा की जाती है जबकि उसकी सामजिक स्थिति में लगातार गिरावट आयी है।

वास्तव में शिक्षक समाज का एक हिस्सा है और स्कूली व्यवस्था का एक अंग पर स्कूली ढाँचे के निर्माण में उसकी भूमिका ना के बराबर है। बात असल में ढाँचों की है जो प्रत्येक बदलाव की खिलाफत करते हैं या बदलाव को अपने दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करते हैं।’’ वास्तव में शिक्षक इस व्यवस्था की चावी मात्र है उसको चलाने वाला तो कोई और ही है। ऐसा न होता अगर तो फिर क्यों शिक्षा के विभिन्न दस्तावेजों में जिस बात को बार-बार दोहराया जाता रहा है, उसके लिए कोई ठोस पहलकदमी नहीं हुई। तमाम मुद्दों पर शिक्षक-संवेदीकरण हेतु समय-समय पर केंद्र-राज्य सरकारों द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए पर कभी नहीं सुना या देखा गया कि शिक्षकों में लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष व वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए कोई विशेष प्रशिक्षण शिविर चलाए गए हों। इस बिंदु पर भी विचार किया जाना चाहिए। वास्तव में यह व्यवस्था यथास्थिति को बनाए रखना चाहती है। अप्रत्यक्ष रूप से यह कोशिश करती है कि काम करने वाला शिक्षक भी थक हार कर बैठ जाय      ………..  जारी 

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