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पुण्य तिथि विशेष — अपनी ठेठ पहाड़ी स्टाइल में कविताओं और रचनाओं के लिये हमेशा याद रहेंगे शेरदा अनपढ़ (sher da anpadh)

Newsdesk Uttranews
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Punya Tithi Special – Poems and compositions in their typical hill style will always be remembered sher da anpadh

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20 मई को कुमाऊंनी भाषा के सुप्रसिद्व कवि शेर सिंह बिष्ट ” शेरदा अनपढ़” (sher da anpad) की 8 वी पुण्यतिथि है। कभी स्कूल नही गये शेरदा की कविताओं को सुनकर लोग अचरज कर जाते है।

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3 अक्टूबर 1933 को अल्मोड़ा शहर के दुगालखोला से सटे माल गांव में शेर सिंह बिष्ट (sher da anpad) का जन्म् हुआ। जब शेरदा चार वर्ष के थे तो उनके सिर से पिता का साया उठ गया। पिता की मृत्यु से उनके परिवार की माली हालत बहुत खस्ता हो गई।

जमीन, मॉ का जेवर सब गिरवी रखकर जैसे तैसे उनकी मॉ उन्हे पाल रही थी। हालत इतनी खराब के शेरदा (sher da anpad) का परिवार गांव में किसी के घर में रहता था। उनकी मॉ ने अपने दो बेटो भीम सिंह और शेर सिंह को बड़े कष्टों के साथ पालन पोषण किया।
शेरदा ने अपने बचपन से लेकर जवानी और बुढ़ापे को इस कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया।

‘गुच्ची खेलनै बचपन बीतौ/ अल्माड़ गौं माल में/ बुढ़ापा हल्द्वानी कटौ/ जवानी नैनीताल में/ अब शरीर पंचर हैगौ/ चिमड़ पड़ गयी गाल में/ शेर दा सवा सेर ही/ फंस गौ बडऩा जाल में।’

उनका बचपन बड़े संघर्ष में बीता। कभी वह किसी की गाय-भैंस चराने जंगल जाते तो कभी छोटे बच्चे को खिलाने का काम कर देते थे। छोटे बच्चे को झूला झुलाने से लेकर कई काम उन्होने किये। का काम करता था तो बाद में अपने इसी अनुभव को इस कविता में व्यक्त किया-उन्होने अपने बचपन के समय को ​कविता के माध्यम से जो कहा वह हम अपने पाठकों के सम्मुख रख रहे है।

‘पांच सालैकि उमर/गौं में नौकरि करण फैटूं/ काम छी नान भौक/ डाल हलकूण/ उलै डाड़ नि मारछी/ द्विनौका है रौछि/मन बहलुण।’
शेरदा को उस समय इस काम के लिये आठ आने तक मिल जाते थे।

आठ वर्ष की आयु में शेरदा (sher da anpad) ने किसी महिला शिक्षिका के घर पर काम किया। और इस शिक्षिका ने जिसे वह बचुली मास्टरनी कहते थे ने उन्हे अक्षरों का बोध कराया। चार साल उनके वहां बिताने के बाद शेरदा अपने भाई के साथ आगरा चले गये। उनके भाई रोजगार कार्यालय में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद पर कार्य कर रहे थे। और वहां पर वह शुरूवाती एक वर्ष घूमते ही रहे। एक ​दिन अचानक उन्हे पता चला कि आर्मी की भर्ती हो रही है तो वह आर्मी भर्ती के कार्यालय पहुंच गये। और वहां बच्चा कंपनी की भर्ती में लाइन में लग गये। वहां भर्ती कर रहे अफसर ने उन्हे एक अखबार पढ़ने को दिया तो उन्होने उसे पूरा पढ़कर सुना दिया और 31 अगस्त 1950 को उन्हे बच्चा कंपनी में भर्ती कर लिया गया।

‘म्यर ग्वल-गंगनाथ/ मैहूं दैण है पड़ी/ भान मांजणि हाथ/ रैफल ऐ पड़ी।’

जहां से उन्हे मेरठ भेजा गया। बच्चा कंपनी में चार साल गुजारने के बाद बालिग होने पर वह फौज में सिपाही बन गये। वहां उन्हे जालंधर भेजा गया। जालंधर से गाड़ी चलाना सीखने के बाद उन्हे पोस्टिंग मिल गई। इसके बाद ड्रयूटी में वह झांसी उसके बाद जम्मू कंश्मीर चले गये। 12 वर्ष वहां ​बिताने के बाद वह महाराष्ट के पूना चले गये। अगर यह कहें कि पूना शहर ने उनके अंदर के कवि को बाहर निकाला तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी।

1962 में शेरदा (sher da anpad) का ट्रांसफर पूना हो गया उस समय भारत की चीन से लड़ाई चल रही थी। यही उनकी मुलाकात युद्व में घायल हुए लोगों से हुई और उनसे उन्होने युद्व के किस्से सुने तो शेरदा को लगा कि इसपर एक किताब लिखनी चाहिये। और उनकी पहली किताब ‘ये कहानी है नेफा और लद्दाख की’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इस किताब को जवानों न हाथों हाथ लिया। पूना में कुमाऊं-गढ़वाल और नेपाल की महिलाओं को कोठों में देखकर उन्हे बड़ा दुख हुआ और यह दुख उनकी दूसरी किताब ‘दीदी-बैंणि’ के रूप में लोगों के सामने आया। इस काव्य संग्रह से एक अंश आप भी पढ़िये।

सुण लिया भला मैसो/ पहाड़ रूनैरो/ नान-ठुल सब सुणो/ यौ म्यरौ कुरेदो/ दीदी-बैंणि सुण लिया/ अरज करुंनू/ चार बाता पहाड़ा का/ तुम संग कुनूं/ चार बात लिख दिनूं/ जो म्यरा दिलै में/ आजकल पहाड़ में/ हैरौ छौ जुलम/ नान ठुला दीदी-बैंणि/ भाजण फै गई/ कतुक पहाडक़ बैंणि/ देश में एै गयी/ भाल घर कतुक/ हैगी आज बदनाम/ जाग-जाग सुणि/ नई एक नई काम।’

एक कविता और पढ़ियें

‘गरीबी त्यर कारण/ दिन रात नि देखी/ गुल्ली डंडा देखौ/ शेर दा कलम-दवात नि देखी।’
इसक बाद से मानों उनको कविता लिखने का सुर लग गया। इसी बीच पेट में अल्सर हुआ तो मेडिकल ग्राउंड पर उन्हे रिटायर कर दिया गया और वह अल्मोड़ा लौट गाये। अल्मोड़ा आने पर कविता के रूप में उनकी अभिव्यक्ति इस तरह दिखी।

‘पुज गयों अल्माड़ गौं माल/ तब चाखि मैन अल्माड़कि/ चमड़ी बाल।’

इसके बाद उनकी मुलाकात कॉलेज में कवि चारु चंद्र पांडे जी से हुई । उन्होने ही शेरदा (sher da anpad) की मुलाकात प्रसिद्व रगंकर्मी बृजेन्द्र लाल साह से कराई। जब वह बृजेन्द्र लाल साह से मिले तो साह जी ने कहा कि आज तो मैं कहीं जा रहा हूं, किसी दिन संडे को आना। उसके बाद इतवार के दिन बृजेन्द्र लाल साह के पास गये और उन्हे अपने जीवन की पहली कविता सुनाई। कविता थी- ‘नै घाघरि/ नै सुरपाल/ कसि काटीं ह्यून हिंगाव।’ कविता सुनकर साह जी बड़े प्रभावित हुए और उन्होने शेर​ सिंह (sher da anpad) को होली के मौके पर होने वाले कार्यक्रम में न्यौता दिया। होली पर उनकी ​कविता ने सभी को प्रभावित किया बोल थे। ‘होई धमकी रै चैत में/ सैंणि लटक रै मैत में।’

इसके बाद तो मानो शेरदा (sher da anpad) ने पीछे मुड़कर नही देखा। इसके बाद उनका चयन नैनीताल में खुले ”गीत एवं नाटय प्रभाग” में हो गया। गीत एवं नाटय प्रभाग में काम करने के दौरान शेरदा ने काफी ​कवितायें लिखी और उनकी कवितायें लोगों द्वारा सराही भी गई। इसके बाद आकाशवाणी लखनऊ में भी उन्हे बुलाया जाने लगा।

उनका एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ।

म्यर हंसी हुड़कि बजाला बमाबम/ कुरकाती बिणाई मैंलैकि लगूंल/ मेरी सुआ हंसिया नाचली छमाछम/ अलग्वाजा बांसुई मैंलैकि बजूंला।’

शेरदा ने ‘दीदी-बैंणि’,कहानी है नेफा और लद्दाख की, ‘हसणैं बहार’, ‘हमार मै-बाप’, ‘मेरी लटि-पटि’, ‘जांठिक घुंघुर’, ‘फचैक’ और ‘शेरदा समग्र।’ किताबे लिखी। शेरदा अनपढ़ और उनकी रचनाओं पर कुमाऊं विश्वविद्यालय में कई छात्रों ने शोध भी किया। ‘हंसणैं बहार’ और ‘पंच म्याव’ नाम से निकले उनके दो कैसेट भी खूब मशहूर हुए।

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शेरदा समग्र के विमोचन के मौके पर शेरदा अनपढ़

हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश से सम्मानित शेरदा (sher da anpad) को उत्तराखंड शोध संस्थान द्वारा उत्तराखंड संस्कृति संरक्षण सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। 20 मई को शेरदा की आंठवी पुण्यतिथि है। शेरदा की स्मृति में उनके ज्येष्ठ पुत्र आनंद सिंह बिष्ट, पुत्रवधू शर्मिष्ठा बिष्ट और उनके प्रशंसकों ने उनके स्मरण हेतु उनका गीत “प्यारी गंगा रे मेरी” रिकॉर्ड किया है। इसमें स्वर शर्मिष्ठा बिष्ट व नितेश बिष्ट के गीत के साथ शेरदा के गांव, उनके चित्रो में उनके परिजन, कार्यक्रमों व सम्मान की स्मृतियां समांई हुई है।
हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश से सम्मानित शेरदा को उत्तराखंड शोध संस्थान द्वारा उत्तराखंड संस्कृति संरक्षण सम्मान से सम्मानित किया गया था।

गीत एवं नाटय प्रभाग से सेवानिवृत्त होने के बाद शेरदा हल्द्वानी में रहने लगे। जीवन के अंतिम समय उन्होने अपने परिवार के साथ वही गुजारें। और आठ वर्ष पहले आज ही के दिन उन्होने इस संसार को अलविदा कह दिया।