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लुप्त होने लगी स्वांग (swang) की कला
ललित मोहन गहतोड़ी
विलुप्ति की कगार पर खड़ी हमारे मनोरंजन की सबसे पहली कड़ी स्वांग (swang) रचने की परंपरा अब सिमटने लगी है। पहले मनोरंजन के साधनों की कमी के कारण अनेक स्वांगी विधा के जानकार कलाकार विभिन्न अवसरों में स्वांग (swang) रचकर लोगों का मनोरंजन करते थे। वर्तमान में मनोरंजन के अन्य आधुनिक साधनों के चलते यह विधा धीरे धीरे अब समाज से दूर होती जा रही है।
आज भी जब किसी मजाकिया व्यक्ति की बात सामने आती है तो उसके द्वारा विभिन्न अवसरों पर रचे गये स्वांग (swang) की बात सामने आती है। प्रत्येक गांव में एक ना एक व्यक्ति आज भी इस हुनर का धनी रहा है पर अब इस तरह स्वांग रचकर पारंपरिक त्योहारों, आयोजनों आदि के अवसर अपनी विधा दिखाने से अधिकतर स्वांगी दूरी बनाने लगे हैं।
जो व्यक्ति स्वांग रचता है स्थानीय भाषा में उक्त व्यक्ति को स्वाग्या कहा जाता है और वह उस समय ग्रामीणों के मनोरंजन का भरपूर साधन हुआ करता था।। नित नये गप्प,समाचार, कथा-कहानी, लतीफे-चुटकुले आदि के अलावा अपनी विशेष पोशाक पहनकर लोगों को सुनाता तो खड़े-खड़े लोग हंसते-हंसते लोटपोट होने लगते। अब कभी-कभार रामलीला और होलियों मेंं ही कहीं कहीं इस एकमात्र प्राचीन विधा को कुछेक स्वाग्या महज जिंदा रखे हुए हैं।