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जर्मनी के नए जलवायु लक्ष्य कराएंगे 2030 तक कोयले का फेज़ आउट

Newsdesk Uttranews
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निशांत सक्सेना-

फिलिप लिट्ज़ और नगा न्गो थ्यू, अगोरा एनर्जीवेंडे
अब, जब G7 देशों ने साफ़ कर दिया है कि वो कोयला की फाइनेंसिंग नहीं करेंगे, तब चीन ही एक आखिरी सहारे की शक्ल में दुनिया के सामने दिखता है। मगर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अप्रैल में अमेरिकी जलवायु शिखर सम्मेलन में यह भी साफ़ कर दिया है कि 2025 तक कोयले की खपत को कम करने की बहुत अधिक संभावना है।

चीन, भारत, जापान और दक्षिण कोरिया वो चार एशियाई देश हैं जो एशिया में कोयले की मांग को पारंपरिक रूप से बल देते रहे हैं। चीन, दक्षिण कोरिया और जापान द्वारा उनके नेट ज़ीरो उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा के साथ, भारत और अन्य छोटे एशियाई देशों से कोयले की मांग पर्याप्त रूप से पूरी नहीं होगी। इसका मतलब है कि एशिया में कोयले की मांग स्थिर होने और उसमें गिरावट शुरू होने में 4 साल से भी कम का समय बचा है।

यहां ये कहना गलत नहीं होगा कि जर्मनी में पहले किया गया एनर्जी ट्रांजीशन तकनीकी नवाचार के माध्यम से एशियाइन एनर्जी ट्रांजीशन में मदद कर सकता है और इकनॉमीज ऑफ़ स्केल की मदद से रिन्यूएबल ऊर्जा की लागत को कम कर सकता हैं। जर्मनी में लिग्नाइट और हार्ड कोल से बिजली उत्पादन पिछले पांच वर्षों में आधा कर दिया गया है। 2020 में, देश के ऊर्जा उत्पादन का 40 प्रतिशत से अधिक जीवाश्मों से आया है जिसमें लिग्नाइट और हार्ड कोयले का योगदान 23 प्रतिशत है।

29 अप्रैल को फेडरल कोंस्टीटूशनल कोर्ट (संघीय संवैधानिक न्यायालय) का निर्णय जर्मन सरकार को क्लाइमेट एक्शन एक्ट (जलवायु कार्रवाई अधिनियम) में सुधार करने के लिए बाध्य करता है। परिणाम न केवल कड़े क्लाइमेट टारगेट्स हैं, बल्कि उच्च CO₂ कीमतों से लेकर कोयला बिजली को और जल्द समाप्त करने तक क्लाइमेट न्यूट्रैलिटी के लिए उचित उपायों पर अतिदेय बहस भी है।

अप्रैल में, जर्मनी की सर्वोच्च अदालत ने फैसला सुनाया कि देश की जलवायु कार्रवाई को बढ़ाया जाना चाहिए। अब, सरकार ने ड्राफ्ट संशोधनों के साथ जवाब दिया है जो जर्मनी की क्लाइमेट एक्शन एक्ट को दुनिया भर में सबसे महत्वाकांक्षी कानूनों में से एक बना देगा। इसके साथ ही बढ़ती CO₂ कीमतें कोयले के फेज़ आउट को 2038 की जगह 2030 तक करा देगा।

29 अप्रैल को फेडरल कोंस्टीटूशनल कोर्ट (संघीय संवैधानिक न्यायालय) का निर्णय जर्मन सरकार को क्लाइमेट एक्शन एक्ट (जलवायु कार्रवाई अधिनियम) में सुधार करने के लिए बाध्य करता है। परिणाम न केवल कड़े क्लाइमेट टारगेट्स (जलवायु लक्ष्य) हैं, बल्कि क्लाइमेट न्यूट्रैलिटी (जलवायु तटस्थता) के लिए उचित उपायों पर अतिदेय बहस भी है– उच्च CO₂ कीमतों से लेकर कोयला बिजली को और जल्द समाप्त करने तक।

आखिरकार, एक बात निश्चित है: यदि जर्मनी अपने जलवायु लक्ष्यों को गंभीरता से लेता है, तो उसे 2030 में कोयले को समाप्त करने की आवश्यकता है, न कि योजना के अनुसार 2038 तक। दुनिया की सबसे ज़रूरी ऊर्जा संस्था, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी) ने हाल ही में अपनी नई रिपोर्ट, “2050 तक नेट ज़ीरो,” में वैश्विक संदर्भ के लिए इस प्रवृत्ति की पुष्टि की है : पेरिस जलवायु समझौते का अनुपालन करने के लिए, OECD (ओईसीडी) देशों को 2030 तक कोयले से चलने वाले बिजली उत्पादन को रोकना होगा।

पर चांसलर एंजेला मर्केल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अधिक महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य के बावजूद वो कोयला फेज़-आउट अधिनियम में संशोधन करने का इरादा नहीं रखती हैं। उनके इस इरादे की संभावित मुख्य वजह वित्तीय है। दरअसल बिजली संयंत्रों के तेज़ी से बंद होने से बिजली संयंत्र संचालकों द्वारा उच्च मुआवज़े की मांग हो सकती है। जर्मन सरकार ने फेज़-आउट समझौता वार्ता में भुगतान के लिए अनुबंधित रूप से प्रतिबद्ध किया है।

दो कारणों से, जर्मनी में कोयला फेज़-आउट 2030 तक पूरा होने की संभावना है- कोयला फेज़-आउट अधिनियम में औपचारिक संशोधन के बैगैर भी : उच्च कार्बन मूल्य और राष्ट्रीय और यूरोपीय संघ के स्तर पर अधिक महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य। पहले तो यूरोपियन एमिशन्स ट्रेडिंग स्कीम (यूरोपीय उत्सर्जन व्यापार योजना) के तहत CO2 अलाउंसेज़ (भत्तों) की कीमत जनवरी 2020 में लगभग 27 यूरो प्रति टन CO2 से बढ़कर मई 2021 में 50 यूरो से अधिक हो गई है। इस कीमत पर, कोयला बिजली का सबसे महंगा स्रोत बन जाता है। इसके अलावा, पूरे यूरोप में वर्षों से रिन्यूएबल ऊर्जा को लगातार बढ़ाया गया है। इसके विपरीत, यूरोपीय संघ में कोयला बिजली की हिस्सेदारी 2015 और 2020 के बीच लगभग आधी हो कर दी गई थी।

यह अभी तक स्पष्ट नहीं है कि CO2 की कीमतों में मौजूदा बढ़ोतरी कब तक चलेगी। मूल्य अटकलें निश्चित रूप से तस्वीर का हिस्सा हैं। पर लंबी अवधि की प्रवृत्ति स्पष्ट है: 2030 तक, संभावित उतार-चढ़ाव के बावजूद, विश्लेषकों को वर्तमान में लगभग 75 से 110 यूरो प्रति टन CO2 की कीमत की उम्मीद है। सबसे आधुनिक और कुशल लिग्नाइट बिजली संयंत्र भी तब घाटे का सौदा हैं।

ब्रुसेल्स में, सदस्य राज्यों ने हाल ही में यूरोपीय ग्रीन डील के भीतर 1990 की तुलना में 2030 तक 55 प्रतिशत कम उत्सर्जन के अधिक महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य पर सहमति व्यक्त की है। सांसद यूरोपियन एमिशन्स ट्रेडिंग स्कीम में भी सुधार कर रहे हैं। उत्सर्जन अलाउंसेज़ की मात्रा को कम किया जा सकता है, और हीट (गर्मी) और परिवहन को एकीकृत किया जा सकता है।

दूसरे, तेज़ी से कोयला फेज़-आउट की संभावना है, क्योंकि जर्मन सरकार को ऊर्जा उद्योग के लिए अपने महत्वाकांक्षी लक्ष्य पर कार्य करने की आवश्यकता है। क्लाइमेट एक्शन एक्ट ऊर्जा क्षेत्र के लिए 2030 तक शेष बजट केवल 108 मिलियन टन रखता है, जब तक कम से कम 70 प्रतिशत रिन्यूएबल बिजली की आवश्यकता होगी। शेष 30 प्रतिशत अपशिष्ट भस्मीकरण और काफ़ी कम कार्बन-गहन जीवाश्म गैस के लिए आरक्षित है।

इसलिए जर्मनी को 2030 तक कोयले को फेज़आउट करने के लिए उचित उपायों को लागू करना चाहिए, जिसमें न केवल यूरोपीय उत्सर्जन व्यापार की सुरक्षा के लिए एक राष्ट्रीय कार्बन फ्लोर मूल्य शामिल हो, बल्कि लगातार पवन और सौर कैपेसिटी एडिशन्स (क्षमता वृद्धि) भी शामिल हो। लिग्नाइट क्षेत्रों में संरचनात्मक परिवर्तन को भी तेज़ किया जाना चाहिए।

एक न्यायपूर्ण परिवर्तन की नींव पहले ही रखी जा चुकी है: संघीय सरकार ने प्रभावित राज्यों को आवश्यक वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए हैं। ट्रेड यूनियनों के इनपुट के साथ, प्रभावित कोयला खनिकों के लिए एक व्यापक समर्थन पैकेज तैयार किया गया है। सभी को अनावश्यक सामाजिक कठिनाइयों से बचाना है, और युवा कर्मचारियों को अन्य उद्योगों के लिए आगे प्रशिक्षण प्राप्त होगा। जर्मन जलवायु नीति को अब इस संरचनात्मक परिवर्तन को सक्रिय रूप से आकार देना चाहिए ताकि कोयला क्षेत्रों में परिवर्तन ज़्यादा तेज़ी से हो सके।

                                            Climatekhani से साभार