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Facebook का अर्थशास्त्र भाग 5

उत्तरा न्यूज डेस्क
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दिल्ली बेस्ड पत्रकार दिलीप खान का फेसबुक के बारे में लिखा गया लेख काफी लम्बा है और इसे हम किश्तों में प्रकाशित कर रहे है पेश है पांचवा भाग

19 साल होने को है, चलो कंपनी बनाए

असल में सोशल-नेटवर्किंग-साइट-जैसा-कुछ तो उसे पसंद आया लेकिन वह अलग कलेवर में चीजों को उतारना चाहता था, वह अपने करीबी दोस्तों के साथ नए तरह का काम शुरू करना चाहता था। उसने दोस्तों को राजी करने के लिए एक डेमो तैयार किया।

असल में वह डेमो (नमूना) फेसबुक का आद्य रूप था। मौजूदा फेसबुक से काफी हद तक मिलता-जुलता। नाम रखा गया- द फेसबुक। द फेसबुक ने लोगों को काफी प्रभावित किया। फेसमैस पीछे छूट गया। सप्ताहांत की मस्ती से शुरू हुआ सफर अब थोड़ा ज्यादा बड़ा, ज्यादा फंक्शन समेटे और कलेवर में फेसमैस से ज्यादा गंभीर हो गया।

हॉर्वर्ड कनेक्शन के बाद मार्क के दिमाग में यह भर आया था कि सोशल नेटवर्किंग साइट की दुनिया में कुछ बड़ा काम करना है। सोशल नेटवर्किंग साइट की वह अपनी कंपनी बनाना चाहता था। एक दिन पिज्जा खाने के बहाने उसने अपने मौजूदा रुममेट डस्टिन मोस्कोविच और कुछ अन्य दोस्तों को एक रेस्त्रां में जमा किया और बतकही के दौरान उसने सोशल नेटवर्किंग वाली अपनी योजना साझा की।

मार्क ने जोर देकर कहा कि वह एक अदद कंपनी खोलना चाहते हैं। एक दिन, दो दिन, फिर लगभग रोजाना। लोगों को हिचकिचाहट थी। शक था। उसकी योग्यता पर शक करने की हालांकि ज्यादा गुंजाइश बनती नहीं थी, लेकिन योजना पर शक करने के वास्ते पूरा मैदान खुला था।

शक इस बात को लेकर था कि 19 साल का ऐसा लड़का जिसके होठों के ऊपर मूंछ तक ठीक से नहीं पनपी है, कैसे इतनी बड़ी वेबसाइट को कंट्रोल करेगा और किस तरह चीजों को अपडेट कर पाएगा। मार्क उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “हम कॉलेज से जब मटरगश्ती करने बाहर निकलते थे, तो दोस्तों से बात करते थे कि क्यों न भविष्य में कोई ऐसी चीज बनाई जाए जिसके जरिए हम अपने मन की सारी चीजें आपस में बांट सके। लेकिन लोगों को यकीन नहीं होता कि कोई इतनी कम उम्र में कंपनी भी बना सकता है।” लेकिन जिद थी, तो थी।
फेसबुक की दुनिया में आपका स्वागत है

इस तरह एक दिन मार्क की सलाहियत काम आई। डस्टिन मोस्कोविच, क्रिस ह्यूग्स और एडुअर्डो सैवेरिन तैयार हो गए। द फेसबुक को हॉर्वर्ड के लिए खोल दिया गया। यह 4 फरवरी 2004 का दिन था। जून 2004 तक एक कमरे से यह चलता रहा।

हॉर्वर्ड के एक छोटे से कमरे से चलने वाली इस साइट ने कई शहरों में तहलका मचा दिया। सुधार और लगातार सुधार होते रहे। पहली मर्तबा ऐसा हुआ जिसमें एक यूजर्स दूसरे यूजर्स के साथ बतियाने और अपने मन की बात साझा करने के अलावा अपने प्रोफाइल पेज पर जाकर फोटो भी शेयर कर सकता था। द फेसबुक चल निकला।

मार्क बड़े हो गए। हॉर्वर्ड का कोना-कोना इस दिन से मार्क जकरबर्ग नामक प्राणी को जानने लगा। लेकिन, फेसबुक को हॉर्वर्ड की चहारदीवारी में सिमटे रहना मंजूर नहीं था। चर्चा चारों ओर तेजी से फैल रही थी। जल्द ही अमेरिका के ज्यादातर विख्यात विश्वविद्यालयों और अकादमिक संस्थानों से मार्क जकरबर्ग के पास अनुरोध आने लगे कि द फेसबुक का दरवाजा उन लोगों के लिए भी खोला जाय।

एक दिन मार्क कक्षा से निकल कर जब उस अदद कमरे में दाखिल हुए जहां से द फेसबुक का पूरा कारोबार चलता था तो उन्होंने देखा कि समय के उस खास बिंदु पर हॉर्वर्ड में पढ़ने वाले 10 फीसदी से ज्यादा लोग द फेसबुक पर ऑनलाइन थे। मार्क की खुशी का ठिकाना न रहा। यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। मार्क को समझ में आ गया कि क्यों बगल के विश्वविद्यालय के लोग मार्क से अनुरोध कर रहे हैं। जल्द ही मार्क ने स्टेनफोर्ड, एमआईटी, कोलंबिया, न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी, ब्राउन, येल यूनिवर्सिटी के परिसर को फेसबुक की दुनिया में दाखिला दे दिया।

2005 में 2 लाख डॉलर में फेसबुक डॉट कॉम का डोमेन खरीदने के साथ ही द फेसबुक का पूरा कलेवर बदल गया। नाम बदल दिया गया। बदलाव के बाद जो बचा, दुनिया उसे आज फेसबुक के नाम से जानती है। द फेसबुक से ‘द’ कतर दिया गया। बच गया सिर्फ फेसबुक। छोटा, चुस्त और लोकप्रिय नाम। वेलकम टू द वर्ल्ड ऑफ फेसबुक!

लेकिन फेसबुक बनते ही हॉर्वर्ड कनेक्शन वाले विंकलवॉस भाईयों ने मार्क जकरबर्ग पर यह इल्जाम लगाया कि असल में मार्क ने उनके आइडिया की चोरी की है। चोरी और श्रेय का यह विवाद लंबे समय तक चला, तीखे रूप में। चार साल बाद फेसबुक ने 6 करोड़ 50 लाख डॉलर देकर कैमरॉन और टेलर विंकलवॉस से मामला रफा-दफा कर लिया लेकिन अभी भी दोनों भाई बीच-बीच में फेसबुक पर अपनी दावेदारी जताते रहते हैं  ………………………… जारी

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