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उत्तराखण्ड – तबादला एक्ट से क्यों घबरा रहा शिक्षा विभाग

उत्तरा न्यूज डेस्क
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उत्तराखण्ड राज्य बने 18 साल हो चुके हैं। भारतीय संविधान के अनुसार 18 वर्ष की आयु का व्यक्ति वयस्क माना गया है और उसको वोट देने का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है। राजनीतिक दृष्टिकोण से तो काफी वयस्क हो चुका प्रदेश अभी भी पर्ववतीय राज्य की अवधारणा के अनुरुप कार्य करने में काफी पीछे लगता है। मात्र 13 जनपदों का छोटा से प्रदेश इन 18 वर्षों में राजनैतिक उठापटक और मुख्यमंत्रियों ,मंत्रियों की दौड़ तक सीमित रह गया है।विकास के वादे हर सरकारें करती हैं मगर पहाड़ और मैदान के बीच असंतुलन बना हुआ है।

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पलायन जो सबसे बडा़ दर्द है पहाड के सीने पर उसके कारणों को समझने में हमारी सरकारी मशीनरी विफल रही है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी काफी असंतुलन बना हुआ है।अस्पताल और स्कूल तो प्रचुर मात्रा में खुले हैं मगर पहाड़ के अस्पतालों में डाक्टर नहीं और पहाड़ के स्कूलों में शिक्षक नहीं ? गैरसैण राजधानी का मुद्दा हो या लोकसेवको के लिए वार्षिक स्थानांतरण एक्ट सरकारें ठोस निर्णय लेने में परहेज करती आ रही हैं जिसका सीधा असर पहाड़ की जनता और यहाॅं पर कार्यरत शिक्षक और कर्मचायिों पर पड़ता है।13 जनपदों के राज्य में 11 जिले पहाडी़ हैं और विडंबना है कि इन जिलों को पलायन के अलावा कुछ नहीं मिला है। 18 वर्षों से राजधानी और 10 वर्षों से शिक्षा विभाग में सुगम-दुर्गम का खेल चल रहा है।स्कूलों के कोटिकरण के नाम पर हर साल हल्ला होता आ रहा है मगर समस्या के समाधान की उम्मीद लगभग शून्य है। अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए सुगम और दुर्गम के मानक अलग -अलग है । जो कार्यस्थल कर्मचारियों के लिए सुगम हैं वही अधिकारियों के लिए दुर्गम ! इस दुर्गम-सुगम के खेल में सबसे ज्यादा प्रभावित सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में 20 से 25 वर्ष एक ही स्थान पर कार्यरत शिक्षक हो रहे है। इन 18 वर्षों में कभी भी शिक्षको के लिए स्पष्ट और पारदर्शी तबादला नीति नहीं बन पाई जिस कारण ऊॅंची पहॅुंच और नेताओं के रिश्तेदारों का तो समय-समय पर तबादला मनचाहे स्थानों पर होता रहा और दुर्गम के शिक्षक अनाथों की तरह तबादला एक्ट को देखते -देखते रिटायर भी हो गये मगर सुगम में आने का उनका सपना अधूरा ही रह गया।

हर वर्ष अप्रैल-मई में स्थानांतरण के सपने दिखाये जाते हैं मगर जुलाई आते आते ये सपने भी टूट जाते हैं सरकारों की इस नीति के पीछे क्या कारण छिपे हैं किसी को मालूम नहीं इतना तो लगने लगा है कि पहाड़ के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है।सेवा शर्तें समान होने के बावजूद भी मैदान का शिक्षक,डाक्टर पहाड़ क्यों नहीं आना चाहता है?क्या पहाड़ इनके लिए मात्र पर्यटन स्थल बन कर रह गया है।आई0एस0 ,पी0सी0एस0 अधिकारी भी इसी तरह पहाड़ से परहेज करते तो पहाडी़ जिलों के प्रशासन का क्या हाल होता?

इस वर्ष जब तबादला एक्ट पारित हो गया और स्थानांतरण की प्रक्रिया गतिमान थी, विभाग द्धारा सुगम स्कूलों और दुर्गम के स्कूलों की जो रिक्तियाॅं जारी की हैरान करने वाली थी।दुर्गम के विद्यालयों में 60 प्रतिशत पद खाली और सुगम(मैदानी जिलों) में लगभग शतप्रतिशत पद भरे हुए ।शिक्षा जैसे संवेदनशील क्षेत्र में मैदान और पहाड़ के बीच इतनी बडी़ खाई पहाड़ के जनप्रतिनिधियों के साथ-साथ शिक्षा महकमें के लिए भी एक प्रश्न चिन्ह खडा़ करता है। अगर तबादला एक्ट मूल रुप में लागू हो जाता तो पहाड़ के स्कूलों में भी शिक्षकों की कमी दूर हो जाती क्योकि एक्ट की धारा-7 के अनुसार सुगम में 4 साल से अधिक की अवधि तक कार्यरत शिक्षकों का अनिवार्य रुप से दुर्गम में तबादला हो जाता।लेकिन अचानक एक्ट में बदलाव कर अनिवार्य तबादलों की सीमा 10 प्रतिशत मात्र कर दी गयी है।इससे एक बार फिर दुर्गम पहाड़ के स्कूलों में मैदानी क्षेत्रों के शिक्षकों को चड़ने से बचाने का काम किया गया है।20 हजार से ऊपर अनिवार्य तबादले की परिधि में आने वाले शिक्षकों के लिए 10 प्रतिशत स्थानान्तरण ऊॅंट के मुॅंह में जीरे के समान है।

एक्ट में 10 प्रतिशत की सीमा तय करने से एक बार फिर दुर्गम पहाड़ के शिक्षक अपने को ठगा महसूस कर रहे है।दुर्गम के शिक्षको में काफी निरासा है तथा इनका परिवार भी काफी व्यथित है क्योंकि हर साल उम्मीद रहती है कि तबादला हो जायेगा मगर आते -आते खोदा पहाड़ निकला चुहा वाली कहावत सिद्ध होती है।सरकारों को चाहिए कि शिक्षक पहाड़ और मैदान की भौगौलिक परिस्थितियों से परिचित हों ताकि बच्चों को अच्छी तरह उत्तराखण्ड के भौगौलिक स्थिति तथा संस्कुति से रुबरु हो सकें।