shishu-mandir

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 19

Newsdesk Uttranews
10 Min Read
Screenshot-5

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

new-modern
gyan-vigyan

नई पाठ्यपुस्तकें और शिक्षक प्रशिक्षणों की गुणवत्ता

एनसीएफ 2005 के आलोक में स्कूली शिक्षा के लिए एनसीईआरटी द्वारा तैयार की गई पाठ्य पुस्तकों की जहाँ शिक्षाविदों ने खूब तारीफ की है वहीं आम शिक्षकों के गले ये किताबें नहीं उतर रहीं हैं। इन किताबों को लेकर उनके अनेक प्रश्न और आशंकाएं हैं। शिक्षक अभी तक इन किताबों को पढ़ाते हुए अपने आपको सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं। किताबों में शामिल विविध गतिविधियों के औचित्य को वे समझ नहीं पाए हैं। ये किताबें उनकी परम्परागत शिक्षण पद्धति को बाधित और सोच को विचलित कर रही हैं। जबकि अपने साक्षात्कार की एक पुस्तक ‘शिक्षा,भाषा और प्रशासन’ में वरिष्ठ शिक्षाविद् प्रेमपाल शर्मा ने एक बार फिर इन किताबों की प्रशंसा की है। वह कहते हैं कि सिर्फ स्कूली बच्चों को ही नहीं बल्कि हर अभिभावक को, सामान्य जन को ये किताबें पढ़नी चाहिए। उनका विश्वास है कि हर सरकारी व निजी स्कूल में यदि ये किताबें लगाई जाएं तो शिक्षा का परिदृश्य बदला जा सकता है।
प्रेमपाल शर्मा का यह विश्वास हवाई नहीं है, उसके कुछ ठोस कारण हैं। वास्तव में जहां तक मेरा व्यक्तिगत अनुभव है, मैंने इतनी सुचिंतित, बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ से लैस, रोचक और बहुआयामी किताबें पहले नहीं देखी। इन पुस्तकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये सूचनाओं, तथ्यों, आंकड़ों आदि पर जोर न देकर बच्चे की अवधारणा और समझ को विकसित करने पर बल देती हैं। रटने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करती हैं। बच्चे को सोचने-समझने-करने का अधिक अवसर प्रदान करती हैं। पहले से तैयार ज्ञान का कोई पैकेज नहीं थोपती हैं बल्कि संग्रहण, वर्गीकरण, अन्वेषण और विश्लेषण करते हुए ज्ञान-निर्माण की दिशा में बढ़ने को प्रेरित करती हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि ये किताबें इस बात को स्थापित करने में सफल रही हैं कि अंतिम सत्य जैसी कोई बात नहीं होती है इसलिए हमेशा नई खोज जारी रहनी चाहिए। इस तरह कल्पनाशील गतिविधियों और सवालों के माध्यम से बच्चों को अपने अनुभवों के इस्तेमाल का मौका देती हैं। ये किताबें सधे-सधाए और तयशुदा उत्तर नहीं नहीं देती हैं बल्कि बच्चों को सोच-समझकर अपना मत खुद बनाने के लिए प्रेरित करती हैं।
इन पुस्तकों के माध्यम से यह कोशिश की गई है कि बच्चों को मानसिक दबाब और बोरियत से बाहर निकाल कर पढ़ने का सच्चा आनंद लेने दिया जाय। बच्चों की समूह में अपने हाथों कार्य करने की इच्छा का सम्मान किया जाय। बहस और प्रश्न करने के अवसर प्रदान किए जाए ताकि विश्लेषण क्षमता का विकास करते हुए भविष्य के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित कर सकें। यह पहली बार हुआ है कि किताबों में छोटी-छोटी कहानियों, अनुभवों, अखबारी कतरनों और कार्टूनों को शामिल कर विषयवस्तु को रोचक, आनंददायक, जीवंत, संप्रेषणीय और प्रभावशाली बनाया गया है।
ये पुस्तकें इस तथ्य पर आधारित हैं कि बच्चे सीख और उपदेश की अपेक्षा आपसी बातचीत से ही अधिक तेजी से सीखते हैं। इसलिए इनमें स्थान-स्थान पर ऐसी गतिविधियां दी गई हैं, जिनसे आपसी बातचीत के अवसर सृजित होते हैं। यह शिक्षण का एक लोकतांत्रिक तरीका भी है। इन पुस्तकों में ऐसे अनेक झरोखे हैं, जो बच्चों को ज्ञान के विस्तृत आकाश में उड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। बच्चों को पुस्तकालय का इस्तेमाल करने को प्रोत्साहित करती हैं। इस तरह उनके भीतर स्वाध्याय की प्रवृत्ति विकसित करती हैं। अखबार, दूरदर्शन, रेडियो, इंटरनेट जैसे संचार साधनों को भी पाठ्यपुस्तक के साथ जोड़ देती हैं, जिससे बच्चे सूचना की एक बड़ी दुनिया से जुड़ते हैं और इन्हें स्कूली शिक्षा के हिस्से के रूप में देखने लगते हैं। इससे बच्चों का विजन व्यापक होता जाता है। उनको समझ में आता है कि सीखना स्कूल की बंद दीवारों तक सीमित नहीं है बल्कि दुनिया अपने-आप में एक बड़ा स्कूल है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 का मानना है कि बच्चे का समुदाय और उसका अपना परिवेश वह आरंभिक संदर्भ होता है, जहाँ बच्चा ज्ञान पाता है,और जिसमें उसके ज्ञान की महत्ता होती है। अपने परिवेश के साथ परस्परता में बच्चा ज्ञान अर्जित करता है और उसका अर्थ पाता है। अब तक की पाठ्यपुस्तकों में इस बात की उपेक्षा की जाती रही है। लेकिन ये किताबें बच्चे को अपने आसपास की दुनिया से जोड़ती हैं। घर और स्कूल के अंतराल को तोड़ती हैं। इसके पीछे तर्क है कि जब तक सीखने वाला पाठ्यपुस्तकों के पाठ को अपने जीवन संदर्भों से नहीं जोड़ पाता, ज्ञान तब तक सूचना ही बना रहता है। इन किताबों में इस बात की कोशिश की गई है कि वैश्विक परिदृश्य पर बात करते हुए बच्चों को उसके स्थानीय परिदृश्य से जोड़ा जाय ताकि वे अपने आसपास के संसार से अंतःक्रिया कर सकें। ऐसा होने पर बच्चे अपने आसपास के प्रति अधिक संवेदनशील हो पाएंगे।
इन किताबों के अभ्यास प्रश्न केवल जानकारी या सूचनाओं पर केंद्रित न होकर समझ पर अधिक आधारित हैं। उनसे केवल बच्चों का मूल्यांकन ही नहीं होता है बल्कि बच्चे कुछ और नई जानकारियों से भी अवगत होते जाते हैं।
इन किताबों को तैयार करते हुए एक और बात का ध्यान रखा गया है कि ज्ञान को विभिन्न विषयों की सीमा में न बांटकर समग्रता में देखा जाय। विभिन्न विषयों के अंतर्संबंध को इस तरह विकसित किया गया है कि ज्ञान का पारस्परिक संबंध सामने आ सके। इस तरह विषयों की दीवार को गिराया गया है।
संक्षेप में कहा जाय तो ये किताबें ज्ञान प्रदान करने के लिए नहीं ज्ञान निर्माण करने के लिए तैयार की गई हैं। ताकि बच्चे ज्ञान के ग्राहक मात्र न रहकर ज्ञान के निर्माता बन सकें। यह तभी संभव है जब स्कूल की दैनिक जिंदगी और कार्यशैली में फेरबदल हो। शिक्षण और मूल्यांकन के तरीके बदलें। ये पुस्तकें इस सब के लिए आधार तैयार करती हैं।
लेकिन दुःखद है कि उक्त तमाम खूबियों के बाबजूद ये किताबें शिक्षकों का विश्वास नहीं जीत पाई हैं। अधिकांश शिक्षकां के मुँह से यही सुनने को मिलता है कि नई पुस्तकें बहुत बेकार बनी हैं। इनमें कुछ भी जानकारी नहीं है। विषयवस्तु बहुत संक्षेप में है। अभ्यास प्रश्नों का अभाव है। पाठ के अंत में दिए गए अभ्यास प्रश्नों तक का उत्तर पाठ में नहीं मिलता है। ये किताबें पाठ्यपुस्तक जैसी कम कॉमिक्स जैसी अधिक लगती हैं, आदि-आदि। शिक्षकों की इस तरह की प्रतिक्रियाएं इस बात को बताती हैं कि जिन मार्गनिर्देशक सिंद्धातां को ध्यान में रखते हुए ये किताबें तैयार की गई हैं, उनसे शिक्षक अनभिज्ञ हैं। उन्हें अभी तक इन किताबों के प्रयोग करने का तरीका समझ में नहीं आया है। फलस्वरूप वे इन किताबों को किनारे रख रैफ्रेशर या गाइडों से, परम्परागत तरीकों से ही पढ़ा रहे हैं। दरअसल इन किताबों को पढ़ाने के लिए शिक्षकों को अतिरिक्त तैयारी और मेहनत करने की आवश्यकता है। उन्हें अपने को लगातार अद्यतन सूचनाओं-जानकारियों और अवधारणाओं से अपडेट करना जरूरी हो गया है। इसके लिए पाठ्यपुस्तकों में ही उनके लिए उपयोगी संदर्भ पुस्तकों का सुझाव भी दिया गया है। जब तक इन पुस्तकों के प्रयोग की समझ शिक्षकों में विकसित नहीं हो जाती है, तब तक पुस्तकों में किए गए बदलावों का कोई लाभ नहीं। अतः शिक्षकों को इन पुस्तकों में बदलाव किए जाने के पीछे निहित मंशा से अवगत कराया जाना बहुत जरूरी है अन्यथा सारे बदलाव धरे के धरे रह जाएंगे। इस उद्देश्य से शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम तो चलाए जा रहे हैं लेकिन देखने में आ रहा है कि जिन लोगों को शिक्षकों को प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी सौंपी जा रहीं है, उनकी ही शिक्षा और बालमन की समझ अधकचरी है। वे ही बदलाव के कारणों को अच्छी तरह नहीं समझ पाए हैं। वे इन पुस्तकों को लेकर शिक्षकों द्वारा उठाए गए प्रश्नों तथा आशंकाओं का उत्तर देने में असमर्थ हैं। यहाँ तक कि बहुत बार तो वे भी आम शिक्षकों के तर्कों का ही समर्थन करने लग जाते हैं। ऐसे में शिक्षक प्रशिक्षणों की गुणवत्ता पर ध्यान दिए जाने की बहुत आवश्यकता है।