शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 13

Newsdesk Uttranews
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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 13

शिक्षा की असफलता

शिक्षा की उपलब्धि केवल आंकड़ों से ही नहीं आंकी जा सकती है। आंकड़े तो बताते हैं कि आज देश की साक्षारता दर पिचहत्तर प्रतिशत से ऊपर चली गई लेकिन मूल्यों के स्तर पर हम पहले से भी पीछे गए हैं। आज भी हमारा समाज तमाम प्रकार की कट्टरताओं, पाखंडों, प्रदर्शनों, अंधविश्वासों, रूढ़िवादिताओं और अवैज्ञानिक मान्यताओं से ग्रसित है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज ’दाभोलकरों’ की हत्या नहीं होती और ’आसारामों’ के बचाव में लोग आगे नहीं आते। केदारनाथ की आपदा को धारी देवी की मूर्ति हटाए जाने या केदारनाथ धाम तक विधर्मी और छोटी जाति के लोगों के वहाँ जाने से नहीं जोड़ा जाता। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न इलाकों में औरतों को डायन मानकर उनकी हत्या नहीं की जाती। मास हिस्टिरिया का इलाज झाड़-फूंक या पूजा-हवन से नहीं किया जाता। बारिश न होने पर यज्ञ नहीं किए जाते। चर्चित विज्ञान लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी सही कहते हैं, ’’हम एक भी गांव या कस्बा ऐसा नहीं बना पाए हैं, जो ग्रहण, पशुबलि और डायन जैसे अंधविश्वासों से मुक्त हो ,लोग ऐसी दशा में धकेल दिए हैं, जहाँ अपने जीवन की हर उपलब्धि का श्रेय बाबाओं को दे रहे हैं।’’ गाँव तो छोड़िए दिल्ली जैसे महानगरों में लोग बीमारी का इलाज गणतुवा-ओझाओं से करवा रहे हैं। इस स्थिति को देखकर कभी-कभी तो यह लगता है कि भौतिक उन्नति की दृष्टि से भले हम 21वीं सदी में जी रहे हैं ,विज्ञान की अत्याधुनिक खोजों का लाभ उठा रहे हैं लेकिन मानसिक रूप से अभी भी 19वीं सदी में ही हैं।
चिंता की बात यह है कि पढ़े-लिखे लोग भी इस मानसिकता के शिकार हैं। अशिक्षित और गरीब लोगों का जादू-टोना, झाड़-फूंक पर अंधविश्वास के कारण तो समझ आते हैं। उनकी आर्थिक स्थिति इसके लिए जिम्मेदार है। आधुनिक सुविधाएं और प्रौद्योगिकी प्राप्त कर पाने की क्षमता उनके पास नहीं होती है, जिसके चलते वे इनका सहारा लेते हैं। यदि एक बीमार व्यक्ति के इलाज के लिए अस्पताल उपलब्ध नहीं होगा तो उसे झाड़-फूंक का सहारा लेना उसकी मजबूरी है। लेकिन पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के बारे में क्या कहा जाएगा? पहले यदि कोई व्यक्ति किसी विचार या व्यक्ति पर अंधआस्था रखता था तो उसके पीछे उसकी अज्ञानता मूल कारण थी। उसे सत्य का पता नहीं रहता था लेकिन आज तो सबकुछ जानते हुए भी उसे नहीं मानने की एक शातिराना जिद है। एक नकारवादी भाव है। विज्ञान ने जिन प्राकृतिक घटनाओं के कारणों से रहस्य उठा भी लिया है वे उन कारणों को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। बल्कि अपनी बात के पक्ष में नए-नए कुतर्क गढ़ते हैं। पिछले दो दशकों में इसकी गति और तेज हुई है। कैसी विडंबना है कि लोकतंत्र में रहते हुए भी हमारी जीवन शैली लोकतांत्रिक नहीं हो पायी है। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व तथा धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य किताबी होकर रह गए हैं। यह स्थिति हमारी शिक्षा पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है क्योंकि शिक्षा को ही मनुष्य के व्यवहार और मानसिकता में परिवर्तन का माध्यम माना जाता है। मूल्यों के निर्माण में शिक्षा की मुख्य भूमिका होती है। शिक्षा का स्वरूप जैसा होता है उसी तरह का समाज बनता है। जर्मनी में नात्सी और सोवियत संघ में साम्यवादी समाज बनाने में वहाँ की शिक्षा की भूमिका प्रमुख रही।
यह कहना गतल नहीं होगा कि हमारी शिक्षा वैज्ञानिक चेतना और लोकतांत्रिक मूल्यों का विकास करने में पूर्णतया असफल रही है। ’खुद सोचो, खुद समझो और ठीक लगे तो उसे मानो’ का विवेक नहीं पैदा कर पाई है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को स्वीकार किए हुए छः दशक बीत जाने के बाद भी हमारी शिक्षा ऐसी पीढ़ी नहीं तैयार कर पाई है, जो दाभोलकर के अंधविश्वास विरोधी आंदोलनों को असहमति होने के बावजूद सहज रूप से स्वीकार कर सके और आसाराम के कुकर्मों के खिलाफ खड़ी हो सके। कैसी विडंबना है कि अभी भी लोगों को अंधविश्वासों और रूढ़ियों का विरोध पच नहीं पा रहा है जबकि हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं, जिसमें संविधान ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना नागरिक का मूल कर्त्तव्य माना है।
इस पर विचार करने का समय आ गया है कि आखिर ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई हम आगे जाने की अपेक्षा पीछे की ओर क्यों जा रहे हैं? किताबों में बड़ी-बड़ी बातें लिखी होने के बावजूद वे जीवन से क्यों नदारत होती जा रही हैं? वह कौनसी ताकतें हैं जिन्होंने समाज में इस प्रतिगामिता को बढ़ाने व पालने-पोसने का काम किया है? यह विचारणीय है कि आखिर ऐसे लोग कैसे तैयार हो जाते हैं जो अंधश्रद्धा के चलते हुए अपनी धन-संपत्ति भी बाबाओं को दे देते हैं? उनके कुकर्मों तक का बचाव करने में भी किसी तरह की हिचक नहीं महसूस करते हैं? अपने जैसे ही किसी दूसरे मानव को ईश्वर स्वीकार कर लेते हैं? यह कैसी मानसिकता है? आखिर आदमी इतना अंधा कैसे हो जाता है?
दरअसल यह उन ताकतों की जीत है जो समाज में लगातार धर्माधंता, सांप्रदायिकता, कट्टरता, मिथकीयता, अंधश्रद्धा जैसे प्रतिगामी मूल्यों को बढ़ाना चाहते हैं। वर्षों से बोई जा रही उनकी यह फसल आज लहलहा रही है। धार्मिक संस्थाओं द्वारा दी जाने वाली शिक्षा बच्चों में मानवीय मूल्य तो नहीं विकसित कर पाई लेकिन अंधश्रद्धा, भावुकता, अवैज्ञानिकता तथा कट्टरपन बढ़ाने में जरूर सहायक हुई हैं। इन संस्थाओं द्वारा बच्चों के मन-मस्तिष्क में बचपन से ही एक अंधआस्था बोई जाती है, जिसमें तर्क और विश्लेषण के लिए कोई जगह नहीं होती है। प्रश्न पूछना यहाँ घोर अनुशासनहीनता समझा जाता है। गुरूवाणी ही अंतिम सत्य होती है। भाषा हो या गणित या कोई अन्य विषय, उनके द्वारा इन्हें भी अपनी संस्था की विचारधारा को थोपने का माध्यम बनाया जाता है। कुछ संस्थाएं तो दूसरे धर्म या संप्रदाय के प्रति घृणा फैलाने से भी नहीं हिचकती हैं। जैसा कभी हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ किया था। अगर आप इन संस्थाओं द्वारा तैयार पाठ्यपुस्तकों का अवलोकन करेंगे तो पता चल जाएगा कि ये अपनी विचारधारा और सद्गुरु के महिमामंडन करने हेतु कितनी सुनियोजित तरीके से काम करती हैं, जिममें ये पूरी तरह सफल भी हुई हैं। दरअसल इन संस्थाओं का मुख्य लक्ष्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार न होकर अपनी विचारधारा को फैलाना होता है। दूसरे धर्म या संप्रदाय के खिलाफ विषवमन करना होता है। ये एकतरफा और अतिरंजित तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं। एक काल्पनिक भय पैदा कर असुरक्षा का भाव पैदा करते हैं। आलोचनात्मक विवेक से इन्हें सख्त परहेज होता है। विश्लेषण करना नहीं बल्कि आस्था रखना सिखाया जाता है। ऐसी ताकतों को हमें पहचानना होगा और उन्हें एक्सपोज करना होगा। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब हम एक बार फिर ऐसे बर्बर युग में पहुँच जाएंगे जहाँ धर्म-संस्कृति के नाम पर मार-काट,हत्या-बलात्कार और संकीर्णता का कारोबार फलता-फूलता रहेगा।
यह बात सही है कि इसके लिए अकेले शिक्षण संस्थाएं जिम्मेदार नहीं है बल्कि परिवार, समाज, मीडिया भी इसके लिए बराबर के उत्तरदायी हैं। लेकिन इस बात को मानना ही पड़ेगा कि शिक्षण संस्था वह स्थान है जहाँ परिवार सहित तमाम सामाजिक संस्थाओं से प्राप्त संस्कार और मूल्य परिमार्जित और परिष्कृत होकर स्थायी रूप ग्रहण करते हैं। वहीं बच्चे के भीतर गलत-सही में अंतर करने का विवेक पैदा होता है। शैक्षणिक संस्थाएं ही उनके बारे में सोचने-समझने को प्रेरित करती हैं। संस्कारों और मूल्यों को बदलती या सुदृढ़ करती हैं। शिक्षकों के आचरण और बातों का विद्यार्थियों पर सबसे अधिक प्रभाव होता है। प्रारंभिक कक्षाओं के बच्चे तो शिक्षकों की बात को पत्थर की लकीर मानते हैं। इसलिए मूल्यों के निर्माण में शिक्षण संस्थाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस संदर्भ में वरिष्ठ वैज्ञानिक सुबोध मोहंती का यह सुझाव महत्वपूर्ण है कि चमत्कार और अंधविश्वास के खिलाफ शुरू से ही स्कूलों में पढ़ाई हो। प्रश्न और तर्क करने का माहौल बनाया जाय। निश्चित रूप यदि विद्यालयां में वैज्ञानिक चेतना के विकास और आलोचनात्मक विवेक पैदा करने पर विशेष ध्यान दिया जाएगा तो स्थितियां वैसी नहीं रहेंगी जैसी आज हैं। हाँ, यह सही है कि इसको गति प्रदान करने के लिए मीडिया सहित समाजिक-राजनीतिक संस्थाओं को भी आगे आना होगा जिसके लिए प्रगतिशील ताकतों को विशेष प्रयास करने होंगे    ………..  जारी