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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग – 11

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लोकतांत्रिक ,धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक चेतना के विकास का सवाल

एक लोकतांत्रिक नागरिक में सच को झूठ से अलग छाँटने, प्रचार से तथ्य अलग करने, धर्माधंता और पूर्वाग्रहों के खतरनाक आकर्षण को अस्वीकार करने की समझ व बौद्धिक क्षमता होनी चाहिए। वह न तो पुराने को इसलिए नकारे क्योंकि वह पुराना है ,न ही नए को इसलिए स्वीकार करे क्योंकि वह नया है- बल्कि उसे निष्पक्ष रूप से दोनों को परखना चाहिए और साहस से उसको नकारना चाहिए जो न्याय व प्रगति के बलों को अवरूद्ध करता हो अतः लोकतांत्रिक शिक्षा का उद्देश्य है-व्यक्तित्व का पूर्ण व चहुँमुखी विकास अर्थात एक ऐसी शिक्षा जो छात्रों को एक समुदाय में जीवन की बहुआयामी कला में दीक्षित करें।

माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952 राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्रीय अस्मिता के तत्व विभिन्न विषय क्षेत्रों में समाहित किए जाएंगे और उन्हें इस तरह बनाया जाएगा कि वे भारत की एक सामान्य सांस्कृतिक विरासत, समतावाद, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, स्त्री-पुरुषों में समानता, पर्यावरण की सुरक्षा, सामाजिक अवरोधों का निवारण, छोटे परिवार के मानदंड का पालन और वैज्ञानिक स्वभाव का पोषण आदि मूल्यों को प्रोत्साहित करें। सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का पूर्ण पालन करेंगे।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 शिक्षा का उद्देश्य विवेक पर आधारित लोकतंत्र, समानता, न्याय, स्वतंत्रता, परोपकार, धर्मनिरपेक्षता ,मानवीय गरिमा व अधिकार तथा अन्य के प्रति आदर जैसे मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्माण करना होना चाहिए।…….सामाज विज्ञान शिक्षण का लक्ष्य विद्यार्थियों में इस आलोचनात्मक मानसिकता और नैतिक क्षमता का विकास होना चाहिए ,ताकि वे उन सामाजिक शक्तियों से सावधान रह सकें जो इन मूल्यों को खतरा पहुँचाती हैं।

एन0सी0एफ0 2005 स्वतंत्रता के बाद तीन अलग-अलग समयों पर तैयार किए गए शिक्षा के दस्तावेजों के उक्त तीनों उद्धरणों में एक बात समान रूप से निकलकर आती है कि हमारी शिक्षा का एक बड़ा उद्देश्य बच्चों में लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक चेतना का विकास करना रहा है जो राष्ट्रीय एकता-अखंडता-शांति और विकास के लिए आवश्यक है। यही भावना हमारे संविधान की भी आत्मा है, पर दुर्भाग्य है कि संविधान के लागू होने के छः दशक बाद भी हमारा समाज इन मूल्यों से बहुत दूर दिखाई देता है। अभी भी हमारा समाज तमाम प्रकार की असमानताओं, भेदभावों, कट्टरताओं, पाखंडों, प्रदर्शनों, अंधविश्वासों, रूढ़िवादिताओं और अवैज्ञानिक मान्यताओं से ग्रसित है।

कभी-कभी तो लगता है कि भौतिक रूप से भले हम 21वीं सदी में जी रहे हैं लेकिन मानसिक रूप से अभी भी 19वीं सदी में ही हैं। उच्च शिक्षित लोगों के भीतर भी ब्राह्मणवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सामंतवाद जैसी संकीर्णताएं गहरे तक पैठी हुई है। आश्चर्यजनक यह है कि पिछले दशकों में इसकी गति और तेज हुई है। लोकतंत्र में रहते हुए भी हमारी जीवन शैली लोकतांत्रिक नहीं हो पायी है। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व तथा धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य किताबी होकर रह गए हैं। सभी की कोशिश अपनी सत्ता की पकड़ को मजबूत करने की है। हर ’बड़ा’अपने से ’छोटे’पर रौब जमाना चाहता है।

आलोचना सुनने का धैर्य जैसे चुक गया हो। यह स्थिति हमारी शिक्षा पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है क्योंकि शिक्षा को ही मनुष्य के व्यवहार और मानसिकता में परिवर्तन का माध्यम माना जाता है। हमारी शिक्षा इन मूल्यों का विकास करने में पूर्णतया असफल रही है। शिक्षक, शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग होने के नाते इस असफलता की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते हैं। मूल्यों का विकास कोई किताबी चीज नहीं है। किताबों में इन मूल्यों के बारे में पढ़ा देना मात्र पर्याप्त नहीं है।

मूल्यों का विकास आचरण से जुड़ा हुआ है। बच्चे अपने माता-पिता, शिक्षक और साथियों से इन मूल्यों को ग्रहण करते हैं। बच्चों में उतना प्रभाव किताबों में लिखी बातों का नहीं होता है, जितना अपने आसपास के लोगों के आचार-व्यवहार और मनोवृत्तियों का। इसमें भी शिक्षकों का स्थान सबसे ऊपर होता है। पर इस दृष्टि से शिक्षक की स्थिति अजीबोगरीब है

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