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प्रेमचंद्र जयंती के बहाने  आज के लेखकीय सरोकार  

Newsdesk Uttranews
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प्रेमचंद्र जयंती पर हिमांचल प्रदेश से विजय विशाल ने हमे यह लेख भेजा है। श्री विशाल जाने माने शिक्षाविद है और सम सामयिक मुददो और शिक्षा पर इनके कई आलेख प्रकाशित हुए है।

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बुरा है हमारा यह समय                                                                      

क्योंकि 
हमारे समय के सबसे सच्चे युवा लोग/ हताश हैं,
निरूपाय महसूस कर रहे हैं खुद को।
सबसे बहादुर युवा लोगों के/ चेहरे गुमसुम हैं 
और/आँखें बुझी हुई हैं।

एकदम चुप हैं 
सबसे मजेदार किस्सगोई करने वाले/युवा लोग,
एकदम अनमने से।
बुरा है हमारा यह समय

एक कठिन अँधेरे से/ भरा हुआ,/खड़ा है
सौन्दर्य, नैसर्गिक, गति ओर जीवन की 
तमाम मानवीय परिभाषाओं के खिलाफ,
रंगों ओर रागों का निषेध करता हुआ।
   (’इस रात्रि श्यामल बेला में’ सत्यव्रत)

जहां एक ओर हम अंधेरे दुःस्वप्न-सरीखे त्रासद समय में हैं, वहीं धर्मान्ध ताकतों के लिए ’शाइनिंग इंडिया’, शॉपिंग मॉल, मेगा ट्रेड फेयर की चहल-पहल है, हॉलीवुड-बॉलीवुड की अश्लीलताएं हैं, तांत्रिकों की बलि पूजा है, दूसरी ओर किसानों की आत्महत्याएं हैं। वैश्विकता, बाजारवाद, उत्तर पूंजीवाद, अंध साम्राज्यवाद, अंध राष्ट्रवाद पर संगोष्ठी-सेमिनार हैं। इस त्रासद समय में कविता-कथा में नयी उम्मीद जगाने वाला नवलेखन है। स्थापित लेखकों को भ्रम है कि युवा लेखकों का बचपन छीन लिया गया है और वे असमय परिपक्वता के शिकार हैं। युवा लेखक अपनी हताशा को भी देख रहे हैं और अंधेरे समय को भी। उन्हें पता है, क्रांति यकायक नहीं आयेगी।


  जहां आज के साहित्य में प्रयोग की निजता पर बल है, वहीं सामाजिक सरोकार भी बेचैन करने वाला है। सर्वग्रासी राजनीति के चलते पक्षधरता या प्रतिबद्धता गायब है। जहां सब कुछ ग्लोबल है और  जहां सुपर पावर अमरीका का आतंक है, वहीं गरीबी का ग्राफ ऊपर है।
  उत्तर आधुनिकता के विमर्शकार मान रहे हैं कि इतिहास का अंत हो गया है, विचारधारा का अंत हो गया है। सब कुछ ब्रांड है, बिक रहा है, मूल्य और  स्वप्न। उत्तर आधुनिकता दुहरी यंत्रणा है। न हम ठीक से आधुनिक हो पा रहे हैं, न ग्लोबल। साम्राज्यवाद की दासता से मुक्त नहीं हो पा रहे है। उत्तर पूंजीवाद के घपले हमें भटकते हुए सन्नाटे में ले जा रहे हैं। 


  साहित्य में विचार और दर्शन की भूमिका को नगण्य मानने वाले विद्वान आज भी बहुतायत हैं। साहित्यिक बिरादरी का यह वर्ग साहित्यिक अभिव्यक्ति में विचार और दर्शन की उपस्थिति को न केवल अनावश्यक मानता है, बल्कि विचार व दर्शन की चाशनी को देखने मात्र से इनकी भौंहें तिरछी होने लगती हैं। ’विचारधारा का अंत’, ’इतिहास का अंत’ जैसी अवधारणाओं को गढ़ कर वे साहित्य को जीवन से परे भाववाद की भूलभुलैया में ले जाते हैं। 


  यहां यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि आधुनिक काल में जब-जब हमारे साहित्य को जीवन के यथार्थ से, जनता की मुक्ति और उसके सांस्कृतिक उत्थान के संघर्ष से विमुख करने के प्रयत्न हुए हैं तब-तब निशाना प्रेमचंद को बनाया गया है। जबकि प्रेमचंद की महानता का स्रोत यह है कि अपने उन सैद्धान्तिक रूझानों और वैचारिक पूर्वाग्रहों से जो उन्हें अपने युगीन समाज से विरासत में मिले थे, वे निरंतर जूझते रहे। फलस्वरूप उनकी संवेदना भारतीय समाज के मूल अन्तर्-विरोधों को सामने लाने में सफल हुई। प्रेमचंद भारत के किसान को सुखी देखना चाहते थे। भारत का वह किसान वस्तुस्थिति से निराश और हताश आज आत्महत्या करने को विवश है। प्रेमचंद स्त्री की मुक्ति चाहते थे। स्त्री-समाज आज भी असुरक्षित अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है। वे बलात्कारियों की हवस का शिकार हो रही हैं, मुक्ति की बात तो कोसों दूर-महानगरों, नगरों, कस्बों, गाँवों और दूरदराज के अंचलों में घरों की सीलन भरी कोठरियों में गीली लकड़ी की तरह सुलग और घुट रही हैं। पुरूष वर्चस्व का शिकंजा उनकी गर्दनों पर पहले जैसा ही कसा हुआ है। प्रेमचंद दलितों के लिए सामाजिक न्याय चाहते थे। दलित समाज आजादी के इतने वर्षों के बाद आज भी दमन और उत्पीड़न का शिकार है, सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रेमचंद भारत की धर्म निरपेक्षता के समर्थक थे। इस संदर्भ में ’’साम्प्रदायिकता और संस्कृति’’ उनका प्रसिद्ध एवं विचारणीय आलेख है।

मगर आज सांप्रदायिक धर्मोन्माद इतने चरम रूप में है कि पूजा उपासना के ध्वंस की बात अलग, सांप्रदायिक जनून के चलते निरंतर हत्यायें हो रही हैं। गोरक्षा के नाम पर होने वाली हत्याओं को भी इसी प्रसंग में देखा जाना चाहिए। प्रेमचंद ने समाजवादी भारत का सपना देखा था। समाजवादी व्यवस्था विश्व स्तर पर ध्वस्त हो चुकी है और आज तो पहले का पूँजीवाद सांस्थानिक पूँजीवाद में रूपांतरित होकर, कमजोर, पिछड़े हुए और विकासशील देशों को अपने कर्ज के लपेटे में लेकर, उन्हें अपने बाजार के रूप में बदलता हुआ, आश्वस्त और निश्चिंत, उनका आर्थिक दोहन कर रहा है। प्रेमचंद आगे के जमाने को किसानों और मजदूरों के जमाने के रूप में देखना चाहते थे मगर आज यदि समाज में किसी का वर्चस्व है, तो वह संपत्तिशालियों का, धनपतियों का, बाहुबलियों का, अपराधियों का और देश की कीमत पर अपनी झोलियां भरने वाले राजनेताओं का वर्चस्व है।

  जब स्थिति यह है, परिदृश्य की सच्चाई यह है, तो प्रेमचंद की प्रासंगिकता एक निर्विवाद सत्य है। अपनी समूची चिंताओं, समूचे रचनात्मक सरोकारों के साथ वे आज भी हमारे बीच जीवित हैं, हमारे समकालीन बने हुए हैं।

  यहां यह कहना समीचीन होगा कि प्रेमचंद के सपने हवाई सपने नहीं थे। वे जीवन के यथार्थ के बीच से उपजे सपने थे। प्रेमचंद इतिहास बनाने वाली शक्तियों के साथ थे, उस साधारण जन के पक्षधर थे- जो इतिहास रचता और बचाता है। आने वाला जमाना मजदूरों-किसानों का जमाना होगा-यह उनकी सदिच्छा मात्र नहीं थी-वे उभरते हुए जन-संघर्षों को देख रहे थे। वे समझ रहे थे कि आर्थिक संग्राम उग्र से उग्रतर होगा और साधारण जन उस संग्राम में जीतेगा। इसे इतिहास की विडंबना कहना चाहिए कि इतिहास में इन जन-संघर्षां की फलश्रुति के बजाए हमें उनका विपर्यय मिला। समाजवादी व्यवस्था ताश के पत्तों की तरह ढह गई और जो कुछ सामने आया वह सांस्थानिक पूँजीवाद में रूपांतरित पूँजीवाद का नया चेहरा, वैश्वीकरण का मुखौटा लगाए हमें मिला। एक निर्लज्ज, स्वेच्छाचारी बाजार-तंत्र, अपसंस्कृति का सैलाब, सुखभोगवाद के मायालोक में भविष्य के सुनहले सपने संजोए अपने को छलता मध्यवर्ग और गरीबी व जहालत से त्रस्त, वंचितों-उपेक्षितों की एक पूरी दुनिया, असली हिन्दुस्तान।


  इस त्रासद समय को जहां कवि सत्यव्रत ने अपनी एक कविता में बुरा समय कहा है वहीं एक दूसरी कविता में इसे लेखकों के लिए चुनौतीपूर्ण मानते हुए अच्छा समय भी कहा है जो आज के युवा लेखक को ललकार रहा है-
अच्छा है हमारा यह समय

उर्वर है/क्योंकि यह निर्णायक है
और इसने/एकदम खुली चुनौती दी है
हमारे समय के सबसे उम्दा युवा लोगों को,
उनकी उम्मीदों और सूझबूझ को,
बहादुरी और जिन्दादिली को,
स्वाभिमान और न्यायनिष्ठा को।
’’खोज लो फिर से अपने लिए, 

अपनों के लिए
जिन्हें तुम बेइन्तहां प्यार करते हो,
और आने वाले समय के लिए
कोई नयी रौशनी’’
-अन्धकार उगलते हुए
इसने एकदम खुली चुनौती दी है

जीवित, उष्ण हृदय वाले युवा लोगों को।
कुछ नया रचने और आने वाले समय को
बेहतर बनाने के लिए 
यह एक बेहतर समय है,
या शायद इतिहास का एक दुर्लभ समय।
बेजोड़ है यह समय
जीवन-मरण का एक नया,
महाभीषण संघर्ष रचने की तैयारी के लिए,
अभूतपूर्व अनुकूल है
धारा के प्रतिकूल चलने के लिए। 


             
  मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार प्लेटो ने लेखक की भूमिका पर प्रश्न खड़ा किया था। प्लेटो ने एक आदर्श राज्य के लिए लेखक की जिस भूमिका की खोज की, वह अनेक रूपों में प्रश्नांकित हो सकती है लेकिन एक लेखक और उससे जुड़े रिश्तों की बहस प्लेटो से ही शुरू होती है। आज पूंजी ने लेखक की सामाजिक भूमिका का ही निषेध कर दिया है। बाजार में खड़े उपभोक्ता के लिए संवेदना, स्मृति, कल्पना और भावना के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे दौर में जब लेखक हर जगह फालतू चीज साबित किया जा रहा है तब उसके अस्तित्वगत और अस्मितामूलक भविष्य के लिए भी उसकी सामाजिक भूमिका की खोज बहुत जरूरी है। बीसवीं सदी में किसानों-मजदूरों की अनेक क्रांतियां तथा लेखकों की सामाजिक भूमिका दोनों इतिहासबोध के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। जबकि इक्कीसवीं सदी में अन्न और शब्द ने एक दूसरे को पहचानने से इंकार कर दिया है। एक ओर किसान और लेखक एक दूसरे को परग्रह की चीज समझ रहे हैं वहीं दोनों मंडी में खड़े अपने ही अन्न और शब्द को बाजार के हाथों विनिमय होते हुए और मुनाफा कमाते हुए सिर्फ देख सकते हैं लेकिन दखल नहीं दे सकते। क्रोनी पूंजी ने किसान और लेखक दोनों को ही अपने उत्पाद से बेदखल कर दिया है। दोनों श्रम विरोधी पूंजी के द्वारा संचालित उत्पादन के नियमों और संबंधों से गहरे जुड़े हुए हैं। दोनों का महत्त्व समाज के लिए आज कहीं ज्यादा बढ़ गया है। लेकिन पूंजी और बाजार निर्मित समाज ने दोनों को अपने केंद्र से विस्थापित कर दिया है, अदृश्य कर दिया है, हाशिए पर डाल दिया है और काफी हद तक महत्त्वहीन बना दिया है। 
मानव सभ्यता के इतिहास में पहली ऐसी घटना है जिससे न केवल किसान और लेखक के संबंध की नई पड़ताल की जरूरत बढ़ जाती है बल्कि नए सामाजिक निमार्ण और भविष्य की पुनर्रचना के लिए आवारा पूंजी और तकनीक से दोनों के पुनर्संबंध की जांच भी जरूरी है। 

  आज का जो हमारा समय है, वहां पाने और न पाने के बीच ’द्वंद्व’ सबसे अधिक मुखर है। लोग या तो बाजार की चकाचौंध को अचकचाए खड़े निहार रहे हैं या फिर भौतिक संसाधनों से भरे अपने घर में कैद होकर निरंतर अकेले और असहाय होते जा रहे हैं। हम भारतीय अपनी सामाजिकता के लिए जितने अधिक जाने जाते हैं, उस पर इतना घनघोर किस्म का संकट इसके पूर्व कभी नहीं आया। ऐसे समय में एक लेखक का दायित्व सबसे गुरुत्तर हो जाता है। मेरी समझ में यही सबसे उपयुक्त समय है, जब एक लेखक को इन भौतिक संसाधनों के मकड़जाल से बचकर गलियों और सड़कों की धूल छाननी होगी। ड्राइंगरूम का मोह त्यागकर गलियों, चौराहों और खेतों-खलिहानों की ओर जाना होगा। अपने वर्गीय संस्कार और सरोकारों को तजकर अपने से ऊपर-नीचे और चारों तरफ का जायजा चौकन्नी नजर से लेते रहना होगा। निश्चित रूप से कलावाद से कहीं ज्यादा यथार्थवादी लेखन की और मुड़ना होगा। एक ठोस यथार्थवादी लेखन की ओर। नोबल पुरस्कार स्वीकार करते हुए कामू ने कहा था -’’एक वर्ग ऐसा है जो इतिहास बनाता है और दूसरा वर्ग ऐसा है जा इतिहास को भोगता है।’’  एक सच्चा लेखक सदा सताए हुए लोगों का पक्षधर होगा। वह उनकी मुक्ति और स्वतंत्रता के लिए- एक न्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था के लिए संघर्षशील रहेगा। मानवीय अस्तित्व को मिटाने वाली शक्तियों का विरोध करेगा। मगर हर लेखक सदा ऐसा करता ही है यह स्वीकार करना लेखन कर्म को अनावश्यक गौरव देना है।  ऐसे भी लेखकों के उदाहरण हैं जिन्होंने मनुष्य विरोधी हरकतें की हैं। एजरा पाउंड जैसी कवि ने कभी रोम रेडियो से यहूदियों के विरूद्ध प्रचार किया था।

ऐसे लेखक आज भी हैं जो हिटलर के कार्यों का समर्थन करते हैं। पाठक को कल्पनालोक में भटकाते हैं। अतीत के रूमानी संसार और भविष्य की यूटोपिया में फँसाते हैं। सेक्स का नशा पिलाते हैं। मगर ऐसे लेखक अपने लेखकीय और मानवीय दायित्व को स्वीकार नहीं करते। अपने समय की वास्ततिकताओं का भोक्ता और साक्षी होने के कारण लेखक की रचना अपने समय का महत्वपूर्ण सत्य होती है। जो रचना अपने समय के लिए सच नहीं होती वह किसी समय के लिए सच नहीं होती। हम कह सकते हैं कि लेखक का रचना दायित्व और उसका सामाजिक दायित्व दोनों एक-दूसरे में घुले-मिले होते हैं। वह अपनी रचना के प्रति जितना प्रतिबद्ध होता है उतना ही अपने चारों ओर की जिन्दगी के प्रति भी।