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निकाय चुनाव के बहाने : छोटी सरकार’ का ‘बड़ा’ सवाल !

Newsdesk Uttranews
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आखिर क्यों नहीं होती इस बुनियादी सवालों की बात?

छोटी सरकारों के लिए चुनावी एजेंडे में क्यों यह सवाल शामिल नहीं होता ?

वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट की फेसबुक वॉल से साभार

‘बड़ी सरकार’ को इन दिनों ‘शहर सरकार’ की बड़ी चिंता है। काश, सरकार की यह चिंता चुनाव के बाद भी बनी रहती। गांव हो या शहर जब ‘छोटी सरकारों’ को चुनने का वक्त आता है तो बड़ी सरकार फिक्रमंद हो जाती है। लेकिन दुखद यह है कि यह फिक्र चुनाव बीतते ही ‘हवा’ हो जाती है। गांव और शहरों में ‘छोटी सरकारें’ बनती तो हैं लेकिन ‘बड़ी सरकारें’ उन्हें हाशिये पर धकेल देती हैं। यह नियति है उन ‘शहर सरकारों’ की जिनके चुनाव के लिए प्रदेश भर में इन दिनों शोर मचा है। प्रदेश में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनो ही शहर सरकार को नाक का सवाल बनाकर चुनाव में उतरे हैं, लेकिन शहर सरकार के ‘वजूद’ का सवाल किसी के एजेंडे में शामिल नहीं है।

बड़े-बड़े दावे तो हर कोई कर रहा है लेकिन कोई ‘माई का लाल’ यह दम नहीं भरता कि संविधान के 74वें संशोधन के मुताबिक शहर सरकार को उसका ‘हक’ दिलाएंगे। कोई यह वायदा नहीं करता कि विकास की प्रक्रिया में जनता को सहभागी बनाएंगे। चुनाव के बाद नगर निगमों, नगर पालिका और नगर पंचायतों में नए बोर्ड आ जाएंगे। कुछ कुर्सियां भाजपा के खाते में जाएंगी तो कुछ पर कांग्रेस का कब्जा होगा, हो सकता है कुछ कुर्सियां निर्दलीयों के हिस्से भी आ जाएं लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि क्या निकायों की तकदीर बदल पाएगी, सत्ता का विकेंद्रीकरण हो पाएगा छोटी सरकारों का मसकद पूरा हो पाएगा, उन्हें उनका हक मिल पाएगा?

बात शुरू करते हैं छोटी सरकारों के मकसद से। दरअसल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद लोकहित व विकास में जनता की भागेदारी धीर-धीरे कम होती जा रही है। योजनाएं नीचे से ऊपर की ओर नहीं बल्कि ऊपर से नीचे की ओर बन रही हैं। आमजन से जुड़ी नीतियों और कार्यक्रमों पर सरकारों का नियंत्रण जरूरत से ज्यादा बढ़ता चला जा रहा है। यह अभी कुछ वर्षों की बात नहीं है बल्कि साठ के दशक से महसूस किया जा रहा है। यही कारण था कि आजादी के बाद नगरों में तेजी से आबादी बढ़ी तो 1963 में तत्कालीन सरकार ने ग्रामीण और शहरी संबंधों पर एक कमेटी गठित की । जिसे बढ़ती नगरीय आबादी, गांवों से शहरों में पलायन की समस्या के साथ-साथ केंद्र और राज्यों से स्थानीय नगरीय प्रशासनिक इकाइयों को जोड़ने की विकेंद्रीकृत व्यवस्था के बारे में अध्ययन करना था। साथ ही शिक्षा, नागरिक जागरूकता और विकास में स्थानीय संसाधनों की भूमिका तथा सामाजिक एवं आर्थिक विकास के बारे में अध्ययन कर अपनी सिफारिशें देनी थी। इस समिति ने सिफारिश की कि इन समस्याओं के समाधान के लिए स्थानीय निकाय प्रशासन इकाई अर्थात नगर निगम व पालिकाओं को संवैधानिक अधिकार मिलना चाहिए। जिसमें विकेंद्रीकरण के साथ ही शक्तियां, कर्तव्य और संसाधन भी शामिल हों । इसी सिफारिश पर 1992 में हमारे संविधान में 73वां और 74वां संशोधन हुआ, जिसे 1 जून 1993 से राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया गया। चूंकि नगर प्रशासन राज्यों की सूची का विषय है इसलिए राज्यों को संविधान के अनुच्छेद 243 (जेडएफ) के तहत इसे लागू करने के लिए एक वर्ष का मौका दिया गया।

संविधान के 74वें संशोधन के मुताबिक नगरीय प्रशासन को उत्तरदायी बनाते हुए नगर निकायों को मजबूत व अधिकार संपन्न बनाया जाना था। नगरीय क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सफाई, पेयजल, सड़क आदि बुनियादी सुविधाओं का जिम्मा निकायों को सौंपा जाना था। निकायों की जिम्मेदारी विकास योजनाओं में जन सहभागिता सुनिश्चित करना भी था। संविधान संशोधन के मुताबिक 18 कार्यों का अधिकार नगर निकायों को सौंपा जाना चाहिए, परंतु राज्य सरकारों ने इनमें से अधिकांश कार्य नगर निकायों को नहीं सौंपे हैं, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण कार्य इस प्रकार हैं ।

नियोजन का अधिकार : इसके तहत नगरीय विकास योजना मतलब सिटी प्लानिंग और विकास प्राधिकरण निकायों के नियंत्रण में आने थे। लेकिन यह कार्य राज्य सरकार के स्तर पर नगर विकास मंत्रालय करता है । नगरों का मास्टर प्लान बनाने का काम भी नगर निकायों को मिलना था । भूमि उपयोग नियमन और भवनों का निर्माण : इस अधिकार के तहत मानचित्र स्वीकृत करने का अधिकार निकायों को मिलना था। अभी यह काम विकास प्राधिकरणों और आवास-विकास परिषद के पास है । न नौकरशाही चाहती है और न सरकार की मंशा ऐसी है कि यह कार्य नगर निकायों को सौंपा जाए।

आर्थिक तथा सामाजिक विकास योजना : नगरीय क्षेत्र में गरीबों और पिछड़ों के विकास संबंधी काम भी निकायों के जरिये ही होने थे। इन कार्यों से संबंधित विभाग स्थानीय स्तर पर निकायों के अधीन किये जाने हैं। अपने यहां यह अधिकार भी निकायों के पास नहीं है। अग्निशमन सेवाएं : यह सेवाएं पूरी तरह निकायों के अधीन होनी आवश्यक है, लेकिन यह भी संभव नहीं हो सका है। यातायात व्यवस्था : शहरों की यातायात व्यवस्था निकायों को सौंपी जानी थी। इस पर भी अभी तक अमल नहीं किया गया।

नगरीय गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम: इस कार्यक्रम के तहत गरीबों को रोजगार के लिए चलने वाली सरकारी योजनाएं और इन्हें संचालित करने वाले विभाग स्थानीय स्तर पर निकायों के अधीन रहने थे। मलिन बस्ती सुधार एवं उन्नयन : यह काम भी निकायों के माध्यम से होना था। पर, इसमें भी पूरी कवायद राज्य सरकार की ही रहती है । नागरिक सुविधाएं : जैसे पार्क, बगीचे तथा खेल के मैदान आदि भी पूरी तरह नहीं मिले हैं। कुछ पार्क हैं, कुछ नहीं हैं। स्टेडियम भी इनके अधीन नहीं हैं। अन्य कई मैदान भी निकायों को नहीं मिले हैं। सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं अन्य संस्थाओं के पूरे अधिकार नहीं। संशोधन के अनुसार, नगर के शैक्षिक संस्थान और सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्र नगर निकायों को मिलने थे, लेकिन निकायों के पास उन्हीं का अधिकार है जो उनके अपने हैं। दिव्यांग एवं मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों सहित समाज के कमजोर वर्गों के लिए सरकार की तरफ से चल रही योजनाओं का स्थानीय स्तर पर क्रियान्वयन भी निकायों के जरिये होना था। हमारे यहां यह भी संभव नहीं हो पाया। जन स्वास्थ्य, सफाई, स्वच्छता एवं कूड़ा-करकट प्रबंधन का काम भी पूरी तरह नगर निकायों को नहीं मिला। संशोधन के अनुसार, निकायों को अपने शहर के सभी चिकित्सालयों का नियंत्रण मिलना था। यहां निकायों का स्वास्थ्य सेवाओं पर कोई नियंत्रण नहीं है ।

इसमें कोई दोराय नहीं कि संविधान के 74वें संशोधन के जरिए शहरी निकायों को सही मायने में शहरी सरकार बनाने की कोशिश हुई थी । लेकिन, 25 साल बाद भी यह सपना आकार नहीं ले पाया है। कहीं, नौकरशाही बाधक बनी, तो कहीं विधायक-सांसद-मंत्री छोटी सरकारों के आड़े आते रहे हैं । कुछ एक राज्यों को छोड़कर अधिकांश राज्यों में अभी तक यह संशोधन आधी-अधूरी तरह से ही लागू हैं। उत्तराखंड नया राज्य होने के बावजूद छोटी सरकारों को अधिकार संपन्न बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । अपने यहां 74वें संशोधन के चलते राज्य वित्त आयोग का गठन हुआ। चुनाव के लिए अलग निर्वाचन आयोग बनाया गया । प्रत्यक्ष चुनाव प्रक्रिया और सभी निकायों के प्रशासन में हर वर्ग को भागीदारी देने के लिए आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी । इसके अलावा निकायों को अधिकार संपन्न बनाने की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ है । जो हालात हैं उनमें ‘अपनी सरकार’ का सपना पूरा होने की उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आती।

जिस तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा है, शहरों की आबादी बढ़ रही है, गांव शहरों में शामिल होते जा रहे हैं, शहर सरकार की जिम्मेदारी और अहमियत उतनी ही बढ़ती जा रही है। विडंबना देखिये सियासी मंसूबों के चलते सरकार नए नगर निगम, पालिका और पंचायतें तो गठित कर देती है, लेकिन उन्हें अधिकार नहीं देती। निसंदेह नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायतों में बनने वाली शहर सरकार जनता के प्रति जवाबदेह है परंतु सवाल उनकी स्वायत्ता, दक्षता और संसाधनों का भी है। संविधान इन संस्थाओं को अधिकार जरूर देता है, लेकिन ‘बड़ी सरकारें’ उनके आड़े आ जाती हैं। दुखद तो यह है कि आखिर क्यों नहीं होती इस बुनियादी सवालों की बात? छोटी सरकारों के लिए चुनावी एजेंडे में क्यों यह सवाल शामिल नहीं होता ?