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लोककथा यात्रा का एक अभिनव प्रयोग भाग — 2

Newsdesk Uttranews
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पहले अंक से आगे

राजीव जोशी

नगरौड़ा की ओर जाने वाली पगडंडी में अब एक लम्बी कतार थी। उसमें हम थे, बच्चे थे और एकाध बुजुर्ग भी थे। मसूर, गेहूँ और सरसों के पौधे अपनी गर्दन मिट्टी से बाहर तान चुके थे तो बन्दर और लंगूरों की गश्त भी बढ गयी थी। ओहोहोहोहो-ह्वाट की दो-तीन आवाजों के बीच यात्रा में शामिल बच्चों का उत्साही शोर भी शामिल हो गया। अब आगे को हमारी यात्रा में चहल-पहल थी। हम सामने नगरौड़ा को देख रहे थे और नगरौड़ा हमें।

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खेतों के पार एक सात पाटों का नौला था। बच्चों ने बताया कि पानी साफ पीने योग्य रह सके इसलिए गाँव वालों ने यहाँ नहाना-कपडे़ धोना बन्द कर दिया है। नौले में साफ पानी था। यह हमारी परम्परागत जल संग्रहण प्रणाली है। पानी यहाँ पर दरारों से बाहर फूटा फिर बहा और जमीन ने सोख लिया। कहीं दूर नीचे छन छनकर यह पानी फिर से तरोताजा होकर निकलेगा। फिर एक नौला भर लहराएगा। इस पानी की अपना ही एक प्राकृतिक प्रवाह है। हमारे बुजुर्गों ने इसे कभी छेड़़ा नहीं। यह नौला नगरौड़ा गाँव का था।

नगरौड़ा गाँव में सीमेण्ट का प्रवेश द्वार बना था। बगल में एक परमानेंट स्वागत बोर्ड भी लगा था। ग्रामप्रधान दुर्गादत्त भट्ट यहीं पर खड़े होकर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। बीस-पच्चीस मवासियों वाले इस गाँव में आबादी बड़ी सघन है। सीमेण्ट की पगडंडियां और रास्ते के साथ-साथ नालियां। इन दिनों जहाँ-तहाँ टोकरी और हजारी के फूलों ने गाँव का श्रृंगार कर दिया था। गाँव के बीच में प्रधान जी के घर पर कथा चौपाल बैठी। कुछ कुर्सियां, कुछ बेंच और दरी-चटाइयाँ। पूरा आँगन खचाखच। यात्रा के इस चौपाल में सबसे अधिक बुजुर्गों के दर्शन हुए।

हमारे साथी ‘गोरंग देश से गंगोत्री‘ यात्रा वृतांत के लेखक किशोर पाटनी अच्छे किस्सागो हैं। स्वभाव से ही जल्दी घुलमिल जाते हैं। इस क्षेत्र की भाषा से मिलती-जुलती भाषा होने के कारण उन्होंने अपनी कथा शुरू रने से पहले ही लोगों से नजदीकियाँ बढ़ा ली थीं। यहाँ पर उन्होंने नौ रोटियों वाली एक लोककथा ‘ झड़ गुदड़ि-हाथ मुंगरि‘ सुनाई। इस कथा के खत्म होते-होते आमा लोगों ने कथा में अपना सुर मिलाना शुरू कर दिया था।

किशोर पाटनी बीच-बीच में कथा छोड़ देते, बुजुर्ग महिलाएं कथा में अपनी पंक्तियाँ जोड़ देतीं। इस प्रकार चौपाल जीवन्त हो उठी। आमा लोगों ने कुछ ऐण पूछी। ऐण कुमाउनी में पहेलियों को कहा जाता है। कहा जाता है कि ऐण का जबाब न दे पाने पर रात को सपने में कोई दबाता है। ऐण लग जाना एक हार है। हमने ऐणों के हल खोजने की कोशिश की। हमारे साथ बच्चों की फौज थी। कुछ ऐणों में तो उन्होंने हमें बचा लिया लेकिन कुछ ऐण लग गई (हारनी भी पड़ी)।

लोकजीवन से जुड़ी इन पहेलियों का जबाब खोजने के लिए लोकजीवन से गहरा जुड़ाव व समझ जरूरी है। पहली ऐण खीमानन्द भट्ट जी ने पूछी- वन जान बखत घर खिन मूख, घर ऊन बखत वन खिन मूख (जंगल जाते समय घर की ओर मुँह और घर को आते समय जंगल को मुँह)। उत्तर उनके ही नाती ने दिया- बनकाटो (कुल्हाड़ी)। आमा रेवती भट्ट ने पूछी- गाड़ै-गाड़ निंगालुक बाड़ ( नदी के किनारे निंगालू की बाड़)। उत्तर था- हौल यानि कोहरा। बांसैकि उच्च-निच्च बैगनाक घौ, फूलनकि डगमग बासै नै हो- बरात। तम तबलम, दुनियाक न खरबम, एक फल मैलि पाछ, न गुठ्योल न बखलम ( भरा-पूरा, दुनिया से अलग, एक फल मैंने ऐसा पाया, न गुठली न छिक्कल)। ऐण लगी। तब जाकर उत्तर मिला- ओले।

इसी चौपाल पर कुछ दुर्लभ लोककथाएं मिली। आसपास के गाँव में कुछ लोककथाओं का दोहराव होना भी स्वाभाविक था। आमा रेवती भट्ट के पास कथाओं का भण्डार रहा होगा। उन्होंने एक भालू और पुटका-पुटकी की कथा सुनाई। इस कथा ने बच्चों को खूब हँसाया। यही पर धाना देवी ने एक दम्पति के सात बेटों की कथा सुनाई। जिसमें सबसे छोटे बेटे के साथ अन्य भाइयों के अन्याय और उनसे निपटने के लिए छोटे बेटे की सूझ-बूझ के किस्से भरे थे।

एक अन्य महिला आशा भट्ट ने ‘सौ बराती एक सयाना‘ कथा सुनाई। इस बीच भाँग के नमक और धनिये की महक से पराद भर माल्टा सानकर तैयार हो गया। ह्यून के दिनों में घामतात बैठकर माल्टा चूक सानकर खाना पहाड़़ की पहचान हुई। कुछ ने कटोरों में, कुछ ने पातों में और कुछ ने हाथों में ही लेकर माल्टा खाया। इतने में आमा धाना देवी ने खुद ही एक कथा शुरू कर दी। माल्टा खाते-खाते कथा चौपाल धीरे-धीरे आमा के पास सिमट आई और शांत हो गई। यह कथा एक गाय और बाघ की दोस्ती की दास्तान थी। कथा में बड़े मजेदार प्रसंग थे। इस चौपाल में गाँव जीवन्त हो उठा था। बहुत कुछ नया सीखा। अपनी लोक संस्कृति के करीब जाने का मौका मिला। यहाँ से बच्चों के जरिए लोक साहित्य को बटोरा जा सकता था।

हमारे साथ महेश पुनेठा थे। इस गाँव के बच्चे उन्हीं के स्कूल में पढ़ते हैं। उम्मीद है कि बच्चों के जरिए इसे संग्रहित करने काम आगे बढ पाएगा। अगले पड़ाव की ओर जाने का वक्त हो चला था। इतने में आमा कलावती देवी और धाना देवी ने फाग षुरू कर दिए। फिर कुछ देर ‘दैणा होया पंचनामा देवा़़़़़़़़़़ ़ ़ ़ ़ ़ के सुर में सुर मिलाकर सभी महिलाओं ने चौपाल को समापन तक पहुँचाया। महिलाओं से हमसे यहीं पर विदाई ली।

गाँव के कुछ पुरूश और बच्चे हमेंं नगरौड़ा गाँव के पुस्तकालय में ले गए। भट्यूड़ा की तरह यहाँ भी छोटा-सा पुस्तकालय था। इस पुस्तकालय में प्रधान की जी की सक्रियता के कारण अलमारी आदि की उचित व्यवस्था थी। ग्राम प्रधान दुर्गा दत्त भट्ट जी ने इस पुस्तकालय को और समृद्ध करने की अपनी योजना से भी अवगत कराया। गाँव की अगले छोर पर हमें पथरौली का रास्ता बताकर सभी बड़ों ने हमसे विदा ली। बच्चे अब भी हमारे साथ चल रहे थे। इनमें कुछ बच्चे अपने घर से बहुत दूर निकल आए थे। हमने सिर्फ नगरौड़ा के बच्चों को अपने साथ आने को कहकर अन्य बच्चों को लौटा दिया। इसके बाद हमने पथरौली गांव की राह पकड़ ली।

पथरौली गाँव के लिए दो-तीन किलोमीटर चलना रहा होगा। यात्रा में बच्चों की उपस्थिति और प्रकृति के अनुपम सौन्दर्य के कारण दूरी का आभास कहीं पर भी नहीं हुआ। हमारे पीछे नन्दा घुंघुटी और नन्दा खाट भी दिख रही थी। हम इन सब दृश्यों को कैमरों में कैद करते चल रहे थे। तभी मैंने अपने पीछे आते षीतल को आते देखा। शीतल अपने गाँव भट्यूड़ा को बहुत पीछे छोड़ आई थी। मैंने थोड़ा चिन्ता दिखाते हुए उससे वापस जाने को कहा तो वह बोली कि उसका छोटा भाई देवाशीष भी आगे है वह अपने भाई के साथ वापस आ जाएगी। मैंने उससे कहा कि आपका भाई आपके साथ आएगा। मेरी पूरी बात उसकी समझ में आ गई और वह मुस्कराकर पूरे आत्मविश्वास के साथ बोली-हाँ सर। खेतों से उतरकर हम पथरौली गाँव के बहुत करीब पहुँच गए। खेत के बींचों-बीच पथरौली का नौला था। हमने यहीं पर घास में बैठकर खाना खाया। खाना सभी लोग बनाकर लाए थे। इसे खत्म करने में हमने बच्चों की मदद मांगी। सबने मिलकर इसे निपटाया।