तो भौतिक सुख-सुविधाओं की लिलिप्सा के चलते बढ़ा पहाड़ से पलायन !

Newsdesk Uttranews
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बढ़ते पलायन से शव को चार कंधे भी मिलना पड़ रहा है मुश्किल

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चम्पावत। ललित मोहन गहतोड़ी


चम्पावत। स्थान परिवर्तन की बात आते ही पशु-पक्षी के ऋतु प्रवास की ओर बरबस ध्यान खिंच जाता है। जानवर भी ऋतु प्रवास के बाद अपने-अपने गंतव्यों की ओर लौट पड़ते हैं। लेकिन इंसान भौतिक सुख-सुविधाओं की लिलिप्सा के चलते एक बार पलायन कर जाए तो उसके लौटने के आसार कम ही नजर आते हैं। इसका सबसे अधिक प्रभाव पहाड़ों में देखने-सुनने को मिल रहा है। यहां के लोग आपसी होड़ के चलते सामुहिक रूप से पलायन कर रहे हैं। पहाड़ों की बंजर भूमि इसका प्रत्यक्ष उदाहरण बनकर सामने आ रही है।

कहां-कहां हो रहा है पलायन

       पहाड़ों में पलायन का असर प्रत्यक्ष रूप से देखने को मिलता है जिन खेतों में आज तक फसल लहलहाती थी वो वीरान पड़े हुए हैं। कटीली झाड़ियों के अलावा लंबे-लंबे पेड़-पौंधे इन खेतों में उग आए हैं। जिन घरों के आंगनों में कभी चौपालें लगा करती थी उन घरों में भी कोई दिया जलाकर रोशनी करने वाला तक नहीं बचा। कभी गांव की शान हुआ करती बाखलियां अब शांत और वीरान नजर आने लगी हैं। गांवों में जंगली जानवरों ने आना-जाना शुरू कर दिया है जिससे वहां रह रहे बूढ़े और बच्चों को खतरा है। गांव कागजी हकीकत से कोसों दूर हैं। अभी भी धोतियों को आड़ लेकर बने शौचालयों के सहारे चल रहा है या फिर खुले में ही सबकुछ निपट रहा है। कई घरों में तो औरतों और बच्चों के अलावा कोई और है ही नहीं ऐसे में इन औरतों और उनके बच्चों को जीवन यापन के लिए भी काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

     पलायन का दर्द ज्यादा पुराना नहीं दो दशक पहले एकाएक बढ़ते शहरीकरण ने यहां की भौगोलिक स्थिति को बदलकर रख दिया। नगरों की तरफ जनसंख्या दवाब के चलते गांव के गांव खाली होने लगे। जिन लोगों को आस-पास के नगरों में ठौर-ठिकाना नहीं मिल पाया उसने बाहर का रास्ता नापना शुरू कर दिया । इस अंदर-बाहर की दौड़ ने पारिवारिक रिश्तों में बढ़ती होड़ से यहां पहाड़ में अजीब सी वीरानगी पसर गई है। पलायन की त्रासदी भोग रहे पहाड़ से मैदानी इलाकों में जनसंख्या दबाव बढ़ा। विकास के नाम पर यहां ग्राम प्रधान से लेकर विधायक, मंत्री तक कुछेक अपवादों को छोड़कर खुली लूट मची। जनता के सेवक जनता की कमाई पर डाके डालते रहे, जिसने वास्तविक विकास की गति को धीमा कर दिया है। विश्वस्त सूत्रों की मानें तो कागजी योजनाओं का यदि धरातल से मिलान कराया जाए तो एक ही योजना को दो-तीन स्कीमों से पास कराकर महज लीपापोती कर छोड़ दिया गया है।

      वर्तमान समय में पहाड़ों से हो रहे पलायन के लिए सरकारों से कहीं अधिक जिम्मेदारी पहाड़ की जनता की है। चूंकि हमारे लोगों में जिसके पास थोड़ा-बहुत भी पैंसा ज्यादा रहा उन्होंने नगरों की ओर रूख कर लिया है। अगर वही लोग इस पैसे से पहाड़ में ही छोटा-मोटा व्यवसाय कर लेते तो हालात कुछ दूसरे ही होते, हो सकता है पहाड़ों में बढ़ रहे पलायन से इसे रोकने में काफी मदद मिलती। गांवों की लाखों की जमीन कुछेक हजारों रूपए में बेचकर शहरों में कुछ ही वर्गमीटर में आवास बनाकर जैसे-तैसे जीवन यापन कर रहे लोग तमाम बीमारियों से जूझ रहे हैं। रह-रहकर उन्हें घर की याद आती है लेकिन बेवसी में वह चाहकर भी अब वापस नहीं आ सकते। तमाम रोगों से ग्रसित होकर वहां जीने को मजबूर हैं। यदा-कदा जब घर की ओर कुछेक दिनों की पूजा-अर्चना के लिए वापस भी आते हैं तो वहां के प्रदूषण, गंदगी, और एकांकी जीवन का रोना रोते सुने जा सकते हैं। तब वह भी यह कहने से गुरेज नहीं करते हैं कि आप हमसे लाख गुना अच्छे हैं जो यहां रहकर कम से कम बीमारियों की चपेट में तो नहीं आ रहे हैं। तब वही लोग यहां की ताजी और शुद्ध हवा और शांत वातावरण की दुहाई देते नहीं थकते। माईग्रेसन के नाम पर दो दशक पहले तक लोग सर्दियों के समय ज्यादा से ज्यादा गांव से एक-दो किमी की दूरी पर बसे गांवों में ईंधन के लिए लकड़ी और जानवरों का घास-पात इकट्ठा करने के लिए चले जाया करते थे और ठीक होलियों से पहले अपने गांव वापस आ जाते थे। बीते दो दशक लोगों ने खंडहर बन चुके इन गांवों में अब लोगों ने आना-जाना तक छोड़ दिया है। गैर आवादी वाले इन गांवों की अब कहीं गिनती नहीं होती। यहां तक कि इन गांवों की सटीक जानकारी राजस्व विभाग के पास तक नहीं है।

यूं तो समूचा उत्तराखंड इस समय भयंकर पलायन की चपेट में है। अगर हम कुमाऊं की अगर बात करे तो इसका ज्यादा असर पहाड़ी इलाकों में ही ज्यादा देखने को मिल रहा है। जिन गांवों में आज तक 150 मवासे रहा करते थे वहां महज 15 परिवार तक नहीं बचे। कहीं-कहीं तो हालात यह हैं कि वहां भूतिया मकानों की दहशत बन चुकी है। खंडहर में तब्दील इन मकानों में अब झांकने तक कोई नहीं आता। चम्पावत, अल्मोड़ा, बागेश्वर और पिथौरागढ़ के कई गांव आज भयंकर पलायन की चपेट में हैं। बिडंबना यह है कि इन गांवों में अधिकतर बूढ़े और बच्चे ही यहां शेष बचे हैं। कामकाजी अधिकतर लोग गांवों से बाहर शहरों की ओर पलायन कर गए हैं। यहां तक कि कई गांवों में तो मुर्दे को देने के लिए चार कंधों की भी कमी हो चली है। दूसरे गांवों से लोगों को बुलाकर शव को कंधा मिल पाता है। आज से दो दशक पहले तक पिथौरागढ़ के बड़ावे गांव में जहां चार राठ रहा करती थीं। उत्सव आदि के समय जहां छह तौले भात पका करता था आज एक तौले भात में ही सब निपट जा रहा है। अल्मोड़ा जिले के धौलादेवी का सिड़िया और भनोली के नजदीक का मन्यां ऐसे गांवों की श्रेणी में आते हैं जहां पलायन का दर्द ज्यादा देखने को मिल रहा है। ऐसा ही हालात बागेश्वर जिले के भी है। ऐसी दशा में इन गांवों के वासिंदों से ज्यादा इस पलायन के दर्द को बखूबी कोई दूसरा नहीं जान सकता।

गैर आबादी वाले गांव के हालात

इधर चम्पावत जिले के कई गांव जो माइग्रेशन के समय आबाद रहा करते थे आज वीरान और खंडहर बने हुए हैं। टनकपुर-पिथौरागढ़ राष्ट्रीय राजमार्ग का स्वला गांव हो या पाटी ब्लाक का बग्जिवाला, बसौट और पथरकोट गांव, लोहाघाट ब्लाक का घांघला हो या फिर बाराकोट विकास खंड का लिप्टी ग्राम सभा का जमरेड़ी गांव इन सब गांवों के हालात कामोवेश लगभग समान ही हैं। इन गैर आबाद गांवों में अब लोग झांकने तक नहीं जा रहे हैं हालात यह हैं कि इन गांवों में जंगली जानवर अपना डेरा बन चुके हैं। जहां कई गांवों से लोगों का पलायन जारी है।

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