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फेसबुक का अर्थशास्त्र भाग -13

उत्तरा न्यूज डेस्क
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आभासी माध्यम की हकीकी दुनिया

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दिल्ली बेस्ड पत्रकार दिलीप खान का फेसबुक के बारे में लिखा गया लेख काफी लम्बा है और इसे हम किश्तों में प्रकाशित कर रहे है पेश है तेरहवा भाग

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ऐसा नहीं है कि मार्क की आलोचना कम होती है। हर धड़े में उनके आलोचक हैं। कुछ लोगों का मानना है कि मार्क ने लोगों के गुस्से, खुशी और मिलने-जुलने को इंटरनेट तक महदूद कर दिया है। एक हद तक यह सच भी है। फेसबुक उसी दौर की उपज है जब दुनिया में एक खास संस्कृति का वर्चस्व लगातार बढ़ा है, लेकिन अपनी राजनीति और अपने विचार को सामने लाने के वास्ते फेसबुक का आप कितना इस्तेमाल करते हैं, इस पर कोई बंदिश नहीं है। यह आप पर निर्भर करता है कि फेसबुक पर गुजारे गए समय को आप किस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। बतकही के लिए भी कर सकते हैं, हंसी-मजाक के लिए भी, गंभीर सामाजिक-साहित्यिक चर्चा के लिए भी और चाहे तो इसके माध्यम से बड़ी राजनीतिक आंदोलन भी शुरू कर सकते हैं।

मिस्र में 2010 के आखिरी दिनों में जो कुछ हुआ उसमें फेसबुक की बड़ी भूमिका रही। तहरीर चैक पर जमावड़े की शुरुआत फेसबुक से हुई। यह पहला वाकया था जिसने फेसबुक की राजनीतिक शक्ति को इतने बड़े फलक पर खोलकर सामने रख दिया। किसी को उम्मीद नहीं थी कि जिस दुनिया को वर्चुअल यानी आभासी दुनिया के तौर पर अब तक लोग जानते रहे हैं, वो हकीकी दुनिया के साथ इतनी गहराई से जुड़ी है। यह एक नए तरह का प्रयोग था। जींस पैंट पहनने वाले फंकी युवाओं की संख्या लाखों थी, जो एक हाथ से नारे के हर्फ वाले तख्त हवा में उछालते और दूसरे हाथ से मोबाइल के जरिए फेसबुक अपडेट करते। आंदोलनों की राजनीति अपनी जगह है लेकिन फेसबुक ने ये तो साबित कर ही दिया कि इसको इस्तेमाल करने का पक्ष असल में न्यू मीडिया के विर्मश का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा।

यानी यह वो तीर है जिसका जो इस्तेमाल करेगा, वह उसके पक्ष में जाएगा। फेसबुक का खुला आमंत्रण है- आओ, मुझे अपनाओ, मैं तुम्हारी मदद करूंगा। युवाओं के बीच लोकप्रियता को मापने का एक तरीका ये है कि उनके रोजमर्रा के फैशन में आप कितना पैबस्त हो पाते हैं। स्लोगन टी-शर्ट के जमाने में फेसबुक लिखा टी-शर्ट पहनकर इतराते कॉलेज स्टूडेंट्स शहरों में आसानी से मिल जाते हैं। फेसबुक से संबंधित कई स्लोगन टी-शर्ट पर लोकप्रिय है। उसमें लिखा कुछ भी हो सकता है, लेकिन सबका अर्थ अंततरू यही है कि फेसबुक उनकी ज़िंदगी में शामिल है। टी-शर्ट पर लिखा हो सकता है, “फेसबुक रियून्ड मी” या फिर “फेस द बुक डांट सिट ऑन फेसबुक” या फिर सीधे-सीधे “फेसबुक”। और इन युवाओं से पूछे तो साफ पता चलेगा कि फेसबुक के पर्याय के तौर पर लोग मार्क जकरबर्ग को ही जानते हैं। बाकी सह-संस्थापकों डस्टिन मोस्कोविच या फिर क्रिस ह्यूग्स के नाम लोगों को अजनबी सरीखा लग सकता है