जब परीक्षा में कोई बच्चा नब्बे से ज्यादा नंबर लाता है तो घर में खुशी का माहौल होता है. लेकिन इस बार कुछ अलग ही देखने को मिला. नतीजे जैसे ही आए तो एक छात्र के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. उसके नंबर देखे तो पता चला कि उसने सिटी टॉप किया है. फिर भी उसका दिल नहीं माना.
बात एक स्कूल के छात्र आधार की है. उसने दसवीं के रिजल्ट में तिरानबे चौरानबे नहीं बल्कि पूरे निन्यानबे दशमलव दो फीसदी नंबर हासिल किए हैं. इतने शानदार नंबर पाकर भी वह फूट फूटकर रोने लगा. कभी मां के गले लग रहा था. कभी अपने गुरु के. सब समझा रहे थे कि बेटा बहुत अच्छा किया है. मगर वह यही बोल रहा था कि थोड़े और नंबर आ जाते तो मजा आ जाता.
घर वालों ने जब बहुत प्यार से समझाया तो उसने बात मानी और बोला कि अब ठीक है. दरअसल उसका कंपटीशन किसी और से नहीं खुद से ही था. पहले सोचा था कि सत्तानबे लाने हैं. फिर मन बदला तो सोचा अट्ठानबे तो चाहिए ही. उसके हिसाब से उसने खुद से जो वादा किया था वह थोड़ा सा अधूरा रह गया.
उसके घर में मां पापा हैं. पापा एक फार्मा कंपनी में बड़े अफसर हैं. मां घर संभालती हैं. बेटा बहुत मेहनती है. खुद कहता है कि आठवीं के बाद से पढ़ाई को लेकर सीरियस हो गया था. एक बार जब मन लगाया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा.
वह मानता है कि उसका सबसे कमजोर विषय हिंदी था. उस पर जमकर मेहनत की. इसी मेहनत का नतीजा रहा कि हिंदी में भी पचानबे नंबर ले आया. बाकी अंग्रेजी में अट्ठानबे. गणित में निन्यानबे. साइंस में पूरे सौ. सोशल स्टडी में भी निन्यानबे.
अब वह बारहवीं की तैयारी में जुट गया है. कहता है कि पेपर इस बार थोड़ा मुश्किल आया था. पुराने सालों जैसे सवाल नहीं थे. इसीलिए रिजल्ट के बाद थोड़ा दिल टूट गया. लेकिन अब फिर से जुट गया है.
उधर शहर के बाकी स्कूलों से भी जब रिजल्ट आए तो कई बच्चों ने अपने अपने स्कूल का नाम रोशन किया. किसी ने दसवीं में टॉप किया. किसी ने बारहवीं में. लेकिन आधार की बात कुछ और थी. उसका रोना ये साबित कर गया कि असली मुकाबला इंसान का खुद से होता है.