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disaster in uttarakhand- कभी नही भूलने वाले वह 3 दिन, एक यात्रा वृतान्त- 3

Newsdesk Uttranews
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रश्मि सेलवाल

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20.10.2021(तीसरा और आख़री दिन)

सुबह 6.00 बजे जब बाहर देखा तो मौसम साफ था । अभी पैदल ही चल लेने के सिवा और कोई बेहतर ऑपशन हमे दिख नही रहा था। तो बिना देर किए अपना बैग पीठ मे टांगा और खैरना की और निकल गए। आगे रास्ता उम्मीद से भी ज्यादा खराब था । जगह जगह पेड़ गिरे थे ।

रास्ते टूटे हुए थे। पानी ने रोड को काटकर अपना रास्ता बना लिया था। और जैसे तेसै हम इस रास्ते को पार कर के निकले। ऊपर से पत्थर गिरने का डर लगातार बना हुआ था । पाँव मे अब छाले महसूस होने लगे थे। और जूतो के अंदर पानी भरे रहने की तो अब आदत सी हो गयी थी।


खैर राहत बस एक बात की थी कि धूप आ चुकी थी।
” सच कहूँ मुझे धूप इतनी प्यारी कभी नही लगी, जितनी आज लग रही थी। इस धूप में सुकून था। उम्मीद थी, और अपने माँ- पापा के पास जाने
की खुशी थी। और इसी खुशी ने हमे खैरना तक पहुँचा दिया।

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खैरना पहुँचकर पता चला कि आगे छड़ा वाली रोड पूरी तहस -नहस है। कई लोगो का कहना था कि रोड ही ग़ायब है । तो दूसरे रास्ते से जाना होगा। जो कि भुजांन से रानीखेत और फिर अल्मोड़ा था। तो हम 12-13 किमी सफर कर चुकने के बाद फिर से 3-4km भुजान के लिए रास्ता लगे। और फाइनली हम 11.30 बजे भुजान पहुँचे। यहाँ से रास्ता ठीक था पर भुजांन से आगे रानीखेत के लिए कोई गाड़ी नही थी । होती भी कैसे आधी से ज्यादा गाड़िया फँसी थी। अब तक हम थक चुके थे और सुबह से कुछ खाया भी नही था तो यहाँ पर हमने चाय,मैगी खाई।

इत्तफाक से यहाँ पर दो आर्मी मैन जिप्सी मे आते हुए दिखाई दिए। ये महोदय कौसानी से बरेली जाने के लिए निकले थे, पर आगे रास्ता बन्द था तो इनके पास वापस जाने के सिवा कोई बेहतर ऑपशन नही बचा था। इनसे अनुरोध कर हम तीन (मेरे साथ दो और लोग थे,जो कि पैदल रास्ते मे चलते हुए ही मुझे मिल गए थे,जिनमे से एक आर्मी मैन था विजय पंत और दूसरा रानीखेत मे आर्मी का मेडिकल देने आया था, जिसका नाम कमल था।

हालाँकि कैची मंदिर से अल सवेरे हम 8-9 लोग निकले थे,पर जैसे जैसे सबके घर पास आने लगे, ये सब छूटते गए,और आखिर में हम तीन शेष रहे।) हम लिफ्ट लेकर रानीखेत तक आए। रानीखेत तक का रास्ता बहुत ही आराम से गुजरा, गाड़ी मे लगे प्यारे गाने और रानीखेत की ठण्डी हवा मन को छु रही थी। पहली बार मैने रानीखेत को देखा। रानीखेत वास्तव में एक खूबसूरत जगह है,यहाँ से कमल और विजय पंत को अलविदा कह मैंने अल्मोड़ा के लिए टैक्सी की।

यहां पहुँचकर अब लगने लगा था कि मै घर पर हूं। एक राहत की सांस के साथ मैने रानीखेत से जल्द ही मिलने का वादा किया। अब मेरा घर अल्मोड़ा यहाँ से 45 किमी के फ़ासले पर था। मुझे अपने अल सवेरे पैदल निकल आने के डिसीज़न पर अब गर्व महसूस हो रहा था।

घर पहुँचकर मम्मी से सबसे पहले गर्मागर्म खाने की फ़रमाइश करूँगी या पापा से बटर चिकन बनवाउंगी, या मम्मी के हाथ की चाय सबसे पहले पियूँगी। या फिर फुर्सत से बैठ जी भर बाते करूँगी, मै इसी सोच मे थी कि टैक्सी वाले भय्या ने कहाँ अल्मोड़ा-अल्मोड़ा (करीब 4.00 बजे) मेरे सामने अब मेरा शहर और मेरे अपने थे। जिनसे मिलने कि बीते दो दिनों मे मैने कल्पना छोड़ दी थी।

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“जिंदगी और मौत के बीच जब एक छोटी सी लकीर साफ दिखाई देती है तो मन में तरह तरह के ख्याल आते है। ऐसा महसूस होता है जैसे ये आखिरी दिन होने वाला है । और इस समय अपनो से बात करना, और अपनो के पास पहुँच जाने की दिली ख्वाहिश कितने उफान पर होती है, इसे मेरे लफ़्ज बयां नही कर सकते।


ऐसा महसूस होता है कि कितना कुछ था जो करना था, कितना कुछ था जो कहना था अपनो से। जिंदगी की तमाम ख्वाइशे मानो बिखरती हुई सी लगती है। मन करता है कि काश ये ख्वाइशें पूरी करने के लिए एक और मौका मिल जाए”
मै खुश थी कि मुझे
अब ये मौका मिल चुका था।

समाप्त

लेखिका रश्मि सेलवाल बागेश्वर महाविद्यालय में अध्यापन करती है साथ ही रेडियो इनाउंसर भी हैं।