बहुत उपयोगी है भेमल का पेड़

Newsdesk Uttranews
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पास आकर रहने लगता, सेवा में ये तत्पर रहता, फूल सी कोई महक नहीं, जीवन भर न्यौछावर रहता, जरा शर्मीला है, थोड़ा है मनमौजी।
…मध्य शिवालिक की तरंगित पहाड़ियां इसका बसेरा हैं। नाम है भीमल। भीमल कहें भीकू या भ्यूल यह पेड़ मानव आबादी के आसपास खुद उग आता है। भारत के पूर्व में तीस्ता नदी, सिक्किम से पश्चिम नेपाल और उत्तराखंड से कश्मीर होते हुए उत्तरी पाकिस्तान तक भीमल का पेड़ मवेशियों के लिए पौष्टिक चारा है। कोमल हल्की चौड़ी पत्तियों के इस पेड़ में सामान्य वनस्पति के बराबर गुण हैं, लेकिन कुछ गुण अतिरिक्त भी हैं।
…यह पेड़ घने जंगलों में नहीं उगता। शर्मीले स्वभाव का यह पौधा खुले में भी नहीं उगता। गांवों के आसपास झाडिय़ों में चुपके से जन्म लेता है। जब तक जानवरों से नुकसान की संभावता खत्म न हो जाए, यह सामने नहीं आता। दो-तीन साल की उम्र में जब इसके पत्ते काम लायक हो जाएं तो अचानक सभी की नजरों में आ जाता है। फिर तेजी से ऊंचाई लांघता है और समीप की बेकार झाड़ियों को अपनी छाया और जड़ों से खत्म कर देता है।
हरिम पत्तियां हल्का पीला रंग लिए प्रोटीनयुक्त जटिल रासायनिक यौगिक क्लोरोफिल-बी से भरपूर होती हैं। जानवरों को ये पौष्टिक पत्तियां बेहद स्वादिष्ट लगती हैं। इस वंडर ट्री की ऊंचाई भी ज्यादा नहीं होती। यदि इसकी टहनियां न काटी जाएं तो पेड़ की उम्र कम हो जाती है। दूध देने वाले जानवरों के लिए इस पेड़ को बचा कर रखा जाता है। दिसंबर-जनवरी की कड़क ठंड में जब बाहर निकलना मुश्किल हो। शीतोष्ण घासें धरती से ऊपर न उठ रही हों, पाले से सभी पेड़ों की पत्तियां सूख जाएं और जानवरों के लिए चारे का संकट गहराने लगे, तब भीमल का पेड़ हराभरा रहता है। इसकी छोटी-छोटी शाखाओं से पत्तियां तोड़ मवेशी आनंदित हो उठते हैं।
यह पौधा मानव और उसके मवेशियों की रक्षा के लिए ही जन्म लेता है। इसे न तो ज्यादा पानी चाहिए और न ही उपजाऊ जमीन। इसे उगने के लिए ढलान और उजड़ती कमजोर पत्थरों की दीवारें पसंद हैं। 20-25 साल के अपने जीवनकाल के अंत तक यह नजदीक में कुछ और पौधे पैदा कर देता है।

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बाजार में नहाने का बिना साबुन वाला आधुनिक शैम्पू 1930 के दशक में अस्तित्व में आया। हिमालय की तलहटी में सदियों से भीमल की पतली टहनियों की छाल गजब का शैंपू थी। नहाने, कपड़े धोने के लिए इसी का इस्तेमाल होता रहा। इसमें साबुन के उच्च अणुभार वाले कार्बनिक वसीय अम्लों के सोडियम या पोटैशियम लवण नहीं होते। इसका चिप-चिपा पदार्थ पानी में घुलकर झाग पैदा करता है और गंदगी को घोल लेता है। यह कार्बोलिक समान औषधीय पदार्थ बालों या कपड़ों से झाग के साथ मैल की छोटी-छोटी गुलिकाएं बना देता है। इस प्रक्रिया में कणों के बीच पृष्ठ तनाव बेहद कम हो जाता है। हाथों से हल्का मलने पर मैल की ये गुलिकाएं वस्त्र से अलग हो जाती हैं और पानी में घुल जाती हैं। इस हल्के तैलीय पदार्थ का इमलशन मैल के कणों को दुबारा शरीर या वस्त्र पर नहीं जमने देता है। इससे शरीर की त्वचा भी नरम बनी रहती है।

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भीमल जरा मनमौजी भी है। इसका पौधा खुद ही उगता है। यदि एक स्थान से उठा कर दूसरे स्थान पर ले गए तो पौधा जान दे बैठता है और सूख जाता है। इसको अपने मृत शरीर से छेड़छाड़ भी कतई पसंद नहीं। पेड़ सूखते ही इसकी लकड़ी बेहद कमजोर हो जाती है। इसका इमारतों में कोई उपयोग नहीं हो सकता। चूल्हे पर जलाना भी संभव नहीं। आग पकड़ते ही यह तीखी दुर्गंध पैदा करता है। लिहाजा पौधा सूखते ही गिर पड़ता है और मिट्टी में अपनी गति को प्राप्त होता है।

पतली टहनियों का रेसा बेहद मजबूत होता है। इसकी मजबूत रस्सी बनती है। रेसा टहनी सूखने पर ही प्राप्त हो सकता है, इसलिए कड़ी मशक्कत करनी होती है। इसकी पतली शाखाएं सुखा कर नदी-गघेरों के शांत पानी में पत्थरों से दबा दी जाती हैं। जब यह सही से सड़ जाए तो लकड़ी से रेसे अलग किए जाते हैं। जिस स्थान पर रेसे निकाले जाते हैं, वहां फैली दुर्गंध कई दिनों तक दूर नहीं होती। इस काम में लगे लोगों के शरीर में भी यह गंध कुछ दिनों तक बनी रहती है। रेसे निकालने के बाद बची सुर्ख सफेद लकड़ी हालांकि तेज आग पकड़ती है, पर इसमें भी हल्की दुर्गंध बनी रहती है। काफी दिनों तक खुली धूप-हवा में रखने के बाद ही इसे चूल्हे पर जलाना संभव होता है।

मानव बस्ती उजड़ते ही भीमल का पेड़ खत्म हो जाता है। आबादी की रक्षा के लिए बसासत के आसपास उगने वाले और भी बहुत सारी वनस्पतियां हैं। इनका जीवन से गहरा नाता है। हिमालय तभी बचेगा जब हिमालय में निवास करने वाले मानव समेत सभी जीव सुरक्षित रहेंगे।

वरिष्ठ पत्रकार चन्दशेखर जोशी की फेसबुक वॉल से साभार

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