बात पते की— गुरु ढूंढने से पहले गुरु और गूरू के बीच लघुता और दीर्घ का समझें अंतर

Newsdesk Uttranews
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ललित मोहन गहतोड़ी

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गुरु शब्द स्वयं में पदम पूज्य है, परम आदरणीय हैं गुरु। गुरु शब्द की महिमा अपरंपार है। कहा भी जाता है बहुत मुश्किल और नसीब वालों को मिलते हैं सच्चे गुरु। उन्हें जो बड़े भाग्यशाली होते हैं जैसे बाल्मीकि जिनके बारे में सब जानते हैं कि हृदय परिवर्तन से पहले क्या थे और गुरुदेव की गुरुवाणी मिलने के बाद क्या से क्या हो गये। क्योंकि गुरु वह हैं जो शिष्य के सामने आ रही बड़ी बड़ी उलझनों को चंद मिनटों में सुलझाकर शिष्य की मुश्किल राह को एकदम आसान बना देते हैं ना कि जलेबी की फेरे की तरह घुमाते रहते हैं।

कहा भी जाता है बड़े नसीब से मिले वाहे गुरु! पहले एक बात आप यह अच्छी तरह समझ लीजिए वह वह कि गुरु अच्छी नसीब बालों को ही मिलते हैं फिर आगे चर्चा करते हैं। गुरु हमारे जीवन में आकर पथ प्रदर्शक का काम करते हैं ना कि जलेबी की तरह घुमाते। इसमें एक बड़ी बात यह भी समझनी बेहद जरूरी है कि जिसे आप अपना गुरु बना रहे हैं या मान रहे हैं वह गुरु ना होकर कहीं गूरू घंटाल तो नहीं जो आपको जलेबी बनाकर घुमाएं जा रहा है और आप घूम रहे हैं।

जो आपको अपने मतलब के लिए आपका पथप्रदर्शक बन जब चाहे ढोल समझकर जहां चाहे वहां बजा दे। और जब मर्जी आये मार पटक दूर भगा दे। यूं तो मौजूदा समय में तमाम सोशल गुरु के साथ सामाजिक गुरु के साथ अनेक गूरू घंटाल भी अपने अपने ज्ञान से शिष्यों को शिक्षित और प्रशिक्षित कर रहे हैं। यह आपके वह सोशल और स्कूली अध्यापक (मास्साब) हैं जो आपको तराशते हैं लेकिन बिना रुचि से महज धन के लिए। और इस कार्य के रूप में उनको भारी भरकम पैकेज अथवा प्रत्येक माह नकदी के रूप में सैलरी मिलती है। यह गुरू घंटाल आपको पौधा में बिंदी लगवाकर पौंधा ऐसे लिखना सिखा सकते हैं।

आशीर्वाद को आर्शीवाद‌ और विशेष को बिशेष लिखना आदि सिखाकर अपने अधूरा और कूड़ा आपके दिमाग का कचरा कर सकते हैं।इसे एक बात से समझते हैं यदि आपके फोन में कभी रिचार्ज समाप्त हो गया है तो आप सोशल मीडिया के अपने गुरु को अपने सेलफोन में नहीं खोज सकते हैं और न हीं उनसे बात कर सकते हैं। उन्हें अपने शोपीस बने मोबाइल में न हीं देख सकते। उधर रविवार या छुट्टी को आपकी क्लास नहीं लगती या अध्यापक रिटायर हो जाते हैं या स्कूल छोड़ देते हैं तो फिर वह आपको नहीं पढ़ाते हैं।

सवाल यह उठता है कि वह सोशल गुरु अथवा अध्यापक तब भी बच्चों को क्यों नहीं पढ़ाते; आपको इसका उत्तर कोई नहीं देगा। यदि किसी कारण से अध्यापक स्कूल नहीं आ जा रहे हैं तब अपने आसपास के बच्चों को ही इकट्ठा कर क्यों नहीं सुबह शाम या दिनभर में कभी एक वक्त थौड़ा बहुत विद्या का दान दे देते। लेकिन ऐसा नहीं होता और रिटायरमेंट या स्कूल छोड़ने के बाद यह गूरू घंटाल‌ ‘ठेका ले रखा क्या’? कहकर सब पढ़ाना और लिखाना भूलने और न समझने का नाटक करते तो हैं लेकिन माह के अंत में पेंशन लेना कभी नहीं भूलते।

यहां मैं सज्जन गुरुओं की बात नहीं कर रहा जो रिटायरमेंट या अवकाश के बाद या ड्यूटी समय के बावजूद शिक्षा दान कर अपने पद का मान और सम्मान कर रहे हैं। और अपनी सामाजिकता समाज के सामने अक्सर दर्ज कराते रहे हैं। यहां मैं उन गुरू घंटालों की बात कर रहा हूं जो स्कूल आने और जाने तक को मात्र अपनी एक ड्यूटी समझते हैं बस। सुबह 10 बजे से शाम चार बजे तक ड्यूटी बजाने के बाद इनकी ओर से बच्चे, स्कूल और समाज जाए भाड़ में चाहे ताश की गड्डी और देशी ठेके का पव्वा छोड़कर। अब आप समझ सकते हैं कि अच्छी शिक्षा देने वाले गुरुदेव और बुरी शिक्षा देने वाला गुरू घंटाल में महत्त्वपूर्ण अंतर क्या है।

मैंने अपने जीवन में ऐसे अध्यापकों को देखा है जिन्होंने बच्चों की पढ़ाई के लिए रात दिन एक कर दिया और उनके शिक्षित बच्चे आज अच्छी मुकाम पर हैं। ऐसे भी अध्यापकों को भी देखा है जो खुद के बच्चों को तक कोई एक अच्छा मुकाम नहीं दे सके। समझना जरूरी है ऐसे में उनके पढ़ाए बच्चे खाक इस देश के किसी काम आएंगे भी। वह भी ऐसे गूरू घंटाल की शिक्षा से महज एक जानवर की तरह खुद और खुद के परिवार का पेट भरने के लिए तमाम फैरी जुगत भिड़ा रहे होंगे। क्योंकि वह उन गुरू घंटाल की ओर से भविष्य के लिए अपनी छवि के अनुरूप तैयार किए अधपके घड़े हैं और इनमें गूरू घंटाल की छाप वर्षों से जमी हुई है। अब कुछ कतिपय आफिस नुमा बंद कमरों में बैठे चाटुकार और पत्तलकार गूरू घंटालों की बात भी लगे हाथ कर ली जाए।

यहां आपको जनसरोकारिता रखने वाले गुरु के अलावा और भी अनेक पत्तलकार और चाटुकार गुरू घंटाल अपनत्व दिखाकर उल्लू सीधा करते मिल जाएंगे। जो आपके भविष्य के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकते हैं। और यह आपको तमाम उलझनों में फंसा सकते हैं। इनमें बड़े ऊ की मात्रा लगती है। और यह अलग अलग लिखा जाता है। इसलिए सबसे पहले एक नेक गुरु की तलाश में भटकना जरूरी है। इसके लिए आपको अपने पीछे खड़े गूरू घंटाल को नजर अंदाज करना होगा। तब एक सच्चे गुरु आपको बचे खुचे जीवन में शेष दिशा देने का कार्य करेंगे।

गुरु की दोनों मात्राएं लघु हैं होती

इसे ऐसे समझें अल्मारी जब खाली होती है जब ही उसमें ही किताबें भरी जा सकती हैं। भरी अल्मारी में जीवन रूपी इन किताबों को आप रखेंगे भी कहां। एक बात और वह यह कि शब्द गुरुदेव का गुरु लघुता के साथ ऐसे लिखा जाता है जिसमें छोटे उ की मात्रा लगती है। और इसे हमेशा साथ-साथ लिखा जाता है क्योंकि यह हमारे परम श्रृद्धेय गुरुदेव हैं। कहा भी गया है गुरु की महत्ता लघुता में है। दीर्घ स्वर तो स्वयं में एक घमंडी स्वभाव का होता है।

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