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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 8

उत्तरा न्यूज डेस्क
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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से एक कविता संग्रह  प्रकाशित हुआ है । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 8

महेश चन्द्र पुनेठा

एक ओर शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण अपना ऐसा रंग दिखा रहा है दूसरी ओर अभी भी सरकार सबको शिक्षा देने के नाम पर संसाधनों के अभाव का रोना रोती रहती है और वही तर्क देती है जो 1835 ई0 में औपनिवेशिक सरकार देती थी। सरकारी स्कूल व्यवस्था को वैश्विक पूँजी के दबाव में ध्वस्त करने का उपक्रम किया जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में चलाई जा रही तमाम परियोजनाएं इसी का हिस्सा हैं, जिनको 1990 के जोमतियन सम्मेलन से गति प्राप्त हुई है। इससे पूर्व भारत की शिक्षानीतियों में किसी न किसी रूप में यह कोशिश होती थी कि वह देश के संविधान के अनुरूप काम करे। संविधान में शिक्षा और सामाजिक विकास के जो मूल उद्देश्य हैं उनको पूरा करे। पर उत्तर-जोमितियन सम्मेलन के बाद संविधान के आधार की जगह वैश्वीकरण की बाजार-आधारित नीतियों ने ले ली तथा भारत सरकार का स्थान अंतर्राष्ट्रीय मुद्रकोष और विश्वबैंक ने। एक परिवर्तन और हुआ इससे पहले शिक्षा नीतियों या कार्यक्रम की रूपरेखा में संसद से पूछे बगैर कोेई भी परिवर्तन नहीं किया जाता था।

लेकिन इसके बाद उसे पूछे बिना और बिना चर्चा के अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगे। यह इसलिए हुआ कि हम पहले से खर्च किए जा रहे 100पैसे मे 4पैसे और जोड़ने में समर्थ नहीं हो पाए। एक नई प्रवृत्ति और उभरी अब अंतर्राष्ट्रीय वित्त ऐंजेंसियाँ सीधे राज्य सरकारों के साथ समझौते करने लगी है जैसे कंेद्र का कोई महत्व ही न हो। विश्व बैंक की यह प्रक्रिया राज्य की भूमिका को समाप्त करने की उसकी स्थापित नीति के अनुरूप है-राज्य की भूमिका को कमजोर करके ही सीधे बाजार पर कब्जा किया जा सकता है। उक्त सम्मेलन में तीसरी दुनिया के अनेक देशों के साथ-साथ भारत ने भी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए जिनमें बच्चों को शिक्षा देने के लिए ’सबके लिए शिक्षा’ कार्यक्रम के तहत अंतर्राष्ट्रीय मदद लेने की स्वीकारोक्ति की गई थी। बतौर नीति यह पहली बार हुआ। यह सब शिक्षा के निजीकरण के उद्देश्य से किया गया। इस प्रकार राज्य एक तरफ अपने संवैधानिक दायित्वों से मुँह मोड़ता जा रहा है और साथ ही साथ एक छोटे उध्र्वगामी वर्ग के लाभ के लिए स्कूली शिक्षा के निजीकरण और व्यावसायीकरण को भी प्रश्रय दे रहा है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न तो परियोजनाओं से और न ही पी.पी.पी.मोड से शिक्षा का भला हो सकता है इसके लिए तो एक स्थाई और मजबूत सार्वजनिक ढाँचा खड़ा करने की जरूरत है। अन्यथा सबको शिक्षा और समान शिक्षा केवल स्वप्न मात्र बनकर रह जाएंगे। कितने अफसोस की बात है कि समान शिक्षा के लिए आजादी से अब तक संसद से लेकर शिक्षा संबंधी विभिन्न दस्तावेजों में अनेकानेक बार संकल्प व्यक्त किया जा चुका है लेकिन धरातल में कहीं समान शिक्षा नहीं दिखाई देती है। वर्ष 1966 में कोठारी शिक्षा आयोग ने पड़ोसी स्कूल की अवधारण पर आधारित समान स्कूल प्रणाली की अनुशंसा करते हुए कहा था कि इसके बगैर एक समतामूलक व समरस समाज का निर्माण नहीं हो सकता है। यदि ऐसा न हो सका तो विषमता और आपसी दूरियाँ बढ़ती जाएंगी।

इस रिपोर्ट में कहा गया कि-स्कूलों और कालेजों के प्रतिमानों में भेद शैक्षिक असमानता के अत्यंत दुःसाध्य रूप उत्पन्न करते हैं। उसका मानना था कि…….निजी उद्यम के कुछ रूपों ने शिक्षा पर सकारात्मक के बजाए नकारात्मक योगदान ही किया है। आयोग की स्पष्ट मान्यता थी कि…..आधुनिक समाज के लिए बढ़ती शिक्षा की जरूरतों को केवल राज्य ही पूरा कर सकता है और निजी उद्यम पर अतिरिक्त निर्भरता दिखाना बहुत बड़ी गड़बड़ी होगी। 1986 की शिक्षा नीति में कहा गया कि कोठारी शिक्षा आयोग द्वारा अनुशंसित पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित समान स्कूल प्रणाली की ओर बढ़ने के लिए कारगर कदम उठाए जाएंगे। पर इसी अधिनियम में अनौपचारिक स्कूलों की व्यवस्था कर इस अवधारणा की धज्जी उड़ाई गई। इसी तरह शिक्षा अधिनियम 2009 में ’साम्यपूर्ण शिक्षा’ शब्द को बड़ी कोशिशों के बाद स्वीकार तो किया गया लेकिन इस दिशा में कोई कारगर कदम उठाने के बजाय अधिनियम में ही चार तरह के विद्यालयों को स्वीकृति प्रदान की गई-1-सरकारी विद्यालय 2-सरकार से सहायता प्राप्त निजी विद्यालय 3-गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूल 4-विशेष श्रेणी के सरकारी विद्यालय जैसे-केंद्रीय विद्यालय ,नवोदय विद्यालय ,सैनिक स्कूल। इनके स्तर में काफी भिन्नता है।

इनमें भी प्रत्येक स्तर के विद्यालयों में भी आंतरिक स्तर पर भी अंतर दिखाई देता है , नवोदय विद्यालय केंद्रीय विद्यालयों का मुकाबला नहीं कर पाते हैं, राज्यों द्वारा संचालित ग्रामीण विद्यालय गुणवत्ता में शहरी स्कूलों से काफी नीचे हैं। साथ ही शिक्षा गारंटी कंेद्रों जैसी व्यवस्था भी है जो गुणवत्ता में अन्य सरकारी स्कूलों सेे काफी नीचे है। यही हाल निजी स्कूलों का भी है। पब्लिक स्कूलों की भी अनेक परतें हैं। एक ओर इंग्लैंड या अमेरिका के पब्लिक स्कूलों से होड़ लेते स्कूलों हैं तो दूसरी ओर शिक्षा की दरिद्र दुकानें जिनके पास बच्चों के बैठने तक के लिए भी उचित हवादार कमरे भी नहीं हैं, जहाँ हाईस्कूल-इंटर पास अघ्यापक बिना प्रशिक्षण के शिक्षण कार्य कर रहे हैं। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी इस असमानता को और अधिक बढ़ा रहा है। इससे एक और स्तर बन रहा है।

साथ ही सूचना विस्फोट और कंप्यूटर-तकनीक ने भी शैक्षिक क्षेत्र के दो फाड़ कर दिए है। इसे यूँ कह सकते हैं कि एक ओर तो कंप्यूटर से काम ले सकने वाले यानी कंप्यूटर साक्षर लोग हैं, जो ज्ञान और सूचना की वैश्विक संचरण-प्रक्रिया से जुड़े हैं, दूसरी ओर इस संचरण से असंबद्ध अथवा इस संप्रेषण प्रक्रिया से बाहर रह गए लोग हैं, जो कि अपनी तादाद में बहुसंख्यक हैं। ऐसे में कैसे समानता स्थापित हो सकती है? कैसे संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक विकास और सभी को विकास के समान अवसर(अनुच्छेद-15) देने का दायित्व सरकारें पूरा कर सकती हैं?

इसके लिए जरूरी है कि सरकारी शिक्षा को मजबूत किया जाय। विश्व के विकसित देश जो निजीकरण के बड़े पैरोकार हैं, वहाँ अभी भी शिक्षा सार्वजनिक क्षेत्र में है। फिनलैंड जैसे देशों से हमें सीखना चाहिए। फिनलैंड विश्व के उन देशों में से है, जिसकी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता विश्व में सबसे अब्बल है। इसका कारण शिक्षा में समानता, प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग पर जोर तथा शिक्षा में खर्च की पूरी जिम्मेदारी सरकार द्वारा लेना है। वहाँ पर कोई भी निजी स्कूल नहीं है। किसी भी स्कूल को फीस लेने की इजाजत नहीं है। हर स्कूल में निःशुल्क भोजन, इलाज तथा मनोवैज्ञानिक परामर्श और मार्गदर्शन दिया जाता है