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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था भाग 1

उत्तरा न्यूज डेस्क
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शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न और मौजूदा व्यवस्था पर महेश चन्द्र पुनेठा का यह लेख किश्तों में प्रकाशित किया जा रह है, श्री पुनेठा मूल रूप से शिक्षक है, और रचनात्मक शिक्षक मंडल के माध्यम से शिक्षा के सवालो को उठाते रहते है । इनका एक कविता संग्रह आलोक प्रकाशन, इलाहाबाद द्वारा ”  भय अतल में ” नाम से प्रकाशित हुआ है  । श्री पुनेठा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों द्वारा जन चेतना के विकास कार्य में गहरी अभिरूचि रखते है । देश के अलग अलग कोने से प्रकाशित हो रही साहित्यिक पत्र पत्रिकाओ में उनके 100 से अधिक लेख, कविताए प्रकाशित हो चुके है ।

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मानव ,सभ्यता और प्रगति के जिस मुकाम पर पहुंच चुका है उसके पीछे उसकी सृजनशीलता है। मनुष्य नित नया सोचता एवं करता रहता है। सृजनशीलता मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। उसी का परिणाम है यह विकास। मनुष्य इसी अर्थ मेें अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ भी है।मनुष्य केवल उदर-पूर्ति से संतुष्ट हो जाने वाला प्राणी नहीं है। वह जीवन में इससे ज्यादा चाहता है। उसके भीतर एक सौंदर्यबोध होता है।हर चीज को अधिक बेहतर और सुंदर बनाना चाहता है। वह वस्तुओं को मात्र उपयोगिता के धरातल पर ही ग्रहण नहीं करना चाहता बल्कि उनसे वह अधिक मानसिक संतुष्टि और आनंद भी चाहता है। केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि अन्यों के लिए भी। विचार और भावना के स्तर पर उसकी आवश्यकताएं ज्यादा विकसित और जटिल होती है।

यही आवश्यकताएं उसे नया सोचने एवं करने को प्रेरित करती हैं। मनुष्य की नया सोचने एवं करने की क्षमता ही उसकी सृजनशीलता कहलाती है। कुछ नया करना और अपने काम को नए तरीके से करना सृजनशीलता में अंतर्निहित है। प्रसिद्ध मराठी लेखक एवं चिंतक गोविंद पुरूषोत्तम देषपांडे का मानना है ,’’जीवन और जगत के बहुआयामी यथार्थ को एक बने-बनाए ढाँचे में ढालकर यांत्रिक रूप से प्रस्तुत करने के बजाय जब हम एक नये ढंग से व्यष्टि और समष्टि के संबंधों को समझते हुए उस यथार्थ को सामने लाते हैं-चाहे साहित्य और कलाओं के रूप में,चाहे दर्शन और विज्ञान के रूप में ,चाहे सामाजिक और राजनीतिक कार्यों के रूप में-तब हम अपनी सृजनशीलता का परिचय देते हैं।सृजनशीलता नये ढंग से कुछ करने में दिखायी पड़ती है।लेकिन यह नयापन बदलते हुए फैशन जैसा नयापन नहीं ,ऐतिहासिक नयापन होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें ,तो सृजनशीलता ऐतिहासिक नवीनता में होती है।‘‘ वास्तव में सृजनशीलता साहित्य,कला या संगीत के क्षेत्र तक सीमित नहीं है। जीवन का हर क्षेत्र सृजनशीलता की संभावना से भरा पड़ा है। मनुष्य द्वारा आग की खोज हो या अत्याधुनिक दूर संचार के यंत्रों का आविष्कार उसकी सृजनशीलता का ही फल है। इस सृजनशीलता की शुरुआत मनुष्य के बचपन से ही हो जाती है। बच्चा तमाम चीजों के संपर्क में आता है। उन्हें देखता-सुनता है। उनके बीच समानता या अंतर स्थापित करता हैै। दूसरों के साथ अपने संबंध बनाता है। यह सब क्या है? जब वह भाषा सीखता है और अपने तौर पर उसका प्रयोग करता है। यह उसकी पहली सृजनात्मक क्रिया है। प्रसिद्ध विचारक एजाज अहमद का यह कहना बिल्कुल तर्कसंगत है कि सृजनशीलता केवल कवियों,गायकों,चित्रकारों या किसी तरह के कलाकारों में ही नहीं बल्कि सभी मनुष्यों में होती है। यह व्यक्तिगत गुण नहीं मनुष्य मात्र का गुण है।

सृजनशीलता सामाजिक होती है। समाज में ही यह पनपती है। यदि समाज का उचित सहयोग नहीं मिलता है तो निश्चित मानिए इसका विकास संभव नहीं हैं।इसलिए अगर व्यक्ति की सृजनात्मकता का उचित विकास नहीं होता तो उसके लिए व्यक्ति से अधिक हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था जिम्मेदार होती है। एक वर्ग विभाजित एवं शोषण आधारित समाज में इसे स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। किसी व्यक्ति की सृजनशीलता इस पर निर्भर है कि वस्तुपरक परिस्थितियाँ उसे कितना सृजनशील बनाती हैं। सृजनशीलता के लिए जरूरी है कि व्यक्ति को पर्याप्त अवकाश एवं उचित वातावरण उपलब्ध हो। इसके अभाव में सृजनशीलता पूरी तरह विकसित नहीं हो पाती है आवश्यक स्वतंत्रता के अभाव में भी सृजनशीलता फल-फूल नहीं पाती। यह किसी के दबाब से नहीं पनप सकती। व्यक्ति को जितने अधिक स्वतंत्र चिंतन-मनन के अवसर मिलेंगे उसकी सृजनशीलता उतना ही अधिक विस्तार पाएगी। यह बात हम तमाम वैज्ञानिकों,कलाकारों,विचारकों,साहित्यकारों या अन्य सृजनकर्मियों के जीवन-वृत्त में पाते भी है

जहाॅ तक शिक्षा में सृजनशीलता का प्रश्न है यह कहना उसके सही अर्थ को व्यक्त करना होगा कि सृजनशीलता को प्रेरित करना तथा उसका उद्घाटन करना ही शिक्षा है। यदि शिक्षा ऐेसा करने में समर्थ नहीं होती है तो यह उसकी असफलता है। शिक्षा के दो पहलू हैं एक शिक्षक तथा दूसरा शिक्षार्थी।शिक्षा अपने लक्ष्य को प्राप्त करे इसके लिए शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों का सृजनशील होना आवश्यक है।

लेकिन आज का माहौल पूरी तरह सृजनशीलता विरोधी है जिसमें न शिक्षक के लिए सृजनशील होने की परिस्थितियाँ हैं और न ही बच्चों के लिए। इस गलाकाट प्रतियोगिता के युग में सबको धन-दौलत बटोरने की ही पड़ी है। अधिकांश व्यक्ति एक रात में करोड़पति हो जाना चाहते हंै। उनके लिए जीवन का परम लक्ष्य अकूत पैसा जमाकर भोग-विलासिता का जीवन जीना हो गया है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि धन किन तरीकों से कमाया जाय। हर वैध-अवैध तरीका मान्य है। जीवन में सफलता के प्रतिमान बदल गए हंै, उसको प्राप्त करने के तरीके बदल गए हैं। जीवन में सफलता प्राप्त करने के शाॅर्टकट तरीके मनुष्य ढूँढने लग गया है। मानवीय संवेदनाओं का निरंतर ह्रास हो रहा है। जबकि सृजनशीलता का संवेदना से गहरा संबंध है। इसके लिए संवेदनाओं का मानवीयकरण तथा परिष्कार अत्यंत आवश्यक है। आज की बाजारवादी व्यवस्था ,मनुष्यों के पृथक्करण और अमानुषीकरण के जरिए उनकी सर्जनात्मक शक्तियों को कुंठित कर रही है। मनुष्य एक संपूर्ण मनुष्य के रूप में अपने संपूर्ण सार से अलग होकर महज उपयोगिता तक सीमित हो गया है और सामाजिक प्राणी न रहकर एक एकाकी प्राणी बन गया है। ऐसी परिस्थितियों मे सृजनशीलता के लिए अवसर कहाँ हैं