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वीएल स्याही हल बचा रहा है जंगल 

उत्तरा न्यूज डेस्क
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उत्तराखण्ड में पाया जाने वाला सदाबहार बांज वृक्ष पर्यावरण, जल स्रोतों तथा जैव विविधता की दृष्टि से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण वृक्ष है। इसकी चैड़ी पत्तियां कार्बन डाइआॅक्साईड का अवषोषण तथा आक्सीजन का उत्सर्जन कर वायु प्रदूषण को कम कर पर्यावरण संतुलन में  महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। बांज वृक्ष की जड़ें भूमि में अत्यन्त गहराई तक प्रविष्ट होकर अपने सम्पर्क में आने वाली मिट्टी तथा चट्टानों को मजबूती से जकड़ लेती हैं, जिस कारण उस स्थान पर भूमि कटाव/भूमि क्षरण नहीं हो पाता है। बांज वृक्ष की पत्तियां जमीन में गिरकर सड़ने के पष्चात मिट्टी तथा अन्य भू-अवयवों से मिलकर एक अत्यन्त उच्च कोटि की ह्यूमस तैयार करती हैं जो वर्षा जल को रोककर रखने तथा उसे भू-जल में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यही ह्यूमस तथा बांज वृक्ष के जड़ के चारों ओर प्राकृतिक रूप से पायी जाने वाली नमी मिलकर छोटी-छोटी घास, लताओं तथा जैव विविधता के लिये एक आदर्ष आश्रय स्थल का निर्माण करती हैं। बांज एक सहजीवी वृक्ष है जो अपने इर्द-गिर्द अन्य प्रजातियों के वृक्षों तथा झाड़ियों को उगने में सहायता प्रदान करता है तथा वन्य जीवों तथा वनस्पतियों के लिये एक आदर्ष आश्रय स्थल तैयार करता है। बांज के साथ-साथ उतीस, फल्यांट, सानण, मेहल, काफल आदि चैड़ी पत्ती प्रजाति के वृक्ष भी जल संरक्षण में अत्यन्त मददगार वृक्ष हैं।

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 बांज एक अत्यन्त मजबूत व टिकाऊ लकड़ी होने के कारण इसके तने तथा शाखाओं का उपयोग कृषि उपकरण यथा हल, नहेड़ व दनेला आदि बनाने में किया जाता है। उतीस वृक्ष के तने का उपयोग जुआ बनाने में किया जाता है। उत्तराखण्ड के पर्वतीय भू-भाग में रहने वाले हजारों गांवों के लाखों किसानों द्वारा लम्बे समय से बांज, उतीस, सानड़, फल्यांट आदि चैड़ी पत्ती प्रजाति के वृक्षों तथा घिंघारू आदि महत्वपूर्ण झाड़ियों का उपयोग कृषि उपकरणों के निर्माण हेतु किया जाता रहा है। जिसके लिये प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में उक्त वृक्षों व झाड़ियों को अनियंत्रित एवं अवैधानिक तरीके से ग्रामीणांे द्वारा काटा जाता है। एक अध्ययन के अनुसार उत्तराखण्ड के पर्वतीय जिलों में लगभग 6 लाख 45 हजार परिवार कृषि कार्यों से जुड़े हैं। जिनके द्वारा प्रतिवर्ष दो लाख चालीस हजार चौड़ी पत्ती प्रजाति के वृक्षों व झाड़ियों का कटान कर कृषि उपकरणों का निर्माण किया जाता है। इतनी बड़ी संख्या में चौड़ी  पत्ती प्रजाति के पेड़ों का कटान होने से उत्तराखण्ड राज्य में वन आधारित नदियों, प्राकृतिक जल स्रोतों पर अत्यन्त बुरा असर पड़ रहा है। नदियों का जल स्तर अत्यन्त घट चुका है तथा प्राकृतिक जल स्रोत सूख रहे हैं।

परिणाम स्वरूप मिश्रित वनों का क्षेत्रफल तथा घनत्व लगातार घटता जा रहा है। जिससे जैव विविधता तथा वन्य जीवों के आहार व आवास के साथ-साथ पर्यावरण पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। वर्ष 2004-05 में पड़े अभूतपूर्व सूखे से विचलित होकर शीतलाखेत क्षेत्र के जागरूक युवाओं द्वारा स्याही देवी विकास समिति (मंच) का गठन कर जंगल बचाओ-पानी बचाओ अभियान आरम्भ किया गया। धामस, नौला, भाखड़, सल्ला रौतेला, शीतलाखेत, मटीला, खरकिया, सूरी, गड़सारी, सड़का आदि गांवों की महिला मंगल दलों तथा वन विभाग के कर्मचारियों व अधिकारियों के साथ मिलकर दर्जनों मीटिंग कर ग्रामीणों को जंगलों के अनियंत्रित व अवैज्ञानिक दोहन के दुष्परिणामों की जानकारी दी गयी, जंगलों म गष्त लगाकर कच्चे पेड़ों के कटान पर पाबन्दी लगायी तथा आग से जंगलांे को बचाने के प्रयास किये गये। इस क्रम में ग्रामीणों द्वारा बताया गया कि जब तक लकड़ी के परम्परागत हल का विकल्प नहीं मिलता है,

तब तक हल आदि कृषि उपकरणों के लिये बड़े पेड़ों का कटान रूकना मुश्किल होगा। मंच ने लकड़ी के हल के विकल्प के रूप में लौह निर्मित हल के विकास के लिये विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा, गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विष्वविद्यालय पन्तनगर, गोविन्द बल्लभ पन्त पर्यावरण एवं विकास संस्थान, अल्मोड़ा को निवेदन भेजे , किन्तु कहीं से कोई भी मदद नहीं मिली। कालान्तर में वर्ष 2011 में  जब मंच द्वारा पुनः विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुुसंधान संस्थान, अल्मोड़ा के तत्कालीन निदेषक डा0 जे0सी0भट्ट से लकड़ी के हलों के निर्माण से पर्यावरण, पेयजल, जैव विविधता को हो रही हानि के बारे में अवगत करया तो उनके द्वारा लकड़ी के हल का विकल्प तैयार करने पर सहमति व्यक्त करते हुए वरिष्ठ वैज्ञानिक डी0सी0साहू तथा वरिष्ठ तकनीकि अधिकारी षिव सिंह को समिति के साथ मिलकर धातु निर्मित हल तैयार करने हेतु आवष्यक दिषा निर्देष जारी किये। संस्थान तथा समिति की संयुक्त टीम द्वारा किसानों तथा प्रयोगषाला के बीच काम करते हुए 6 माह की मेहनत के बाद लोहे के हल का प्रोटोटाइप माडल विकसित किया गया जिसे वी0एल0स्याहीलौह हल का  नाम दिया गया। अप्रेल, 2012 में लोकार्पण के बाद इस हल का व्यवसायिक उत्पादन आरम्भ हुआ, मगर सदियों से लकड़ी का हल चला रहे किसानों ने 0 700/- में लोहे का हल खरीदने और उसके प्रयोग में दिलचस्पी न लेने से पूरी मुहिम में पानी फिरने की संभावना नजर आने लगी तो समिति द्वारा किसानों को फ्री में हल बांटने का निर्णय लिया गया।

कई दानदाताओं के सहयेाग से विष्व पर्यावरण दिवस 5 जून, 2012 को लगभग 100 हल मुफ्त में किसानों को दिये गये। किसानों द्वारा हल का प्रयोग आरम्भ करने के बाद कुछ और संषोधन सुझाये गये जिन्हें  शामिल किया जाता रहा। इसी बीच लौह हल से जंगलों की रक्षा की संभावना को देखते हुए उत्तराखण्ड शासन द्वारा जिला नवाचार निधि योजना के तहत जनपद अल्मोड़ा के 500 किसाननों को लौह हल देने के उद्देष्य से वी0एल0स्याही लौह हल निर्माण परियोजना को स्वीकृति प्रदान की गई। शीतलाखेत में स्याही देवी विकास समिति द्वारा कार्यषाला का निर्माण आरम्भ किया गया और जनपद अल्मोड़ा के 11 विकास खण्डों में 37 स्थानों पर किसानों के बीच हल का प्रदर्षन किया गया। किसानों द्वारा दिये गये सुझावों को चर्चा के बाद हल में शामिल किया जाता रहा, जिससे हल को किसानों के लिये अधिक उपयोगी बनाने में मदद मिली। वर्तमान समय में अल्मोड़ा, बागेष्वर, पिथौरागढ़, चमोली, पौड़ी, टिहरी के लगभग 4000 किसानों द्वारा इस हल का प्रयोग किया जा रहा है। जिससे प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में चैड़ी पत्ती प्रजाति के पेड़ों की रक्षा हो रही है।

वी0एल0स्याही लौह हल उत्तराखण्ड के 6 जिलों के हजारों किसानों द्वारा पिछले पांच वर्षों से सफलतापूर्वक उपयोग में लाये जा रहे हैं जिससे हर वर्ष हजारों की संख्या में पेड़ों की रक्षा हो रही है। हल के फाल की उपलब्धता में  रही समस्या का भी समाधान कर लिया गया है। दिल्ली निवासी  चन्दन सिंह डांगी तथा  शिव सिंह के प्रयासों से विषेष स्टील से निर्मित लगभग 1400 फाल बाजार में बिक्री के लिये उपलब्ध हैं। जनपद अल्मोड़ा में किसानों को हल उपलब्ध कराने में कृषि विभाग तथा वन विभाग का सहयोग मिल रहा है, परन्तु आत्मा, आजीविका, ग्राम्या आदि सरकारी योजनाओं तथा वन पंचायतों के माइक्रो प्लान में वी0एल0स्याही हल को शामिल करने से कम समय में ही हर किसान को हल देकर लकड़ी का हल बनाने के लिये काटे जा रहे लाखों पेड़ों को बचाया जा सकता है।

इसके अलावा न्याय पंचायत स्तर पर मौजूद कृषि विभाग के कार्यालयों पर साल भर हलों की उपलब्धता बनाये रखने तथा निर्माण करने वाली संस्थाओं को समय पर भुगतान करने की आवष्यकता है। जलवायु परिवर्तन तथा वैष्विक ताप वृद्धि के दुष्प्रभावों को रोकने में जंगलों का विषेष महत्व है। कृषि उपकरणों के लिये जंगलों के कटान को रोकने में वी0एल0स्याही हल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। यदि उत्तराखण्ड के सभी किसानों को वी0एल0स्याही हल उपलब्ध करा दिये जाये तो हर साल कटने वाले लगभग 2 लाख 40 हजार पेड़ो की रक्षा हो सकती है। जिसके परिणाम स्वरूप वन आधारित नदियों के जल स्तर में निरन्तर गुणात्मक सुधार होगा, प्राकृतिक जल स्रोत पुर्नजीवित होंगे, साथ ही जैव विविधता व पर्यावरण को लगातार हो रही क्षति से बचाया जा सकेगा।