पौधरोपण (Plantation) बनाम एएनआर – प्रकृति को छोड़ दें प्राकृतिक माहौल में

Newsdesk Uttranews
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अल्मोड़ा, 30 मार्च 2021— हाल के वर्षों में पर्यावरण संरक्षण के लिए पौधरोपण (Plantation) एक बड़े अभियान की तरह चल रहा हैं यहां यह भी कहना है कि प्रकृति और पर्यावरण का संरक्षण जरूरी है। इसके लिए प्रयास होने भी चाहिए। लेकिन हमारे जंगलों, जलस्रोतों, जैवविविधता और पर्यावरण संतुलन के लिए  जरूरी और कारगर  उपाय  क्या है? इस मूल मुद्दे की तह में जाना सबसे बड़ा कारगर और वक्ती जरूरत है।

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वर्तमान में पर्यावरण संतुलन बनाए रखने या इसे बचाने के लिए पौधारोपण (Plantation) एक अभियान की तरह हर वर्ष चल रहा है। अब तक जिस रिकार्ड में पौधे लगाए जा चुके हैं यदि इनकी सफलता की दर अच्छी होती तो आज तक उत्तराखंड में चारों ओर हरियाली छा गई होती।

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लेकिन आप भली भांति जानते हैं कि ऐसा नहीं हुआ हैं क्योंकि पौधरोपण (Plantation) हम अपनी प्लानिंग से करते हैं प्राकृतिक रूप से नहीं जबकि प्रकृति अपने परिवेश में ही ऐसी सघन और कारगर जैवविविधता पैदा कर सकती है जो मानव के बस में नहीं है। वह स्थिति है प्रकृति से छेड़छाड़ किए बगैर उसे उसी के प्राकृतिक माहौल में छोड़ देना।


यही एएनआर यानि सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति (Assisted natural reproduction method) है जो जंगलों और जैवविविधता का स्वयं रक्षा कर सकती हैं इसके लिए हमें बस इतना सा प्रयास करना होगा कि हमें संबंधित क्षेत्र को आग से बचाना होगा और कुछ नहीं यदि हम ऐसा कर सके तो हमारे परिवेश को हरा भरा करने से कोई नहीं रोक पाएगा।

जंगलों का पर्यावरण संतुलन में अतुलनीय योगदान है  जंगलों को काटकर/जलाकर पर्यावरणीय असंतुलन पैदा करने में  मानवीय गतिविधियों का मुख्य हाथ रहा है।

एक तरफ मानवीय जरुरतों के लिए जंगल कट रहे हैं  नये जंगल लगाने की कोशिश भी जारी हैं। परंतु कृत्रिम पौधारोपण (Plantation) से विकसित जंगल, प्राकृतिक जंगलों का स्थान ले पायेंगे? यह एक बहुत बडा़ सवाल है क्योंकि पौधे रोपकर (Plantation) पेडों का झुरमुट खडा़ करना तो मनुष्य के हाथ में है परंतु जैवविविधता, जलस्रोतों से युक्त जंगल  विकसित करना प्रकृति के ही हाथ में है। लंबे अरसे से सरकार तथा बहुत से संगठनों द्वारा नये जंगल विकसित करने के प्रयास किये जा रहे हैं।

पहले तो पौधारोपण (Plantation) की सफलता दर ही बेहद संदिग्ध है। संदिग्ध इसलिये क्योंकि जिस मात्रा और विस्तार में ,लंबे अरसे से पौधारोपण किया जा रहा है और अगर उसकी सफलता दर वाकई वही है जैसी कि कागज पर दिखाई देती हैं तो जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में वृद्धि से पैदा समस्याएं होती ही नहीं।मगर हम सब अपने चारों ओर पौधारोपण की विफलता को देखकर भी पौधारोपण (Plantation) करना नहीं छोड़ते जबकि नये जंगल विकसित करने के लिए हमारे पास सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति मौजूद है।

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सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति (ANR) (Assisted natural reproduction method) में किसी भी अवनत वन क्षेत्र को आग, मानवीय हस्तक्षेप से बचाकर प्राकृतिक शक्ति का सहारा लेकर नये मिश्रित जंगल विकसित करने की पद्धति है जिसमें अवनत वन क्षेत्र में पूर्व में मौजूद  कट चुके पेडो़ की जडों से निकलने वाली कलियों से ही नये पेड़ विकसित होते हैं।

यह पद्धति मिश्रित जंगलों के विकास के लिए पौधारोपण (Plantation) की तुलना में न केवल कम समय, कम संसाधनों की मांग करती है वरन इस पद्धति से विकसित जंगल जल संरक्षण, जैवविविधता संरक्षण, कार्बन अवशोषण तथा भूस्खलन रोकने में पौधारोपण से विकसित जंगलों की तुलना में बहुत आगे हैं।


जरनल आफ जियोफिजिकल अनुसंधान में प्रकाशित आर्टिकल के अनुसार चीन में  बहुत से विश्वविद्यालयों तथा सरकारी विभागों द्वारा किए गए  एक अध्ययन में पाया गया है कि सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति, जिसे एएनआर भी कह सकते हैं, से विकसित जंगल पारिस्थितिकी विकास में कृत्रिम पौधारोपण (Plantation) से विकसित जंगलों  से बहुत आगे हैं, और इसलिये महत्वपूर्ण भी हैं।


 साठ के दशक में जब उत्तराखंड में भी बांज आदि चौडी़ पत्ती प्रजाति के जंगल, देवदार, चीड़ के बेहतर जंगलों के पौधारोपण के लिए जमीन खाली करने हेतु तथा निकटवर्ती शहरों को कोयले की आपूर्ति हेतु  सरकारी संरक्षण में नीलामी कर काटे जलाये जा रहे थे तो चीन में भी व्यापक पैमाने पर पुराने मिस्रित जंगलों को काटकर, जमीन खाली कर देवदार का पौधारोपण किया गया और देवदार के जंगल विकसित किये गए।

हालांकि उत्तराखंड में  देवदार आदि के नये जंगल तो विकसित नहीं हो पाये और खाली स्थान पर चीड़ ने कब्जा जमा लियाऔर बांज आदि चौडी़ पत्ती प्रजाति के मिस्रित जंगलों के चीड़ के एकल प्रजाति जंगलों में बदल गए .जंगलों के स्वरूप में इस ब दलाव ने उत्तराखंड के जल स्रोतों, जैवविविधता और आबोहवा पर जो विपरीत प्रभाव डाला वह किसी से छिपा नहीं है।

हालांकि चीन मिस्रित जंगलों को काटकर देवदार के जंगल विकसित करने में सफल रहा और आज विश्व के देवदार के जंगलों में से 24 % चीन के पास हैं।

चीन के फुजियान प्रांत के सानमिंग शहर में 1958 से आरंभ किये गए इस अनुसंधान में ए.एन.आर.पद्धति से विकसित जंगल की तुलना पौधारोपण से विकसित 2 जंगलों और 2 पुराने मिस्रित जंगलों से 4 बिंदूओं पर की गई ये बिंदु हैं
1-वर्षा जल का संरक्षण
2-जैवविविधता
3-भूस्खलन
4-बायोमास एकत्रीकरण/कार्बन अवशोषण।


अनुसंधान से निकलने परिणामों के अनुसार  प्रथम वर्ष के उपरांत ए.एन.आर.जंगल में  जल अपवाह (surface runoff} पौधारोपण से विकसित जंगलों के मुकाबले आधा तथा मिस्रित जंगलों जैसा ही था. ए.एन.आर.पद्धति से विकसित जंगल में तलछट (sediment} जिसे गाद भी कह सकते हैं, की मात्रा पौधारोपण (Plantation) से विकसित जंगल के मुकाबले आधी ही थी।


अध्ययन में यह भी पाया गया कि ए.एन.आर.से विकसित जंगल में जैवविविधता, पौधारोपण से विकसित जंगल से कहीं ज्यादा होने के साथ साथ परिपक्व मिस्रित जंगलों के बराबर पायी गई। झाडिय़ों की संख्या ए.एन.आर.जंगल में सर्वाधिक पायी गई। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण तथ्य जो सामने आया है वह था कि ए.एन.आर.से विकसित जंगल में पौधारोपण (Plantation) से विकसित जंगल की तुलना में तीन से चार गुना बायोमास ज्यादा इकट्ठा हुआ।


इस अनुसंधान के परिणामों पर चर्चा करते हुए अध्ययन रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि यदि चीन के पौधारोपण (Plantation) से विकसित देवदार के जंगल के बजाए ए.एन.आर.से विकसित जंगल होता तो 25  सालों में 0.7 गीगाटन कार्बन का अवशोषण  किया जा सकता था।

इस आंकड़े का महत्व इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2009 में पूरे विश्व में पेट्रो पदार्थों के जलने से 8.4 गीगाटन कार्बन उत्सर्जन हुआ। इस तरह अध्ययन के परिणाम दिखाते हैं कि ए.एन.आर.से मृदा संरक्षण, जल संरक्षण और बायोमास एकत्रीकरण को बल मिलता है जिससे पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत होता है।


नौला फाउंडेशन के एसोसिएट कोआर्डिनेटर गजेन्द्र कुमार पाठक ने बताया कि जनपद  अल्मोड़ा में कोसी नदी के प्रमुख रिचार्ज जोन स्याहीदेवी शीतलाखेत में जनसहभागिता से वर्ष 2004-5 से चलाये गए “जंगल बचाओ-पानी बचाओ अभियान के तहत स्याहीदेवी विकास मंच, महिला मंगल दलों तथा वन विभाग के संयुक्त प्रयासों से सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति (एएनआर) से लगभग 1000 हैक्टेयर क्षेत्रफल में मिस्रित जंगल विकसित किया जा चुका है।

उन्होंने कहा कि चूंकि एएनआर पद्धति में किसी तरह के पौधारोपण (Plantation) की जरूरत नहीं होती है इसलिए इस पद्धति से जंगल विकसित करना सस्ता होने के साथ साथ समय, संसाधन की बचत भी करता है।

उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा विभिन्न नदियों तथा जलस्रोतों के उपचार के लिए पौधारोपण (Plantation) पद्धति का सहारा लिया जा रहा है। स्याहीदेवी शीतलाखेत के आरक्षित वन क्षेत्र में एएनआर से विकसित जंगल के माडल को आसानी से उत्तराखंड के हर वन क्षेत्र में ले जाने से कम खर्च, कम समय में बेहतर परिणाम हासिल किये जा सकते हैं।

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