हिमालय की मेरी पहली यात्रा भाग-2

Newsdesk Uttranews
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चंढ़ीगढ़ के कालका में भी चाचाजी के पास भी शैतानी बचपन गुजरा, लेकिन पेट गुफा ही बना रहा और मैं पतला लंबा बांस..

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तब, हिमालय की खोज में कालका के आस-पास की सभी पहाड़िया नाप डाली लेकिन हिमालय कभी पास आने के लिए तैंयार नहीं रहा. 1994 में बागेश्वर आने पर आलोक साह उर्फ राजदा से आधी-अधूरी पहचान हो गई. चौक बाजार में उनकी दुकान में न जाने क्यों रस सा आने वाला हुवा. वहीं दुकान में कुछेक औरों से भी रोजाना मुलाकात होने पर मित्रता हो गई. एक दिन राजदा ने बताया कि उनके दिल्ली के एक मित्र भंडारीजी हैं किसी मंत्रालय में. किसी एलीसैन हैरग्रीस की स्मृति में न जाने कौन सी योजना थी जिसमें वो हिमालय की ट्रैकिंग के लिए मदद करने को तैंयार हैं. हम सभी ने हामी भर दी. दस रणबांकुरों का दल बन गया. जिनमें पांच बालिकाएं भी थी.
मेरे लिए मुसीबत आन खड़ी हो गई थी. फौंजी बाप से पूछा था नहीं और राजदा को जाने के लिए हामी भर दी थी. बमुश्किल माताजी को मनाया. माताजी ने फौंजी बापू को नम्र किया तो जाने की परमिशन मिल गई.

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टीआरसी से रूकसैक, स्लीपिंग बैग, मैटरस सामान ले आपस में बांट लिया गया. हिमालय में भयानक ठंड होती है के नाम पर मैंने कुछ गरम कपड़े भी सिलवा लिए. कपड़ों के लिए पैंसा घर से मांगने की हिम्मत नहीं थी तो सटका लिए गए. तय दिन को हिमालय की यात्रा शुरू हुवी. पता चला कि बागेश्वर से पांच किलोमीटर आगे आरे के पास पहाड़ टूटने से रोड बंद हो गई है. वहां तक जाने के लिए एक जीप कर ली गई. टूटा पहाड़ पैदल पार कर आगे शामा-लीती के लिए फिर एक जीप से बात तय कर ली गई. जीप चालक ने हमारा सामान छत में बांधा और टेप का गला खोल दिया. हिमालय की ओर जाना कितना डरावना होता है, जीप चालक ने लीती तक की कच्ची सड़क में हमें बखूबी इसका एहसास करा दिया था. लीती से आगे की यात्रा पैदल थी. भूख से पेट बिला रहा था कि तभी टीम लीडर, राजदा ने एक दुकान में आलू के गुटकों का आर्डर दे दिया. प्लेट में आलू आए तो बड़े शान से थे लेकिन चंद सैकडों में ही उन्हें भी पता नहीं चला कि वो गए कहां. सबकी प्लेटें बदस्तूर चमक रही थी.

https://uttranews.com/2019/07/13/my-first-visit-to-the-himalayas-part-1/

सामान ढोने के लिए भार वाहक उर्फ पोर्टरों के जुगाड़ में राजदा को कुछेक घंटे लग गए. दोएक जनों से बात बन गई कि आगे गोगिना से बांकी पोर्टरों का जुगाड़ हो जाएगा. शाम हो गई थी. आज गोगिना पहुंचना मुश्किल था. रास्ते में ‘घुघुतीघोल’ तक चलने का निर्णय लिया गया. हमारे खुद के सामान के अलावा टैंट, राशन का सामान बहुत था और पोर्टर थे दो. पोर्टरों ने अपने बूते से ज्यादा सामान बांध रास्ता नापना शुरू कर दिया था. दस जनों का तंबू वो छोड़ गए थे. मैंने और सांथी हीरा ने उसके पोल पकड़ चलना शुरू कर दिया. रास्ते में सांथी उमा शंकर भी मदद में हाथ बंटा दे रहा था. अपने सामान के सांथ तंबू को ले जाना बहुत कष्टदायी हो रहा था. अंधेरा घिर आया था तो घुघुतीघोल से किलोमीटर भर पहले मैंने तंबू को अपने कांधे पर डाल दिया. तंबू को कंधे में डाल तो दिया था लेकिन मैं खुद धनुष की तरह होते चले जा रहा था. इससे पहले कि प्रत्यंचा की डोर चढ़ने से पहले धनुषरूपी मेरी कमर जबाव दे जाती, ‘घुघुतीघोल’ आ गया.
यहां अंदर एक चाख में परिवार का मुख्या मिट्टीतेल के लैंप की मध्यम रोशनी में रिंगाल से ‘महौट’ बनाने में तल्लीन था और उसकी हमसफर बाहर एक किनारे पर पत्थर के चूल्हें में खाना बनाने में लगी थी. हमारे सांथी पोर्टरों ने उनसे कुछ बात की तो उन्होंने अपना रिंगाल का सामान किनारे रख वो चाख हमें सौंप दी. हमने अपने सामान को तरतीब से लगाया. टीआरसी की बड़ी सी गंदी मैटरस को बिछा सबने अपने सिलिपिंग बैग तान लिए. राजदा और विजय वर्मा उर्फ ‘विजयदा’ ने बाहर खाना बनाने का मोर्चा तैंयार कर लिया. गया मैं भी ये कहने कि कुछ मदद करूं करके, लेकिन ये बात मैंने हल्की आवाज में गुड़मुड़ाते हुए कही ताकि वो मेरी बात सुन कहीं काम में न लगा दें. कोई उत्तर न मिलने पर कुछ देर वहीं बैठ आग सेकता रहा. खाना तैंयार हो चुका था. सब थके थे. उनींदे में ही सबने आधा-अधूरा खाना खाया और सो गए.
जारी..
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