क्यो उबल रहा है बासुलीसेरा

Newsdesk Uttranews
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सिर देंगे सेरा नहीं देंगे : गगास घाटी के लोग गुस्से में : चारू तिवारी

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बासुलीसेरा के ग्रामीणों ने कहा है- ‘सिर देंगे, सेरा नहीं देंगे।’ अल्मोड़ा जनपद की गगास घाटी आजकल गुस्से में है। यहां एक नये आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। यह घाटी उपजाऊ सेरों के लिये प्रसिद्ध है। यहां का बासुलीसेरा कभी उत्तर प्रदेश में भी सबसे उपजाऊ खेती के लिये जाना जाता था। यह उत्तराखंड के ऐसे क्षेत्रों में से है जहां कृषि आधारित अर्थव्यवस्था हमेशा से मजबूत रही है। गांवों से अपेक्षाकृत बहुत कम पलायन है। यही वजह है कि इस खूबसूरत घाटी के गांव अभी अपने पंरपरागत संसाधनों को बचाये हुये हैं। एक तरफ सरकार पलायन रोकने के लिये आयोग बनाने का ढोंग करती है, दूसरी तरफ इन क्षेत्रों में विकास के नाम पर उनकी खेती को तबाह करने में लगी है। इसका ताजा उदाहरण है बासुलीसेरा से निकलने वाली हाईटेंशन तारों के लिये गाढे जा रहे विशाल बिजली के पोल। यह काम प्रशासन बिना गांव वालों की अनुमति के कर रहा है। प्रशासन जोर जबरदस्ती से किसी भी हालत में इस तार लाइन को खींचना चाहता है। गांव वाले अपनी खेती को बचाने की गुहार जिलाधिकारी, विद्युत विभाग और जनप्रतिनिधियों से कर चुके हैं, लेकिन ग्रामीणों की सुनने को कोई तैयार नहीं है। इतना ही नहीं प्रशासन गांव वालों को सरकारी काम में बाधा डालने के आरोप में जेल भिजवाने की धमकी दे रहा है। इसके विरोध में ग्रामीणों ने ज्ञापन, धरना-प्रदर्शन, सरकार का पुतला दहन कार्यक्रम भी कर दिये हैं। ग्रामीणों ने प्रशासन से यह भी कहा है कि वह गांव के पीछे से जितनी जमीन पोल के लिये चाहिये ले सकते हैं, वहीं से लाइन खींचिये। प्रशासन इस बात को मानने को तैयार नहीं है। अब बासुलीसेरा के लोग एक बड़े आंदोलन का मन बना रहे हैं। उन्हें कई आंदोलनकारी संगठनों को समर्थन प्राप्त हो रहा है।

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बासुलीसेरा के ग्रामीणों के आंदोलन को समझने से पहले हम इस महत्वपूर्ण जगह के बारे में जानते हैं। अल्मोड़ा जनपद की गगास नदी के किनारे बसे बासुलीसेरा का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक के अलावा कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के माॅडल के रूप में विशेष महत्व है। यहां की एक बड़ी आबादी इन्हीं खेतों से उपज पैदा कर सदियों से आत्मनिर्भरता से अपना जीवन-यापन करती रही है। इसमें हाट, नौसार, डोटलगांव, भंडरगांव पनेरगांव, ईडा, पेटशाल के किसानों की जमीन है। कभी इस क्षेत्र को ‘धान का कटोरा’ नाम से जानते थे। इसे हम बदरीनाथ की जमीन के रूप में पहचानते हैं। यहां के अनाज का हिस्सा बदरीनाथ को भेंट किया जाता है। यहां के लोग हमेशा अपनी कृषि को उन्नत करने के लिए जाने जाते हैं। कभी बासुलीसेरा के बैलों की जोड़ी का मतलब था संपन्नता का द्योतक। जब आज ‘सरकारी विकास’ ने पूरे पहाड़ को लील लिया है। विकास के नाम पर नासमझ सरकारें लोगों को गांव से खदेड़ने का काम कर रही हैं, ऊपर से हमें ही पलायन रोकने के आयोग की लफ्फाजी से बरगला रही है, वहीं वह बासुलीसेरा के महत्वपूर्ण सेरे के ऊपर से हाईटेंशन बिजली लाइन ले जाकर यहां की न केवल खेती को खतरे में डाल रही है, बल्कि लोग के जीवन से भी खेलने का नासमझी कर रही है। ग्रामीणों का कहना है कि वे किसी भी हालत में इस हाईटेंशन तारों से अपनी खेती को खोना नहीं चाहते। उन्होंने एक नारा दिया है- ‘सिर देंगे, सेरा नहीं देंगे।’

विकास के नाम पर सरकारें क्या करती हैं यह बताने की जरूरत नहीं। पिछले साल चैखुटिया के झाला-हाट गांव में जिस तरह से हवाई पट्टी बनाने की बात कही जा रही थी और उसे विकास के साथ जोड़ा जा रहा था वह जनप्रतिनिधियों की नासमझी का प्रमाण था। स्थानीय विधायक ने बिना इस योजना के बारे में समझ अखबारों में बयान दिया था कि हवाई पट्टी उन्हीें के प्रयासों से बन रही है और उससे क्षेत्र के विकास को नई दिशा मिलेगी। उन्हें यह भी पता नहीं था कि यह पट्टी किस उपयोग के लिये बन रही है। जो जनप्रतिनिधि पुलिस थाने और चैकियां खोलने को विकास मानते हों उनसे विकास की समझ की उम्मीद करना बेमानी है। हाट-झाला जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से अल्मोड़ा जनपद के सबसे बड़े गांवों में से एक है। यह उत्तराखंड में सबसे ज्यादा अनाज पैदा करने वाले गांवों में से भी एक है। लेकिन विकास के नाम पर इसे लीलने के लिये सरकार या जनप्रतिनिधि कोई भी कदम उठा सकते हैं। बासुलीसेरा के साथ भी यही हो रहा है। यहां बताया जा रहा है कि विकास के लिये कुर्बानी तो देनी ही पड़ती है। विभाग यहां ग्रामीणों की अनुमति के बिना 132 केवी के हाईटेंशन विद्युत लाइन डालने पर आमादा है। ग्रामीणों ने जब से सुना कि उनके खेतों के ऊपर से यह लाइन ले जायी जा रही है तो उन्होंने अपने स्तर से हर जगह इसका विरोध किया। विभाग का कहना है कि एक डबल सर्किट टावर पर 132 केवी सिंगल सर्किट योजना विभागीय नियमों व राज्य सरकार के निर्देशानुसार रानीखेत-बागेश्वर लाईन योजना के नाम से स्वीकृत की गई थी। जिसे 44 किलोमीटर क्षेत्र में बिछाया जाना है। जिसके लिये नियमानुसार विज्ञप्ति विभिन्न समाचार पत्रों में दिनांक 15 नवंबर, 2011 को प्रकाशित की गई थी। उक्त विज्ञप्ति के माध्यम से विभाग द्वारा किसी को भी कोई आपत्ति होने के कारण एक महीने के अंदर प्रतिवेदन मगांये थे। विभाग ने यह भी बताया कि समय पर बजट न आने के कारण यह काम शुरू नहीं हो पाया। अब जब विभाग को पूरा बजट मिल गया है तो इस लाइन को बिछाने की प्रक्रिया शुरू की गई है। अपने वकील के माध्यम से विभाग ने ग्रामीणों को एक नोटिस भी भेज दिया है, जिसमें ग्रामीणों को इस योजना के विरोध करने को गैरकानूनी बताया गया है। धमकी भी दी गई है कि अगर विभाग के ठेकदार द्वारा किये जा रहे काम में बाधा डाली गई तो कानूनी कार्यवाही की जायेगी।

विभाग के वकील से नोटिस मिलने के बाद ग्रामीण गुस्से में हैं। उनका कहना है कि हमारे पास अखबार आते ही कहां हैं। विभाग ने किस अखबार में इस सूचना दी उन्हें नहीं मालूम। विभाग और प्रशासन को ग्रामीणों के बीच अपने पटवारी या विभाग के माध्यम से इश्तहार घुमाना चाहिये था जिससे गांव वालों को पता चल सके कि उनकी जमीन पर क्या होने जा रहा है। किसी की जमीन पर बिना उसकी अनुमति किसी भी प्रकार का काम करना अतिक्रमण की श्रेणी में आता है। ग्रामीणों ने भी इस नोटिस के जबाव में न्यायालय जाने का फैसला लिया है। ग्रामीणों का कहना है कि ऐसे प्रयोजन के लिये जब जमीन अधिग्रहित की जाती है तो उसके लिये विधिवत जनसुनवाई होनी चाहिये। ग्रामीणों का आरोप है कि जब हमने प्रशासन को अपनी समस्या बताई तो 24 नवंबर, 2018 को प्रशासन ने 24 घंटे के नोटिस पर एक बैठक रखी। यह बैठक ऐसे समय पर रखी जब अक्टूबर और नवंबर के महीने में असोज (काम-धंधे) का महीना लगा होता है। ऐसे में बहुत कम लोग बैठक में शामिल हो पाये। इस बैठक में ग्रामीणों ने परगानाधिकारी द्वाराहाट को एक ज्ञापन सौंपकर सरे को बचाने का अनुरोध किया। इसमें उन्होंने इस मीटिंग के बारे में समय पर सूचना न देने की बात भी कही। गांव वालों को कहना था कि यह जमीन कई गांवों की है। समय पर सूचना न होने के कारण बड़ी संख्या में किसान मीटिंग में अपना पक्ष रखने नहीं आ पाये। ग्रामीणों ने अपने ज्ञापन में कहा कि यहां की जमीनों के कारण ही यहां का पलायन रुका है, लेकिन सरकार इसी जमीन से उन्हें जबरन बेदखल करना चाहती है। इस पर परगनाधिकारी ने उचित रास्ता निकालने की बात कही थी, लेकिन इसके उलट अब विभाग द्वारा अपने वकील द्वारा किसानों को कानून का भय दिखाकर धमकाने का नोटिस दिया गया है।

इस नोटिस के विरोध में सेरा बचाओ संघर्ष समिति ने पिछले 25 दिसंबर, 2018 को एक बैठक कर विभाग के सारे आरोपों का खंडन करते हुये कहा है कि यदि विभाग और प्रशासन जबरदस्ती उनक खेतों में लाइन डालने के कोशिश करेगा तो बड़ा आंदोलन खड़ा किया जायेगा। इसमें क्रमिक, आमरण अनशन और जक्का जाम शामिल हैं। इस बैठक में सेरा बचाओं संर्घष समिति के अध्यक्ष इन्द्र सिंह बेारा, सचिव गोबिन्द सिह भंडारी, ग्राम प्रधान दीपा देवी, क्षेत्र पंचायत सदस्य प्रतिनिधि विमल बिष्ट, महिला मंगल दल की अध्यक्ष चंपा देवी, सरपंच राजेन्द्र सिंह अधिकारी, श्याम सिंह बोरा, सुरेन्द्र नेगी, नौसारी के ग्राम प्रधन नवीन कठायत, पूरन भरड़ा, आनंदी देवी, बसंती देवी, ख्यालीराम, लाल सिंह भंडारी, इंद्र सिंह, प्रकाश बनेशी, सुनील बनेसी, रूप सिंह, सोनू नेगी, लाल सिंह बनेशी, बहादुर सिंह आदि उपस्थित थे। संघर्ष समिति ने विभाग से सूचना के अधिकार के तहत वह सब जानकारियां मांगी हैं जिसके आधार पर उन्हें सरकारी काम में बाधा डालने का नोटिस वकील के माध्यम से दिया गया है। समिति ने पूछा है कि अखबारों की वह सूचना भी उपलब्ध कराई जाये जिसके आधार पर गांव वालों से अनापत्ति मांगी गई थी। लेकिन विभाग इन सूचनाओं को देने में भी आनाकानी कर रहा है। फिलहाल संघर्ष समिति ने राज्य के विभिन्न हिस्सों में आंदोलनरत संगठनों से सहयोग की अपील की है। बहुत सारे संगठनों ने उन्हें भरोसा दिलाया है कि जब भी बासुलीसेरा में जमीन को बचाने के लिये आंदोलन होगा हम सब साथ खड़े होंगे। फिलहाल 2 फरवरी, 2019 को उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के तत्वावधान में ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन की 35वीं वर्षगांठ के अवसर पर चैखुटिया में होने वाले राज्यस्तरीय सम्मेलन में बासुलीसेरा के सवाल को रखा जायेगा। 3 फरवरी, 2019 को रामनगर में होने वाले सम्मेलन में भी इस मांग को उठाया जायेगा। 4 फरवरी, 2019 को उत्तराखंड क्रान्ति दल द्वाराहाट में होने वाले प्रदर्शन में इस मांग को प्रमुखता से उठाने जा रहा है। कई बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता भी इस आंदोलन से जुड़ रहे हैं। सबका मानना है कि जहां सरकार राज्य में खतरनाक भूमि कानून लाकर गावों की जमीन को एकमुश्त बेचने की साजिश में लगी है, वहीं जो लोग अपनी जमीनों से दो रोटी कमा रहे हैं उन्हें भी भय दिखाकर ‘विकास’ के नाम पर खदेड़ रही है। बल्ली सिंह चीमा कहते हैं-

रोटी मांग रहे लोगों से किसको खतरा होता है,
यार सुना है लाठी चारज हल्का-हल्का होता है।
सिर फूटे या टांगें तोड़े, ये कानून के रखवाले,
देख रहें हैं दर्द कहां पर, किसको कितना होता है।
बातों-बातों में हम लोगों को वों सबकुछ देते हैं,
दिल्ली जा कर देख लो कोई रोज तमाशा होता है।
हम समझे थे इस दुनिया में दौलत बहरी होती है,
हमको ये मालूम न था कानून भी बहरा होता है।
कड़वे शब्दों की हथियारों से होती है मार बुरी,
सीधे दिन पर लग जाए तो जख्म भी गहरा होता है।

संघर्ष समिति का कहना है कि हमारे स्कूल, अस्पताल बंद करने के लिये मानक तय हैं, हमारी बेहतरी के लिये मानक क्यों तय नहीं किये जा रहे हैं? आखिर यह सरकार विकास किसका करना चाहती है? जब हम ही नहीं रहेंग तो तो विकास किसका? आइये इस लड़ाई में हम सब बासुलीसेरा के लोगों के साथ खड़े हों। किसी न किसी बहाने हमारे जमीनों पर हो रहे सरकारी कब्जों के खिलाफ लड़ाई लड़ें। हम इस लड़ाई को लड़ेंगे और जीतेंगे।

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