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झूठे वादों में उलझे विज्ञापनों के दावे कितना झूठा-कितना सच्चा विज्ञापनों का दावा?

उत्तरा न्यूज टीम
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डॉ. महेश परिमल

इन दिनों टीवी-अखबारों में इम्युनिटी बढ़ाने वाले विज्ञापनों की भरमार है। सभी यही दावा कर रहे हैं कि हमारे उत्पाद का इस्तेमाल करने के बाद आप पूरी तरह से सुरक्षित हो जाएंगे। कोरोना भी आपसे दूर ही रहेगा।

पर एक बार पर शायद किसी ने गौर नहीं किया होगा, ये सारे उत्पाद पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं। वे अपने उत्पाद को 99% तक सुरक्षित बताते हैं। बचे एक प्रतिशत में ही पूरा खेल होता है। इस एक प्रतिशत के कारण ही उत्पादक स्वयं को बचा ले जाते हैं और उपभोक्ता कुछ नहीं कर पाता। कुछ उत्पादक इससे बढ़कर अपने उत्पादक को 99.99% तक सुरक्षित बताते हैं। यह भी दशमलव 1 प्रतिशत का सवाल खड़ा हो जाता है।

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खुद को बचाने का राज ही दशमलव एक प्रतिशत में ही छिपा है। जो उपभोक्ता की समझ से बाहर की बात है।

इन कीटाणुनाशी उत्पादों के 99.9 प्रतिशत के दावों पर संदेह किया जाए या नहीं, यह अपने आप में एक मुद्दा है। हमारी चिंता तो उन बचे हुए 0.1 प्रतिशत जर्म्स की है, जिन्हें ये उत्पाद घोषित रूप से नहीं मार पाते। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। कोरोनावायरस समेत सारे वायरस निर्जीव कण होते हैं, इसलिए मारने की बात ही बेमानी है। मरे हुए को क्या मारेंगे? लेकिन मान लेते हैं कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत कोरोनावायरस को भी मार डालेंगे और 0.1 प्रतिशत को बख्श देंगे। सवाल है कि ये 0.1 प्रतिशत क्या करेंगे? इन 0.1 प्रतिशत का हश्र देखने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में झांकना होगा।

एंटीबायोटिक प्रतिरोध का कारण क्या है? बैक्टीरिया का जीवन चक्र और प्रत्येक पीढ़ी का समय मिनटों और घंटों में होता है। जब इस तरह के बैक्टीरिया के खात्मे के लिए कॉलोनी में एंटीबायोटिक दवा का छिड़काव किया जाता है, तो पूरी कॉलोनी से 99.9 प्रतिशत बैक्टीरिया का सफाया हो जाता है।

अब जो शेष दशमलव 1 प्रतिशत बैक्टीरिया कुछ समय बाद फिर सक्रिय हो जाते हैं। धीरे-धीरे इनकी संख्या में बढ़ोत्तरी होती रहती है। उन बैक्टीरिया के सामने कोई प्रतिस्पर्धी न होने के कारण उनकी वृद्धि तेजी से होने लगती है। अब जो बैक्टीरिया की नई प्रजाति सामने आई, वह कॉलोनी में छिड़के गए एंटीबॉयोटिक दवाओं से अछूती होती है। इन पर उस दवा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए इनकी संख्या में बेशुमार तेजी होने लगती है।

कुछ समय बाद ये पूरे इलाके में काबिज हो जाते हैं। ये नई प्रजाति और भी मजबूती के साथ इंसानों पर हमला करती है। यही हमला इंसानों के लिए जानलेवा बन जाता है। यही हाल डीडीटी का भी हुआ था और विभिन्न कीटनाशकों (पेस्टिसाइड्स) का भी। और अब हम घर-घर पर, सतह-सतह पर यही प्रयोग दोहराने को तत्पर हैं। सोचने वाली बात यह है कि यदि एक साथ इतने सारे जर्म-नाशी निष्प्रभावी हो गए तो क्या होगा? मेरे विचार से अब दशमलव एक का आशय समझ में आ गया होगा।

हमारे सामने पंजाब का उदाहरण है, जहां खेतों में इतना अधिक कीटनाशकों का उपयोग किया गया कि कुछ समय बाद वहां किसी भी तरह का कीटनाशक उपयोगी साबित ही नहीं हुआ। इधर कीटों की संख्या बढ़ती गई, उधर किसान पुत्र कैंसर से ग्रस्त होने लगे। दोनों तरफ से बरबादी का खेल शुरू हो गया। पूरी एक ट्रेन का नाम “कैंसर एक्सप्रेस” ऐसे ही नहीं पड़ा होगा।

यह तो सभी जानते हैं कि बैक्टीरिया को खत्म करने का दावा करने वाले उत्पाद पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं। फिर भी लोग खरीद ही रहे हैं। तमाम क्रीमें व्यक्ति को गोरा नहीं बना सकती, फिर भी विज्ञापन दिखाए जा रहे हैं, वे दावा भी कर रहे हैं, पर दावे थोथे साबित हो रहे हैं। फेयर एंड लवली क्रीम का उदाहरण हम सबके सामने ही है। कोरोना को देखते हुए विज्ञापनों में यह दावा किया जा रहा है कि अमुक उत्पाद के सेवन से व्यक्ति कीटाणुमुक्त हो जाएगा। व्यक्ति कीटाणुमुक्त हो न हो, पर विज्ञापन का उद्देश्य तो पूरा हो गया, क्योंकि विज्ञापनों में किए गए दावों से प्रभावित होकर व्यक्ति को उस उत्पाद के सामने खड़ा तो कर ही दिया। विज्ञापन का उद्देश्य ही होता है कि व्यक्ति उत्पाद के सामने आ जाए, उसके बाद उसे खरीदना या न खरीदना तो दुकानदार के व्यवहार पर निर्भर करता है।

ऐसे विज्ञापनों के दो उद्देश्य होते हैं – पहला उद्देश्य प्रत्यक्ष होता है उस उत्पाद विशेष की बिक्री को बढ़ाना। लेकिन दूसरा उद्देश्य भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है–उस श्रेणी के उत्पादों की ज़रूरत की महत्ता को स्थापित करना। जैसे, गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन उस क्रीम विशेष की बिक्री को बढ़ाने की कोशिश तो करते ही हैं, गोरेपन को एक वांछनीय गुण के रूप में भी स्थापित करते हैं। तो कीटाणुओं का नाश करने वाले उत्पादों के विज्ञापन कीटाणुओं के नाश होने के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।