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विश्लेषण- अब होली बैठकी में न वैसी मजदारी रही न वैसे गवयै, एकल गायन ने किया रंग में भंग

Newsdesk Uttranews
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‘पिया हम ही संग खेलो होरी, तोड़ो न प्रीत की नाजुक डोरी’

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–वरिष्ठ पत्रकार नवीन बिष्ट का आलेख

इसमें कोई दो राय नहीं कि अल्मोड़ा विविध सांस्कृतिक विधाओं की विरासतों की समृद्ध थाती है। इसका अपना इतिहास भी लोक परंपराओं के वैभव से सुसंपन्न है। इसकी तस्दीक इस बात से होती है कि यहां नृत्यसम्राट उदय षंकर, अमला शंकर, गुरू दत्त, स्वामी विवेका नन्द, बोसी सेन जैसे अनगिनत सुविख्यात मनीषियों ने अपना कर्मस्थल बनाया। इससे यह तो पता चलता ही कि कुछ तो ऐसा है अल्मोड़ा की माटी में है कि इसका आलोक तो दुनिया जहान में देखने को मिलता है। वह कला जगत के षिखर की बात हो या कि साहित्य-संस्कृति , राजनीति हो या कि थल सेना, जलसेना के शीर्ष पदों को सुषोभित करने की बात हो या प्रषासनिक पदों का सर्वोच्च पद हो अल्मोड़ा नगरी की हिस्सेदारी देखने को मिलते आई है। बहरहाल अभी तो फागुन की अलमस्त बयार अपने योवन पर बह रही है, अपने साथ अबीर गुलाल चटख रंग लेकर बरस रहे हैं,ऐसे में यदि सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा की परंपरागत होली का जिक्र न हो तो बात नहीं बनेगी। आपको बताएं कि पौष मास के प्रथम रविवार से षुरू होने वाली बैठकी होली की महफिलों की रवायत अल्मोड़ा में न जाने कब से चली आ रही है, इसको तस्दीक करने का कोई प्रमाणिक पैमाना तो नहीं है, लेकिन सुनते सुनाते वाली हमारी परंपरा को साक्षी मान कर कमोबेष पौने दो सौ साल का सफर कुमाउं की बैठकी होली का कहा जा सकता है। आज जिस रूप में षास्त्रीय रागों पर आधारित कठिन राग रागिनियों को हम सहज सरल रूप में गा पा रहे हैं इसको सरल बनाने का श्रेय जाता है रामपुर घराने के उस्ताद अमानत खां सहाब को। जिन्होंने 14 मात्रा में गायी जाने पाली ठुमरी को 16 मात्रा में सुगम बना कर आम होल्यारों के लिए अपने विषिष्ठ कौशल का उपहार देकर उपकृत किया है। इन पौने दो सौ सालों में बैठकी होली के चलन व गायकी में अंगुली में गिने जाने वाले होली गायक अपनी परंपरगत गायकी को संजोए हुए हैं। रामपुर घराने के जिस उस्ताद ने ठुमरी को लोक धरा पर उतारने का काम किया था कुछ नए अतिउत्साहित तथाकथित कलाकार उस महान कलाकार के सृजन को भी निर्लजता से बिगाड़ने का काम करने से गुरेज नहीं कर रहे हैं। जिसके कारण होली की विरासत पराई सी हो चली हैं। अभी जो बचेखुचे होल्यार होली गायकी के लोकपक्ष को जिन्दा रखे हुए हैं, यदि वह बैठकों में आना छोड़ देंगे तो कुमाउं की मौलिकता समाप्त ही हो जाए तो कोई आष्र्चय नहीं होगा। जब हमारी कुमाउं की बैठकी होली पूरी तरह ठुमरी बन जाएगी तो वह कुमाउंनी बैठकी होली कहां रह जाएगी ? सच बात तो यह है कि कुमाउं की बैठकी होली शास्त्रीय रागों पर होते हुए भी लोक मानस में ऐसी रची बसी हेै कि इसे लोकोत्सव में गाए जाने वाले गीतों की तरह हर होल्यार पूरी रंगतदारी के साथ गाता है, उसे इस बात से कोई लेनादेना नहीं कि उसे अपना “सा” का पता है या नहीं। उस होल्यार ने होली की बैठकों में अपने से आगे वाले होल्यारों या गायकों से जैसा सुना उसी खांचे में गीत को बांध कर बारीकी से जिस राग को वह जानते ही नहीं उसके आरोह अवरोह में श्रुति भर की कमी के बिना बेहिचक गातो हैं, इसे आप क्या कहेंगे, यही है हमारी बैठकी होली की परंपरा या रवायत, जिसमें कोई उस्ताद नहीं, सभी होल्यार हैं। जिसकी मौज आई उसने गीत में भाग लगा दी, पूरी तन्मयता के साथ। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं होता था, यही होती थी बड़ी महफिलो की मजदारी। इस सबके बावजूद अनंुशासन कड़ा होता था, मर्यादाओं की अनदेखी कोई नहीं कर पाता था। वह बिना रागों की जानकारी के होली गीतों को पूरे मनोयोग से गाता है। कुछ नए गायकों ने अपनी सुविधा व अपने को अलग दिखाने के बहाने जिन रागों में होली गायकी की परंपरा नहीं रही है, उन रागों में भी होली गायकी को षामिल करने से परहेज नहीं कर रहे हैं। जिसके कारण सामान्य होली रसिक इन बैठकों से कन्नी काटने लगे हैं। हांलाकि ठुमरी अंग की द्रुत गति की गायकी सामान्य श्रोता को सुनने में मीठा भले ही लग रहा हो लेकिन टिकाउ नहीं हो पा रहा है। यहां की परंपरा है कि होली की बैठकों में जाने वाले षौकीन लोग होली की अंतरा या मुखड़े में भाग (गाने) लगाने के लिए लालायित रहते हैं। लेकिन एकल गायकी के होल्यार दूसरे को मौका देते ही नहीं। इस दौर में कुछ होली गायको ने अपनी एकल गायन की जिद से परंपरागत होल्यारों की मजदारी को किरकिरा कर दिया है। ऐसा लोग कहते देखे जा सकते हैं। इस सांस्कृतिक नगरी की बैठकी होली की परंपरा रही है कि मुख्य होल्यार ने होली षुरू की तो जितने लोग बैठकी में आए हैं सभी क्रम से गायन में हिस्सेदारी करते थे, लेकिन आज मजाल है कि आप बिना गायक की इजाजत के गायन में षामिल हो सकते हैं। यदि गायक साहब की मस्ती में कहीं कोई खलल पड़ जाए तो समझो कि खैर नहीं ! आपको महफिल में रूसवा भी होना पड़ सकता है।
यदि पौने दो सौ साल पहले की बात करें तो पुराने लोगों से जो सुना, उसके आधार पर जानकारी यह है कि संध्या से बैठकी षुरू होती थी राग काफी से कुछ लोग ष्याम कल्याण या यमन राग से बैठकी होली का आगाज करते थे, बिना किसी तान या अलाप के सीधेेेेेे-सीधे होली गाने की रवायत रही है ऐसा परंरागत होली के ठेठ गायकों का कहना है। इस बावत यहां के लब्धप्रतिष्ठित 71 वर्षीय होली गायक दिनेष पाण्डे वैद्य से पूछने पर कि आज की होली गायकी में क्या फर्क देखते हंै ? उनकी पहली प्रतिक्रिया है कि, अब वो मजदारी तो रही नहीं और नहीं वैसे गवयै, परंपरागत गायकी को नए गायकों ने दूषित कर दिया है। उन्होंने कहा कि 1970 से लगातार बदलाव देखते आ रहा हूं। जिन रागों पर होली गाने की मनाही थी आजकल के गायक उन रागों पर भी होली गाने लगे हैं। ऐसे में क्या होगा परंपरा का निर्वहन। नए लोग तो अब रागों की भी रचना करने लगे हैं। कुलमिला कर माजूदा दौर से नाखुष होते हुए कहा कि सामुहिक गायन को एकल गायन बना डाला है जो यहां की होली बैठकी को बेमजा कर रही है। उल्लेखनी है कि दिनेष पाण्डे वैद्य हेमन्त वैद्य के पुत्र हैं जिनके आवास पर पूष के पहले रविवार से षुरू होकर बैठकी होली टीके तक चलती थी। लेकिन आज के दौर में अब केवल होली में ही एक दिन की बैठक हो रही है।
63 वर्षीय विनोद जोषी का कहना है कि 1973 के दौर से बैठकों में जा रहा हूं। वह ऐसा दौर था जब पुराने गायकों की जमात में संगीत के षिक्षक तारा प्रसाद पाण्डे का प्रवेष हुआ वह लखनऊ से संगीत की विधिवत षिक्षा लेकर आए। उनकी गायकी का अलग अन्दाज था। नए लोगों ने काफी पसंद किया। जबकि पुराने गायकों ने उस गायकी को स्वीकार नहीं किया। आज सबसे बुरी बात यह है कि एकल गायन की परंपरा चल पड़ी जो सामुहिक भागीदारी को समाप्ती की ओर ले जारही है। आज होली गायकों के भी गुट हो गए हैं। स्थिति यह हो गई है गवयै अपने-अपने तबलिए साथ लेकर बैठकों में जा रहे है। नए लोगों ने होली गायकी के माधुर्य को ही समाप्त कर दिया है।
बहरहाल यदि बहुत पीछे न जाकर 1921 के दौर के गायकों का जिक्र करें तो उनमें षिव लाल वर्मा, गफ्फार अहमद अच्छन, हरि दत्त तिवारी, गोविंद बल्लभ तिवारी, पंचानन्द सनवाल, कान्ति बल्लभ सनवाल, रामलाल वर्मा, केषव लाल साह, गंगा सिंह बिष्ट, ष्याम लाल साह, मोहन लाल साह, गुलाम उस्ताद, गुसाई लाल जगाती, मथुर लाल साह, मधु सूदन गुरूरानी, आनन्द लाल साह, मदन मोहन अग्रवाल, परंमानंद गुरूरानी, रमजानी, नृसिंह, सगीर अहमद, पिरी साह, जगत सिंह, राम सिंह का दौर 1951 तक रहा। इसके बाद षिवचरण पांडे, तारा प्रसाद पांडे, उदय लाल साह, वेद प्रकाष बंसल, प्यारे लाल साह, नन्दन जोषी, खीम सिंह बिष्ट, बृजेंद्र लाल साह, मोहन लाल वर्मा, हीरा लाल ब्रतपाल अग्रवाल, पूरन सिंह,गोविंद सिंह, चंद्र दत्त तिवारी, कान्ती बल्लभ, लीलाधर, देवी दत्त उप्रेती,, लली उस्ताद,, अजीज खानसामा, बसंत कुमार वर्मा, हामिद अहमद , इलाइची, बिषन दत्त कर्नाटक, उदय लाल साह, लक्ष्मी लाल वर्मा, लीलाधर पांडे, रमेष भट्ट, कैलाष थापा, विजय कुमार वर्मा राजा, पूरन चंद्र तिवारी, राजेंद्र लाल साह, राजेंद्र बोरा त्रिभुवन गिरी, प्रभात साह गंगोला, कंचन तिवारी, धरनीधर पांडे, नवीन बिष्ट, राजेंद्र बिष्ट, अषोक साह, मुकुल पंत, विनोद बंसल, मोहन चंद्र, देवी लाल वर्मा, सोनू पांडे, हेम पांडे, अषोक पांडे, निर्मल पंत, महावीर प्रसाद, सुनील कुमार, मुकुल कुमार, अनूप कुमार, राजेष प्रसाद, रवि प्रसाद,डा. केपी कर्नाटक, राजा वर्मा, एडी पांडे, निर्मल पंत , चंदन लाल, राजेंद्र बिष्ट, अरसद हुसैन, प्रमोद कुमार, अनिल सनवाल, राजंेद्र नयाल, सुनील कुमार, सुमन लाल, धीरज कुमार धीरू, राजेंद्र तिवारी, कंचन तिवारी, संतोष पांडे, हरीष कांडपाल
सहित सैकड़ों होली गायक व तबला वादक परंपरा को बरकरार रखने का काम कर रहे हैं। अनगिनत ऐसे नाम उल्लेखित नहीं हो पाए हैं जिनका होली के स्वरूप को बरकारार रखने में महत्वपूर्ण भूमिका है। कुलमिला कर कई विषमताओं के बाद भी कामना अच्छी करनी चाहिए कि हमारी होली चिरकाल तक चलती रहेगी। रहा बचा अगली होली में………..।