पहले अंक से आगे
राजीव जोशी
नगरौड़ा की ओर जाने वाली पगडंडी में अब एक लम्बी कतार थी। उसमें हम थे, बच्चे थे और एकाध बुजुर्ग भी थे। मसूर, गेहूँ और सरसों के पौधे अपनी गर्दन मिट्टी से बाहर तान चुके थे तो बन्दर और लंगूरों की गश्त भी बढ गयी थी। ओहोहोहोहो-ह्वाट की दो-तीन आवाजों के बीच यात्रा में शामिल बच्चों का उत्साही शोर भी शामिल हो गया। अब आगे को हमारी यात्रा में चहल-पहल थी। हम सामने नगरौड़ा को देख रहे थे और नगरौड़ा हमें।