उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में एक और जहां भाजपा ने नगर निगम चुनाव में ऐतिहासिक जीत हासिल की तो वहीं त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भाजपा की हालत काफी खराब दिखाई दी। जिसकी वजह से पार्टी के सामने गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं।
भाजपा का गढ़ माने जाने वाले देहरादून में गांव ने पार्टी से ज्यादा व्यक्तिगत छवि और स्थानीय मुद्दों को प्राथमिकता दी। संगठन की ग्रामीण क्षेत्रों में पकड़ के साथी दिग्गजों की प्रतिष्ठा को भी देखा गया। अब भाजपा ने सामने आए नतीजे पर मंथन करना शुरू कर दिया है।
देहरादून में कुल 30 जिला पंचायत सीटों में से भाजपा को केवल 7 सीटो पर ही जीत मिली जबकि कांग्रेस ने 12 पर जीत दर्ज कर अपनी साख मजबूत की है। सबसे चौंकाने वाला आंकड़ा निर्दलीय प्रत्याशियों का रहा, जिन्होंने 11 सीटों पर कब्जा जमाकर सत्ता संगठनों को चुनौती दे दी है।
यह वही देहरादून है जहां इसी साल नगर निगम चुनाव में भाजपा ने 100 में से 64 वालों पर अपनी जीत हासिल की थी और महापौर की कुर्सी पर एक तरफ जीत हासिल की थी। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भी भाजपा का वर्चस्व देखने को मिला। जिले के 10 विधानसभा सीटों में 9 पर भाजपा के विधायक जमे रहे।
देहरादून जिन दो संसदीय क्षेत्र में आता है। वहां दोनों सांसद भाजपा के हैं। राजनीतिज्ञों का कहना है कि पंचायत चुनाव में वाटर स्थानीय चेहरों को प्राथमिकता देते हैं यहां पर जातीय समीकरण व्यक्तिगत जनसंपर्क और स्थानीय मुद्दे देखे जाते हैं।
इसकी एक वजह यह भी है कि शहरों में किए गए विकास कार्य गांव में नहीं पहुंच पाते हैं राजधानी में भाजपा की सरकार रहते हुए गांव की समस्याओं को लेकर कोई इतना सजग नहीं है जितनी अपेक्षा की जाती है।
गांवों में सड़कों, बिजली, पानी, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दे अब भी ज्वलंत हैं। इस परिणाम ने भाजपा को स्पष्ट संदेश दे दिया है कि सिर्फ शहरी सफलता ग्रामीण जनाधार को सुनिश्चित नहीं कर सकती।
