सदन में गूंजा पहाड़ की वीरांगना गौरा देवी का नाम, चिपको आंदोलन की प्रेरणा को भारत रत्न दिलाने की पहल किस नेता ने की जाने

देहरादून। संसद का शीतकालीन सत्र इन दिनों गर्माया हुआ है, दोनों सदनों में लगातार चर्चाएं हो रही हैं, इसी माहौल के बीच उत्तराखंड से राज्यसभा…

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देहरादून। संसद का शीतकालीन सत्र इन दिनों गर्माया हुआ है, दोनों सदनों में लगातार चर्चाएं हो रही हैं, इसी माहौल के बीच उत्तराखंड से राज्यसभा पहुंचे सांसद महेंद्र भट्ट ने देश के सामने एक भावुक मांग रख दी है। उन्होंने सदन में खड़े होकर कहा कि चिपको आंदोलन की पहचान बनी और पहाड़ की मातृशक्ति की आवाज कहलाने वाली गौरा देवी को भारत रत्न दिया जाना चाहिए। उनकी इस बात ने पूरे सदन का ध्यान अपनी ओर खींच लिया।

महेंद्र भट्ट ने राज्यसभा में बोलते हुए चिपको आंदोलन की शुरुआत और उसकी संघर्ष यात्रा को याद किया। उन्होंने बताया कि चमोली जिले के जोशीमठ ब्लॉक के रैणी गांव में रहने वाली भोटिया समाज की गौरा देवी ने अपने गांव की औरतों के साथ मिलकर जंगलों को बचाने की लड़ाई लड़ी। उनके मुताबिक गौरा देवी ने अपने पूरे जीवन में जंगलों के लिए जो संघर्ष किया, वही चिपको आंदोलन की असली ताकत बना।

सांसद भट्ट ने कहा कि पहाड़ में पेड़ कटने की शुरुआत का विरोध 26 मार्च 1973 को हुआ था। यह वही दिन था जब रैणी गांव की औरतें एक साथ जंगल पहुंच गईं और पेड़ों को काटने आए लोगों के सामने दीवार बनकर खड़ी हो गईं। उन्होंने बताया कि इस आंदोलन ने देश में पर्यावरण की चर्चा को एक नई दिशा दी और उसकी गूंज हिमाचल, कर्नाटक, राजस्थान, बिहार तक जाती रही। इसका असर इतना गहरा था कि केंद्र सरकार ने लंबे समय तक हिमालयी इलाकों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी। भट्ट ने कहा कि यह आंदोलन दरअसल गौरा देवी के साहस और उनकी दृढ़ता की कहानी है।

चिपको आंदोलन की शुरुआत कैसे हुई, इसे याद करते हुए उन्होंने बताया कि उस समय वन विभाग ने रैणी के पास पेंग मुरेंडा जंगल को ठेके पर दे दिया था। ठेकेदार को करीब साढ़े चार लाख रुपये में बड़े हिस्से में पेड़ काटने की अनुमति मिली थी। लेकिन यह खबर जैसे ही गांव की औरतों तक पहुंची, वे भड़क उठीं क्योंकि यही जंगल उनके परिवार की रसोई के लिए लकड़ी और रोजमर्रा की जरूरतों का सहारा था। गांव की प्रधान रही गौरा देवी ने तुरंत महिलाओं को एकजुट किया और सभी ने तय किया कि जंगल को किसी भी कीमत पर उजड़ने नहीं दिया जाएगा।

जब ठेकेदार के आदमी जंगल पहुंचे, तो महिलाएं सीधे पेड़ों से लिपट गईं। कई दिनों तक उन्होंने लगातार वहां डेरा डाले रखा ताकि कोई दरांती न चल सके। आखिरकार उन्हें ठेकेदार और मजदूरों को जंगल से बाहर करना पड़ा। पेड़ों को अपनी बाहों में भरकर बचाने का यही तरीका आगे चलकर चिपको आंदोलन कहलाया और इसकी आवाज पहाड़ों से निकलकर दिल्ली तक पहुंची, फिर दुनिया भर में इसकी चर्चा हुई।

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