छंजर सभा की काव्य गोष्ठी(Kavya Goshthi) -“आंसू छिपाकर भी रो रहा है आदमी…”

  अल्मोड़ा, 27 जून 2021- छंजर सभा अल्मोड़ा की ओर से हर माह के अंतिम शनिवार को आयोजित होने वाली काव्य गोष्ठी (Kavya Goshthi)वर्तमान कोरोना…

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अल्मोड़ा, 27 जून 2021- छंजर सभा अल्मोड़ा की ओर से हर माह के अंतिम शनिवार को आयोजित होने वाली काव्य गोष्ठी (Kavya Goshthi)वर्तमान कोरोना काल  के कारण इस बार भी वर्चुअली/ऑनलाइन आयोजित की गई।

कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफ़ेसर डॉ.दिवा भट्ट द्वारा की गई,मुख्य अतिथि के रूप में  जगदीश जोशी (हल्द्वानी) मौजूद रहे तथा काव्य गोष्ठी (Kavya Goshthi)का संचालन नीरज पंत द्वारा किया गया।

गोष्ठी का आरम्भ प्रचलित परंपरानुसार माँ सरस्वती वंदना के साथ डॉ.धाराबल्लभ पांडे जी द्वारा हुआ, तत्पश्चात स्थानीय एवं बाहरी क्षेत्रों से आमंत्रित कवि साहित्यकारों द्वारा काव्य रस के विविध रंगों से सराबोर अनेक ज्वलंत एवं वर्तमान समसामयिक विषयों पर आधारित हिंदी व कुमाउनी में रचनाएं काव्य पाठ, ग़ज़ल तथा गीत काव्य रूप में प्रस्तुत कीं।
मुख्य अतिथि  जगदीश जोशी ने कार्यक्रम में प्रासंगिक रचनाओं की सराहना की।
गोष्ठी के अंत में अध्यक्षता कर रहीं विदुषी शिक्षाविद एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ.दिवा भट्ट द्वारा सभी प्रतिभागी कवियों विशेष रूप से बाहरी क्षेत्रों से सम्मिलित हुए कवि साहित्यकारों का स्वागत एवं आभार व्यक्त करते हुए अपनी रचना प्रस्तुत की।
अपने अध्यक्षीय संबोधन में डॉ.दिवा भट्ट द्वारा विभिन्न विधाओं/विविध विषयों पर आधारित अनेक रचनाओं की विवेचनात्मक समीक्षा व पश्चपोषण दिया।
कुछ काव्यपाठों की पृष्ठभूमि में विशिष्ट पहलुओं /बिंदुओं को प्रकाशित करते हुए महत्वपूर्ण साहित्यिक मार्गदर्शन दिया,कोरोना काल में छंजर सभा के अनौपचारिक रहते हुए भी सतत,सादगीपूर्ण साहित्यिक समृद्धि व भव्यता की सराहना के साथ काव्य गोष्ठी के समापन की औपचारिक घोषणा की।
संचालन करते हुए नीरज पंत ने सभी का आभार एवं छंजर सभा के तत्वाधान में आयोजित कार्यक्रमों में अधिकाधिक प्रतिभागिता करने का आह्वान किया।

काव्य गोष्ठी (Kavya Goshthi)में प्रस्तुत कुछ रचनाओं की एक झलक 

 ” मैं झरना हूँ, मैं बहता हूँ उमंगें साथ में लेकर……      
                                       — डॉ हेम चन्द्र तिवारी 
 ‘ठीक उसी तरह फिर कभी कुछ नहीं होता
   दोहराव भी ठीक पहले जैसा नहीं होता’…
                                        — डॉ.दिवा भट्ट
 ‘रोज़ तेरी ग़लतियों को जिस तरह  गिनवा  रहा  हूँ
   सच बताऊँ मैं कि अब ख़ुद से भी आजिज़ आ रहा हूँ’…
                                — मनीष पन्त
 ‘कर रही हूँ मैं ,सबसे यह फरियाद 
  खुद व समाज को कर लो नशे के चंगुल से आज़ाद !….
                                   — कमला बिष्ट
 ‘शब्द – शब्द बुनकर,बूंद- बूंद नैनों से पिघल कर,
   एक लंबी प्रसव पीड़ा के बाद,कोई धीरे से कहेगा,
   सुनो! पैदा हुई है,सचमुच एक कविता’….
                                     — मीनू जोशी
 ‘नै चैन हामन यसी व्यवस्था, य बीमार व्यवस्था कै बदवो.
   पैली आपण ईलाज करावो, तसिक गौवा बल्द नै बडो.
                                     — डा0 डी0एस0बोरा
 ‘मेरी ज़िंदगी एक ख्वाब है,चाहे जितना तुम इसे देख लो…
                                      — हेम दूबे
 ‘आइना झूठ सही, मन  तो गवाही देगा
   दिल पे रख हाथ जरा, सच ही सुनाई देगा।
   उनके कानों में सियासत की ख़नक बसती है
   अब कहाँ शोर गरीबों का सुनाई देगा….
                            — डॉ. राजीव जोशी(बागेश्वर)
 ‘ दिन तो था उलझनों से भरा 
   दिल की बात मैं सुन न सका
   हर पल लगता है कि तू आएगी
   तेरी खुशबू से आंगन भर गया…
                                      —  नीरज पंत
‘ धात लगूनै,पितरोंकी थात, घटैकि घरघराट,
    नौवैकि छलछलाट,भकारों भरि अनाज,
     त्यार-ब्यारनौक चमचमाट।।
                            —  सोनू उप्रेती ‘साँची'(हल्द्वानी)
 ‘ ज़िंदगी का बोझ यूँ ढो रहा है आदमी
    आंसू छिपाकर भी रो रहा है आदमी…
                                      — कुमार धीरेन्द्र
 ‘ नि कर दे मनखि तू कुड़बुद्धि, जुगत लै हुनी नानि ठुली
    केजे मुचि आपै धै नि मैं आपणै कुचि…
                                        —  राजेन्द्र रावत
 ‘ कैसे समझायें इन दिशाहीन नादानों को कि
    ज़िंदगी किसी और की नहीं तुम्हारी अपनी है…
                                         — नीलम नेगी
 ‘ हिमाल की ओ मायाली लड़कियों
    तुमने पाली मन में माया हल्दी के फूल सी…
                                         — प्रेमा गड़कोटी
 ‘ नियति में एक से रहे इजा और पहाड़
    कई बार हिली पर नहीं टूटी इजा 
    तमाम विवशताओं के साथ,मैं जितना दूर आई
    उतने पास आते गए ईजा और पहाड़…
                                    — मीना पाण्डे (दिल्ली)
 ‘ युग दधीचि की हड्डियाँ बटोरने की
    अरे छोड़ो तोड़ो मन की भ्रान्ति…
                                        — त्रिभुवन गिरी महाराज
 ‘ प्रकृति को भूल चुका मेरा शहर और शहर के लोग…
                                        — चंद्रा उप्रेती
‘ मेरी ज़िंदगी एक ख़्वाब है चाहे जितना भी इसे देख लो…
                                         — राजीव दूबे