बच्चा जब मां के गर्भ से बाहर आता है तो उसे एकदम नई दुनिया दिखाई देती है। गर्भ में तापमान स्थिर रहता है हल्की रोशनी रहती हैं और आवाज भी बहुत मंद होती हैं। वही बाहर की दुनिया ठंडी होती है, तेज रोशनी वाली और शोर से भरी हुई होती है।
ऐसे में अचानक बदलाव की वजह से बच्चों पर प्रभाव पड़ता है और उसका शरीर तुरंत प्रतिक्रिया देता है। यह प्रतिक्रिया रोने के रूप में सामने आती है जो यह बताता है कि बच्चा जीवित है और उसके शरीर में माहौल के साथ तालमेल बैठा रहा है।
डॉक्टरों के मुताबिक बच्चे का पहला रोना उसकी सेहत का सबसे अहम संकेत होता है। गर्भ में रहते हुए बच्चे के फेफड़े पूरी तरह सक्रिय नहीं होते, क्योंकि उसे ऑक्सीजन नाल के जरिए मिलती है।
जन्म लेते ही उसे खुद सांस लेनी होती है। रोने के दौरान जब बच्चा जोर-जोर से सांस अंदर खींचता है तो बाहर भी छोड़ता है जिससे उसके फेफड़े फैलते हैं और उसमें भारत तरल पदार्थ भी बाहर निकलता है।
यही प्रक्रिया उसे स्वतंत्र रूप से सांस लेने के काबिल बनाता है। पहले रोना सिर्फ आवाज नहीं बल्कि शरीर के भीतर एक बदलाव भी होता है। इस रोने से दिल तेजी से धड़कता है और रक्त संचार का नया चक्र भी शुरू होता है शरीर के हर हिस्से तक ऑक्सीजन पहुंचने लगती है।
इसलिए कई बार डॉक्टर बच्चे के रोने का इंतजार करते हैं, क्योंकि यह उसके हृदय और फेफड़ों के सही ढंग से काम करने का सबूत होता है। अक्सर सवाल उठता है कि बच्चा हंसता क्यों नहीं। दरअसल हंसी एक भावनात्मक और सामाजिक प्रतिक्रिया है, जो दिमाग के विकास से जुड़ी होती है।
जन्म के समय बच्चे का दिमाग सिर्फ जरूरत के लिए काम करता है। भूख, ठंड, दर्द या असहजता जैसे भावनाओं को वह रोकर व्यक्त करता है। हंसने के लिए उसे सुरक्षा, अपनापन, चेहरे पहचानने की क्षमता होनी चाहिए। जो धीरे-धीरे हफ्ते और महीने में विकसित होती है। जन्म के बाद शुरुआती दिनों में ही रोना बच्चों की भाषा होता है।
भूख लगने पर, डायपर गीला होने पर, नींद आने पर या पेट में गैस होने पर वह रोकर संकेत देता है। मां अक्सर अपने बच्चे के रोने के अलग-अलग सुर पहचानने लगती है. यही वजह है कि डॉक्टर रोने को परेशानी नहीं, बल्कि संचार का तरीका मानते हैं।
