आज दो, अभी दो! 37 साल पहले एक नारे ने कैसे बदल दी पहाड़ के आंदोलन की किस्मत? त्रिवेंद्र सिंह पवार की पहली पुण्यतिथि पर पढ़े ये खास रिपोर्ट

जगमोहन रौतेलानई दिल्ली/ऋषिकेश, 23 अप्रैल 2025आज से ठीक 37 साल पहले का दिन … 23 अप्रैल 1987। लोकसभा की आम कार्यवाही चल रही थी। अचानक,…

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जगमोहन रौतेला
नई दिल्ली/ऋषिकेश, 23 अप्रैल 2025
आज से ठीक 37 साल पहले का दिन … 23 अप्रैल 1987। लोकसभा की आम कार्यवाही चल रही थी। अचानक, सब थम गया। दर्शक दीर्घा से एक आवाज़ गूंजी – “आज दो, अभी दो, उत्तराखंड राज्य दो!” इसके साथ ही सदन के फर्श पर कागज के पर्चे बिखर गए। यह कोई मामूली शोर-शराबा नहीं था। यह उत्तराखंड के एक जांबाज युवा की वह खुली बगावत थी, जिसने एक पूरे आंदोलन की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।


वो युवा थे त्रिवेंद्र पंवार, उत्तराखंड क्रांति दल के तत्कालीन वरिष्ठ उपाध्यक्ष। आज उनकी पहली पुण्यतिथि पर, आइए उस जोखिम भरी कहानी को याद करते हैं, जिसे इतिहास के पन्नों में बिसरा दिया गया।


ये बनाया सीक्रेट प्लान
संसद भवन में सुरक्षा व्यवस्था हमेशा से अभेद्य रही है। पर्चे या कोई भी सामग्री अंदर ले जाना असंभव है। यहाँ तक कि जूते तक उतरवाकर छानबीन की जाती है।लेकिन पंवार जी ने अपनी पहाड़ी चतुराई दिखाई!उन्होंने अपने मोजे के अंदर, पैरों के तलवों के नीचे, छोटे-छोटे लिखे पर्चे चिपका लिए। जब सुरक्षा गार्ड्स ने उनके जूते खोले, तो उनकी नज़र मोजे तक नहीं पहुँची। बस! इस तरह वह अपना ‘पत्र बम’ सदन के अंदर ले जाने में कामयाब रहे।


सही वक्त का इंतज़ार किया गया—प्रश्नकाल खत्म होने से ठीक पहले—और फिर वह ऐतिहासिक पल आ गया जब उन्होंने पर्चे फेंके और नारा बुलंद किया।


23 अप्रैल ही क्यों?
वीर चंद्र सिंह गढ़वाली से प्रेरित होकर लिया साहसिक फैसला
यह तारीख इत्तेफाक नहीं थी, बल्कि शहादत को सलामी थी। त्रिवेंद्र पंवार जी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के साहस से प्रभावित थे। 23 अप्रैल 1930 को ही गढ़वाली ने पेशावर में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया था। पंवार ने जानबूझकर उसी ऐतिहासिक दिन को अपनी कार्रवाई के लिए चुना, ताकि बलिदान और साहस का संदेश एक साथ जाए।

तिहाड़ जेल से रिहाई, पर दर्द आज भी बाकी
इस घटना ने पूरे देश को हिला दिया। आकाशवाणी और बीबीसी जैसे बड़े मीडिया घरानों ने इसे प्रमुखता से दिखाया, जिससे उत्तराखंड आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। पंवार को तिहाड़ जेल भेज दिया गया, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष के आदेश पर दो दिन बाद ही उन्हें रिहा कर दिया गया।देहरादून में उनका भव्य स्वागत हुआ, लेकिन यहाँ एक कड़वा सच भी है
उत्तराखंड क्रांति दल ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं को जनता तक पहुँचाने में नाकाम रहा। क्या इसी वजह से इस संघर्ष और बलिदान का सारा श्रेय बाद में दूसरे राजनीतिक दल ले उड़े?


क्या सच में पूरा हुआ था उस संघर्ष का सपना?
अपने जीवन के अंतिम दिनों में त्रिवेंद्र पंवार ने जो बात कही थी, वह आज भी चुभती है। उनका कहना था कि राज्य तो बन गया, लेकिन आज उत्तराखंड की हालत देखकर लगता है जैसे इसकी बागडोर सही हाथों में नहीं आई। पलायन, रोज़गार और पहाड़ का विकास जैसे मुद्दे आज भी जस के तस हैं।

आज उन्हें याद करना केवल श्रद्धांजलि देना नहीं, बल्कि यह सवाल पूछना भी है – क्या हम उस निडर सैनिक के संघर्ष का सही मोल समझ पाए? क्या उत्तराखंड आज उनके सपनों का राज्य बन पाया है? यह कहानी सिर्फ इतिहास नहीं, आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सबक है, जिसे कभी भुलाया नहीं जाना चाहिए।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार है और जन सराकोरों से जुड़े लेखन के लिए जाने जाते है।