प्रसिद्ध लेखक और कवि मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral) का निधन, उत्तराखंड समेत पूरे देश में शोक की लहर

Newsdesk Uttranews
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writer and poet Mangalesh Dabral dies

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देहरादून। प्रसिद्ध कवि और लेखक मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral) का बुधवार शाम निधन हो गया। 72 वर्षीय मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral) कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए थे, जिसके बाद उन्हें गाजियाबाद के वसुंधरा के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था।

तबीयत ज्यादा खराब होने पर उन्हें तीन दिन पहले एम्स में शिफ्ट किया गया था। आज शाम 5 बजे उनको डायलेसिस में रखा गया था अचानक उनको 2 बार हार्ट अटैक आया और देर शाम मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral) की मृत्यु हो गई।


मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral)की मौत से पूरे देश समेत उत्तराखंड में भी शोक की लहर है। लोग सोशल मीडिया के माध्यम से उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता चारू तिवारी ने अपनी फेसबुक वॉल पर मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral) को इन शब्दों में श्रद्धांजलि दी है।

मंगलेश जी (Mangalesh Dabral) हिन्दी साहित्य के बहुत सम्मानित हस्ताक्षर थे। कविता तो उनकी विधा रही। उन्होने समाज को प्रगतिशील नजरिये से देखने की चेतना पर भी बहुत काम किया। जनसंघर्षो का साथ तो दिया ही मजदूर,किसान,दमित,महिला और दलित संदर्भो को भी हर मंच से उठाया।

डबराल (Mangalesh Dabral) जी का जन्म टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में हुआ था। देहरादून में पढ़ाई के बाद वे दिल्ली आ गये। यही ‘हिंदी पेटियट‘ , ‘प्रतिपक्ष‘, और ‘आसपास‘ में काम किया। बाद में भोपाल के सांस्कृतिक केन्द्र भारत भवन से निकलने वाली पत्रिका ‘पूर्वग्रह‘ में सहायक संपादक के रूप में कार्य करने लगे।

इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात‘ में साहित्य संपादक रहे। 1983 में दिल्ली आकर ‘ जनसत्ता‘ के साहित्य संपादक के रूप में कार्य करने लगे। कुछ समय ‘नेशनल बुक ट्रस्ट‘ में रहे। ‘सहारा समय‘ के साहित्य संपादक रहे। बीच में कुछ और पत्र- पत्रिकाओं के साथ भी जुड़े। उनकी साहित्यिक यात्रा बहुत लंबी है।

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral) का जन्म 14 मई 1948 को टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड के काफलपानी गांव में हुआ था। उनकी शिक्षा देहरादून में हुई जिसके बाद वे दिल्ली आ गये। यहीं ‘हिन्दी पेटियट’, ‘प्रतिपक्ष’ और ‘आसपास’ में काम किया। बाद में भोपाल के सांस्कृतिक केन्द्र भारत भवन से निकलने वाली पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ में सहायक संपादक के रूप में काम करने लगे। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात’ में साहित्य संपादक रहे। 1983 में दिल्ली आकर ‘जनसत्ता’ के साहित्य संपादक के रूप में कार्य करने लगे। कुछ समय ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ में रहे। ‘सहारा समय’ के साहित्य संपादक रहे। बीच में कुछ और पत्र-पत्रिकाओं के साथ भी जुड़े।

उनके चार कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन (1981), घर का रास्ता (1988), हम जो देखते हैं (1995), आवाज भी एक जगह है (2000), कवि का अकेलापन, नये युग में शत्रु’ में प्रकाशित हुए। एक यात्रा डायरी ‘एक बार आयोवा’ (1996) और एक गद्य संग्रह लेखक की रोटी (1997) में प्रकाशित हुई है।

उनकी कविताओं का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी, स्पानी, पोल्स्की, बोल्गारी आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उन्होंने कई विदेशी कवियों की कविताओं का अनुवाद किया।

उन्हें अपने कविता संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। मुझे उनकी बहुत सारी कविताएं पसंद है। मंगलेश डबराल (Mangalesh Dabral)की दो कवितायें आपके साथ साझा कर रहा हूं।

मंगलेश जी हिन्दी साहित्य के बहुत सम्मानित हस्ताक्षर थे। कविता तो उनकी विधा रही। उन्होंने समाज को प्रगतिशील नजरिये से देखने की चेतना पर भी बहुत काम किया । जनसंघर्षों का साथ तो दिया ही मजदूर, किसान, शोषित, दमित, महिला और दलित संदर्भों को भी हर मंच से उठाया। डबराल जी का जन्म टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में हुआ था। देहरादून में पढ़ार्इ के बाद में दिल्ली आ गये। यहीं ‘हिन्दी पेटियट’, ‘प्रतिपक्ष’ और ‘आसपास’ में काम किया। बाद में भोपाल के सांस्कृतिक केन्द्र भारत भवन से निकलने वाली पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ में सहायक संपादक के रूप में काम करने लगे। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात’ में साहित्य संपादक रहे। 1983 में दिल्ली आकर ‘जनसत्ता’ के साहित्य संपादक के रूप में कार्य करने लगे। कुछ समय ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ में रहे। ‘सहारा समय’ के साहित्य संपादक रहे। बीच में कुछ और पत्र-पत्रिकाओं के साथ भी जुड़े। उनकी साहित्यिक यात्रा बहुत लंबी है। जारी है। उनके चार कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन (1981), घर का रास्ता (1988), हम जो देखते हैं (1995), आवाज भी एक जगह है (2000), कवि का अकेलापन, नये युग में शत्रु’ में प्रकाशित हुये हैं। एक यात्रा डायरी ‘एक बार आयोवा’ (1996) और एक गद्य संग्रह लेखक की रोटी (1997) में प्रकाशित हुर्इ है। उनकी कविताओं का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी, स्पानी, पोल्स्की, बोल्गारी आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उन्होंने कर्इ विदेशी कवियों की कविताओं का अनुवाद किया । उन्हें अपने कविता संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ के लिये साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। मुझे उनकी बहुत सारी कविताएं पसंद हैं। दो कविताएं आपके साथ साझा कर रहा हूं-

1.
पहाड़ पर चढ़ते हुए
तुम्हारी सांस फूल जाती है
आवाज भर्राने लगती है
तुम्हारा कद भी घिसने लगता है

पहाड़ तब भी है, जब तुम नहीं हो।

2.
अत्याचारी के निर्दोष होने के कर्इ प्रमाण हैं
उसके नाखून या दांत लंबे नहीं होते हैं
आंखें लाल नहीं रहती
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं।

अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बंदूकें
सिर्फ सजावट के लिए रखी हुई है


उसका तहखाना एक प्यारी सी जगह है
जहां श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है

अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है
कर्इ मरे हुए लोग भी उसके घर आते-जाते हैं।
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