लोकसभा, विधानसभा के मतदाता लेकिन नहीं चुन सकते गांव की सरकार।

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मयंक मैनाली की रिपोर्ट। देश को आजाद हुए भले ही दशकों बीत चुकेे हैं, लेकिन वन ग्रामों में रह रहे लोग आज भी गुलामी से भी बदतर जीवन जीने को मजबूर हो रहे हैं। लंबे वक्त से वन ग्रामों को राजस्व गांव घोषित करने की मांग कर रहे वन ग्रामीण भी अब प्रशासन की काहिली के आगे हार मान चुके हैं। और तो और वन ग्रामों में निवास करने वाले ग्रामीण पंचायत के चुनाव में भी भागीदारी नहीं कर सकते हैं। पूरे राज्य में यह आंकडा तकरीबन चार लाख के लगभग की ग्रामीण आबादी का है। यदि बात अकेले नैनीताल जनपद की जाए तो अकेले नैनीताल जनपद में तकरीबन पौने दो लाख ग्रामीण आबादी वन ग्रामों में है जो मताधिकार से वंचित है। पंचायत के चुनाव में मताधिकार नहीं होने से ग्रामीण आज तक मूलभूत सुविधाओं के लिए आवाज तक नहीं उठा पाते हैं। जंगल से सटे होने के कारण इन्हें खत्ते भी कहा जाता है। 
 सरकारें वन ग्रामों को राजस्व गांव घोषित करने की बात तो कहती है लेकिन सरकार की यह घोषणाएं कभी कानूनी दांवपेंचों तो कभी फाइलों में कैद भर होकर रह जाती है। वहीं राजस्व गांव घोषित नहीं होने के चलते ग्रामीण आज भी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित रह जाते हैं। गौरतलब है कि नैनीताल जनपद के रामनगर, बिंदुखत्ता, चोरगलिया, गौलापार में भी बडी संख्या में लंबे समय से लोग वन ग्रामों मे रह रहे हैं। संभवतया पूरे प्रदेश में सर्वाधिक 24 वन ग्राम अकेले रामनगर में ही है।इसके अतिरिक्त तकरीबन डेढ लाख की आबादी अकेले बिंदुखत्ता में है। जो आज भी सरकार की ओर उनके गांवों को राजस्व गांव घोषित करने की ओर टकटकी लगाए हुए हैं। पूरे राज्य  के अंर्तगत वनग्रामों, गोठों, खत्तों और सैन्य ग्रामों को लंबे वक्त से राजस्व गांव घोषित किए जाने की मांग चल रही है। इसके लिए इन इलाकों में रह रहे लोगों ने वक्त-वक्त पर अपनी आवाज भी बुलंद की थी। लेकिन सरकारी आश्वासनों और कानूनी दांवपेंचों में उनकी मांग अब कहीं दबती नजर आ रही है। आजादी से पूर्व से ही वन ग्रामों में रह रहे लोग आज भी स्वास्थ्य, शिक्षा, बिजली, पानी, सडक जैसी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है। लंबे समय से आंदोलन कर रहे ग्रामीण भी अब वन ग्रामों में सुविधाओं के अभाव में रहने को अब अपनी नियति मान चुके हैं। जबकि उत्तराखंड सरकार ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि वन ग्रामों में रह रहे अधिकांश बाशिंदे 75 से 80 सालों से भी पहले इन जगहों पर काबिज हैं। जबकि वन ग्रामीण अपनी बसासत आजादी से भी कई वर्ष पूर्व की बताते हैं।  गौरतलब है कि वन ग्रामों में कडे फारेस्ट एक्ट के चलते बिजली, पानी, सडक, स्कूल आदि के निर्माण के लिए सख्त नियम है। जिसके चलते यहां रहने वाले बाशिंदों को मूलभूत सुविधाओं के लिए भी कई किलोमीटर का सफर तय करना पडता है। इन इलाकों में असुविधाओं का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि अधिकांश वन ग्रामों में  आज तक बिजली की सुविधा भी नहीं पहुंच पाई है। वन ग्रामीणों में सबसे तीखा आक्रोश सरकार और सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति है। वन ग्रामीण कहते है कि चुनाव के समय राजनैतिक दल और नेता उनके क्षेत्र में आकर बडे-बडे दावे तो करते हैं लेकिन सत्ता मिलते ही फिर पांच सालों तक कोई उनकी सुध भी नहीं लेता। 21 वीं सदी में भी  विकास की आस में बदतर जीवन जी रहे ग्रामीणों की वर्तमान जिंदगी सरकारी कार्यशैली और विकास के बडे-बडेे दावों की पोल खोल देती है। वहीं पंचायत के चुनाव में भागीदारी नहीं कर पाने को भी वह निराशा मानते हैं। ग्रामीणों का कहना है कि गांव की सरकार का सीधा मतलब विकास से होता है लेकिन उन्हें इसी मताधिकार से वंचित रखा गया है। 
रामनगर सहित नैनीताल जिले में राजस्व गांव की आस लगाए ग्राम—-
रामनगर। रामनगर में वन ग्रामों से राजस्व गांव में तब्दील होने की आस लगाए 24 वन ग्राम हैं। जिनमें कालूसिद्व नईबस्ती, पुछडी नई बस्ती, आमडंडा खत्ता, रिंगौडा खत्ता, देवीचैड खत्ता, संुदरखाल, शिवानी खत्ता मोहान, चोपडा, लेटी, रामपुर, टेडा, बेलगढ, किशनपुर छोई, करगिल पटरानी, कुंभगडार खत्ता, शिवनाथपुर नई बस्ती, शिवनाथपुर पुरानी बस्ती, अर्जुननाला, हनुमानगढी, नम्मावली, मालधनचैड, तुमडिया खत्ता, चूनाखान आदि शामिल हैं। वहीं नैनीताल जिले के गौलापार के कुछ गांव, चोरगलिया, बिंदुखत्ता, हल्द्वानी के बागजाला आदि गांव शामिल हैं।   अंग्रेजों के बसाए हैं वन ग्राम—– 
रामनगर। वन ग्र्रामों के आंदोलनों से जुडे लोगों का तर्क है कि उनकी बसासत 1930 से भी पहले की हैं उन्हें टोंगिया प्लान के तहत अंग्रेजों ने बसाया था। लेकिन देश आजाद होने के बाद भी उन्हें आज भी मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया है। आजाद भारत में भी उन्हें लंबा संघर्ष करना पड रहा है। सांसद और विधायक के चुनाव में तो मतदान का अधिकार मिलता है लेकिन पंचायत के ेचुनावों में मताधिकार से वंचित रखकर सौतेला व्यवहार किया जाता है।  

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इस लेख के लेखक मयंक मैनाली लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। मैनाली ने हेमवती नंदन बहुगुणा, गढवाल विश्वविद्यालय से एम. ए. (पत्रकारिता) विषय का अध्ययन किया हुआ है। इसके अतिरिक्त वह सोशल एक्टिविस्ट भी है। वर्तमान में विधि व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।
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