ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) के 75 वर्ष पर याद आये पिथौरागढ़ के जांबाज गजेंद्र

Newsdesk Uttranews
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brave Gajendra of Pithoragarh remembered on 75 years of Great Patriotic War

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Hero Of Great Patriotic War gajendra singh

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कुन्डल सिंह

पिथौरागढ़। इस समय रूस जब तत्कालीन नाजी जर्मनी पर सोवियत और मित्र सेनाओं की विजय (Great Patriotic War) की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है तो उस जीत के नायक भी चर्चा में हैं। इनमें भारत के जांबाज भी शामिल हैं, जिनमें पिथौरागढ़ निवासी हवलदार स्व. गजेंद्र सिंह या गजेंद्र चंद भी एक हैं, जिन्हें तत्कालीन सोवियत संघ के सर्वोच्च सम्मान आर्डर आफ रेड स्टार ( Order of red star) से नवाजा गया था।

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सोवियत यूनियन ने ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) में उल्लेखनीय भूमिका के लिये गजेंद्र सिंह को दिया था सर्वोच्च सम्मान

लेकिन खेद का विषय है सोवियत यूनियन ने ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) में उल्लेखनीय भूमिका के लिये सम्मान पाने वाले स्व0 गजेंद्र सिंह के परिवार के आर्थिक हालात कुछ खास नहीं रहे और आज भी उनके बच्चों के परिवारों की स्थिति में कोई बेहतर बदलाव नहीं आ पाया है। यही नहीं हवलदार गजेंद्र सिंह को वह 15 रूबल प्रतिमाह पेंशन भी नहीं मिली, जो सम्मान की घोषणा के अनुरूप ताउम्र उन्हें दिये जाने की बात कही जाती है।


जिला मुख्यालय से लगभग 15 किलोमीटर दूर पिथौरागढ़-झूलाघाट मार्ग पर एक गांव है बड़ालू, जो अब एक छोटे कस्बे का रूप ले चुका है। इसी गांव में लगभग सन 1915-16 में एक परिवार में गजेंद्र चंद पैदा हुए, जो करीब 20 साल की उम्र में तत्कालीन ब्रिटिश भारत में आर्मी सप्लाई कोर में एमटी पद पर अल्मोड़ा में भर्ती हो गए।

इस दौरान तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य के बीच 1941 में द्वितीय विश्वयुद्ध (Great Patriotic War) शुरू हो गया। एक तरफ नाजी जर्मनी और उसकी सहयोगी सेनाएं थीं तो दूसरी तरफ सोवियत यूनियन और उसके मित्र राष्ट्र उनका मुकाबला कर रहे थे। भारतीय सैनिकों ने भी बड़े पैमाने पर ब्रिटेन की अगुआई में नाजी जर्मनी के खिलाफ मोर्चा संभाला। इसमें हवलदार गजेंद्र सिंह भी शामिल थे, जिन्होंने भारत से चलकर कठिन परिस्थितियों के बीच इराक और फिर इरान होते हुए यूरोप पहुंचकर अपनी बहादुरी के झंडे गाड़े।

सोवियत यूनियन ने ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) में उल्लेखनीय भूमिका के लिये गजेंद्र सिंह को दिया था सर्वोच्च सम्मान


हवलदार गजेंद्र सिंह के सबसे छोटे पुत्र 62 वर्षीय भगवान चंद बताते हैं कि ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) में उल्लेखनीय भूमिका के 1975 में उनके पिता को रूस के सर्वोच्च सम्मान प्रदान करने के लिये मास्को बुलाया गया था।

उस दौरान उन्होंने पिता से पूछा था कि आपको सम्मान किस चीज के लिए मिला। इस पर उनके पिता ने बताया कि ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) में वह अपने सहयोगी सैनिकों के लिए गोला-बारूद लेकर जा रहे थे। रात का समय था और इसी दौरान दुश्मन सैनिकों ने उनकी जांघ में संगीन घोंप दी। घायल अवस्था में ही काफी लंबा सफर तय कर उन्होंने गोला-बारूद मंजिल तक पहुंचा दिया, लेकिन वहां पहुंचने के बाद वह बेहोश हो गए। पांच-छह दिन उपचार के बाद वह कुछ ठीक हुए तो उन्हें डाक्टरों व उच्च अधिकारियों ने वापस लौटने की सलाह दी, परंतु हवलदार गजेंद्र सिंह ने कहा कि लड़ाई पूरी करने के बाद ही वह अपने वतन लौटना चाहेंगे।


इसके बाद उन्हें इटली में भी तैनात किया गया और ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) में नाजी जर्मनी की पराजय के बाद हवलदार गजेंद्र सिंह तथा बंगलुरु, कर्नाटक निवासी सूबेदार नारायण राव निकम को उनकी बहादुरी व समर्पण के लिए सोवियत यूनियन के सर्वोच्च सम्मान आर्डर आफ रेड स्टार से सम्मानित किया गया।

‘ नहीं मिली 15 रूबल पेंशन, सोवियत संघ में बसने का मिला था आफर ‘

पिथौरागढ़। हवलदार गजेंंद्र सिंह सन 1960 में सेवानिवृत्त हो गए। भगवान चंद के अनुसार शुरू में पिताजी को 60 रुपये पेंशन मिलती थी जो बढ़कर 1986 में 200 पहुंची, लेकिन उन्हें 15 रूबल प्रतिमाह पेंशन का पैसा कभी नहीं मिला। इसको लेकर भारतीय सेना के अधिकारियों व सोवियत संघ (USSR) सोवियत अधिकारियों के साथ बातचीत भी हुई, लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया।

उन्होंने बताया कि सोवियत यूनियन ने ग्रेट पैट्रियोटिक वार (Great Patriotic War) में उल्लेखनीय भूमिका के लिये सम्मान हासिल होने के बाद उनकेपिताजी को सपरिवार सोवियत संघ में बसने का आफर भी मिला, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। तब उनके कोई बच्चे नहीं हुए थे। जब 1975 में भारत में यूएसएसआर सोवियत संघ (USSR) दूतावास के अधिकारी उनको ढूंंढते हुए बड़ालू पहुंचे तो इस दौरान उन्हें बड़ालू में ही काफी जमीन देने की बात भी हुई, लेकिन तब भी शायद गजेंद्र सिंह ने इसके लिए मना कर दिया था। भगवान चंद के अनुसार क्षेत्र में पहले से उनके परिवार की जमीन ठीक थी और वीरान जंगल को लेने का खास औचित्य नहीं था।

छोटे पुत्र को सोवियत संघ भेजने से किया इन्कार

पिथौरागढ़। सन 1975 मेंं सोवियत अधिकारियों के आने पर एक वाकये का जिक्र भगवान चंद याद करते हैं। अधिकारियों ने गजेंद्र सिंह से तब कक्षा आठ-नौ में पड़ने वाले उनके छोटे बेटे भगवान को सोवियत संघ (USSR) ले जाने और वहीं की सरकार के खर्चे पर पढ़ाई-लिखाई करवाने का भी प्रस्ताव रखा, पर गजेंद्र सिंह इसके लिए सहमत नहीं हुए।

गजेंद्र चंद अपने गांव के सरपंच और ग्राम प्रधान भी रहे। जनवरी सन 1988 में काफी बीमार रहने के बाद हवलदार गजेंद्र सिंह का निधन हो गया। लगभग दो साल बाद उनकी पत्नी जयंती चंद भी चल बसीं। दोनों के तीन पुत्र और तीन पुत्रियां हुईंं। जिनमें से दो बड़े पुत्र बीएसएफ में रहे जबकि छोटे पुत्र भगवान चंद लंबे समय से बड़ालू में सस्ते गल्ले की दुकान चलाते हैं।

उन्होंने बताया कि पिछले दिनों भी सोवियत संघ (USSR) अधिकारियों ने उनको और बनबसा में रह रहे उनके मझले भाई को 75 वर्षगांठ के मौके पर रूस आने का प्रस्ताव रखा, लेकिन स्वास्थ्य खराब रहने और जाने की प्रक्रिया में जटिलता के मद्देनजर वह जाने में असमर्थ थे। भगवान चंद कहते हैं कि फिलहाल पिता के सम्मान की याद में यदि क्षेत्र में कोई स्मारक या सड़क आदि का निर्माण ही हो जाता तो बहुत था।

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